"प्रकृति": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ५७:
: बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥
: भावार्थ:-कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥
 
; रामचरितमानस में शरद ऋतु का वर्णन
* बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
: फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
: भावार्थ:-हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥
* उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥
: सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥
: भावार्थ:-अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥
* रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
: जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥
: भावार्थ:-नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥
* पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
: जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥
: भावार्थ:-न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥
* बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
: कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥
: भावार्थ:-बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥
* चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
: जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥
: भावार्थ:-(शरद् ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारों आश्रम वाले (नाना प्रकार के साधन रूपी) श्रमों को त्याग देते हैं॥
* सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
: फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥
: भावार्थ:-जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥
* गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥
: चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥
: भावार्थ:-भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है॥2॥
* चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥
: सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥
: भावार्थ:-पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं॥
* देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
: मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥
: भावार्थ:-चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥
* भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
: सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥
: भावार्थ:-(वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥
 
; रामचरितमानस में वसन्त ऋतु का वर्णन