"प्रकृति": अवतरणों में अंतर
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पंक्ति ३०:
: सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
: भावार्थ:-जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥
: जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं
: भावार्थ:-पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते
* दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
: नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
पंक्ति ५३:
* कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
: जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥
: भावार्थ:-कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते
* कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
: बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥
: भावार्थ:-कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता
; रामचरितमानस में वसन्त ऋतु का वर्णन
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