"प्रेमचन्द": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
No edit summary टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन उन्नत मोबाइल संपादन |
||
पंक्ति ६:
* सुन्दरता को आभूषणों की आवश्यकता नहीं होती। मृदुता आभूषणों का भार वहन नहीं कर सकती।
* कायरता के समान ही साहस भी संक्रामक होता है।
* '''<u>जीवन में सफल होने के लिए आपको शिक्षा की आवश्यकता होती है, साक्षरता और उपाधियों की नहीं।</u>'''
* सत्यता, प्रेम की पहली सीढ़ी है।
* विश्वास, विश्वास को उत्पन्न करता है और अविश्वास, अविश्वास को। यह स्वाभाविक है।
पंक्ति १४:
* विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला।
* आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।
* '''सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है।'''
* अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है।
* आत्म सम्मान की रक्षा, हमारा सबसे पहला धर्म है।
पंक्ति ५९:
* दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते।
* मै एक मज़दूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई
* बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
Line ९१ ⟶ ८९:
* कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता । कर्तव्य~पालन में ही चित्त की शांति है ।
*
▲* आत्म सम्मान की रक्षा, हमारा सबसे पहला धर्म है ।
* मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके ह्रदय के किसी न किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा रहता है। जिस तरह पत्थर में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी ~ चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं।
Line १०९ ⟶ १०५:
* साक्षरता अच्छी चीज है और उससे जीवन की कुछ समस्याएं हल हो जाती है, लेकिन यह समझना कि किसान निरा मुर्ख है, उसके साथ अन्याय करना है।
*
* हम जिनके लिए त्याग करते हैं, उनसे किसी बदले की आशा ना रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं। चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो। त्याग की मात्रा जितनी ज्यादा होती है, यह शासन भावना उतनी ही प्रबल होती है।
Line ११५ ⟶ १११:
* क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक~एक वाक्य निशाने पर बैठा है या नहीं। वह मौन को सहन नहीं कर सकता। ऐसा कोई घातक शस्त्र नहीं है जो उसकी शस्त्रशाला में न हो, पर मौन वह मन्त्र है जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है।
*
* ।।
* ऐश की भूख रोटियों से कभी नहीं मिटती। उसके लिए दुनिया के एक से एक उम्दा पदार्थ चाहिए।
Line १३९ ⟶ १३३:
* जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात अपने आप ही मुंह से निकल पड़ती है ।
* अपनी भूल अपने ही हाथ सुधर जाए तो,यह उससे कहीं अच्छा है कि दूसरा
* आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।
*
* '''<u>डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है</u>''' ।
* चिंता एक काली दिवार की भांति चारों ओर से घेर लेती है, जिसमें से निकलने की फिर कोई गली नहीं सूझती।
|