"प्रकृति": अवतरणों में अंतर

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: अर्थ : वन की भूमि जिसकी हरी-हरी घास ओस गिरने से कुछ-कुछ गीली हो गई है, तरुण धूप के पड़ने से कैसी शोभा दे रही है। अत्यंत प्यासा जंगली हाथी बहुत शीतल जल के स्पर्श से अपनी सूँड़ सिकोड़ लेता है। बिना फूल के वन-समूह कुहरे के अंधाकार में सोए से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढँका हुआ है और जिनमें सारस पक्षियों का पता केवल उनके शब्द से लगता है, हिम से आर्द्र बालू के तटों से ही पहचानी जाती हैं। कमल, जिनके पत्ते जीर्ण होकर झड़ गए हैं, जिनकी केसर-कणिकाएँ टूट-फूटकर छितरा गई हैं, पाले से धवस्त होकर नालमात्र खड़े हैं।
 
; रामचरितमानस (किष्किन्धा काण्ड) में वर्षा ऋतु का वर्णन
* देखत बन सर सैल सुहाए । वाल्मीकि आश्रम प्रभु आये ।।
* सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥
: राम दीख मुनि वासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।
: कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥ -- [[रामचरितमानस]]
: सरनि सरोज बिपट बन फूले । गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
: भावार्थ:-सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में सुंदर कन्द, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई॥1॥
: खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।
* देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥
: मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥ -- [[रामचरितमानस]]
: भावार्थ:-मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट् श्री रामजी छोटे भाई सहित वहाँ रह गए। देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे॥2॥
* घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
: दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
: भावार्थ:-आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥
* बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
: बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥
: भावार्थ:-बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥
* छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
: भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥
: भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥
* समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
: सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
: भावार्थ:-जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥
* हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
: जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥14॥
: भावार्थ:-पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥14॥
* दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
: नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
: भावार्थ:-चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥
* अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
: खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
: भावार्थ:-मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए (उनके पत्ते झड़ गए)। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। (अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता)॥
* ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥
: निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
: भावार्थ:-अन्न से युक्त (लहराती हुई खेती से हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो॥
* महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
: कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
: भावार्थ:-भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥
* देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
: ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
: भावार्थ:-चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥
* बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
: जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥
: भावार्थ:-पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ (शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं)॥
* कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
: जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥
: भावार्थ:-कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं॥15 (क)॥
* कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
: बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥
: भावार्थ:-कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥15 (ख)॥
 
; रामचरितमानस में वसन्त ऋतु का वर्णन
* रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
: स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥
: भावार्थ : वसन्त ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। (हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्री राम के वियोग में नियम-व्रत से रहने वाले हम लोग भोग-विलास में क्यों आ फँसे, कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतों को न त्याग दे)॥
 
 
* देखत बन सर सैल सुहाए । वाल्मीकि आश्रम प्रभु आये ।।
: राम दीख मुनि वासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।पावन॥
: सरनि सरोज बिपट बन फूले । गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।भूले॥
: खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।चरहीं॥
: सूचि सुंदर आश्रम निरखि हरसे राजीव नयन।
: सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगे आयउ लेन॥ -- [[रामचरितमान्सरामचरितमानस]]
 
* माघ मकरगति रवि जब होई, तीरथपतिहिं आव सब कोई।