"प्रकृति": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति १०:
:''नालशेषैर्हिमधवस्तैर्न भांति कमलाकरा:॥'' -- [[वाल्मीकि]], का हेमन्त वर्णन
: अर्थ : वन की भूमि जिसकी हरी-हरी घास ओस गिरने से कुछ-कुछ गीली हो गई है, तरुण धूप के पड़ने से कैसी शोभा दे रही है। अत्यंत प्यासा जंगली हाथी बहुत शीतल जल के स्पर्श से अपनी सूँड़ सिकोड़ लेता है। बिना फूल के वन-समूह कुहरे के अंधाकार में सोए से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढँका हुआ है और जिनमें सारस पक्षियों का पता केवल उनके शब्द से लगता है, हिम से आर्द्र बालू के तटों से ही पहचानी जाती हैं। कमल, जिनके पत्ते जीर्ण होकर झड़ गए हैं, जिनकी केसर-कणिकाएँ टूट-फूटकर छितरा गई हैं, पाले से धवस्त होकर नालमात्र खड़े हैं।
 
* देखत बन सर सैल सुहाए । वाल्मीकि आश्रम प्रभु आये ।।
: राम दीख मुनि वासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।
: सरनि सरोज बिपट बन फूले । गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
: खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।
: सूचि सुंदर आश्रम निरखि हरसे राजीव नयन।
: सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगे आयउ लेन॥ -- [[रामचरितमान्स]]
 
* माघ मकरगति रवि जब होई, तीरथपतिहिं आव सब कोई।   
: देव दनुज किन्नर नर श्रेनी, सदर मज्जहिं सकल त्रिवेणी॥
: भरद्वाज आश्रम अति पावन, परम रम्य मुनिवर मन भावन॥
: तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा, जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा॥
: मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
: ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
: ककहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥
: एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
: प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥ -- [[रामचरितमानस]]
 
* अगर कोई तरीका दूसरे तरीके से बेहतर है तो आप निश्चित रूप से कह सकते हैं कि वो प्रकृति का तरीका है। -- अरस्तु