"दर्शन": अवतरणों में अंतर

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* ''प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास च्छल जति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्श्रेयसाधिगमः ॥'' -- अक्षपाद गौतम, न्यायसूत्र
: अर्थ : प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है।
 
* ''इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति। यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हे, कालामा, पजहेय्याथ।'' -- केसमुत्ति सुत्त, त्रिपिटक
: अर्थ : हे कालामाओ ! ये सब मैंने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है, किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।
 
* हल न किये जाने योग्य समस्याओं का ऐसा समाधान सुझाना जो समझ में न आये - यही दर्शन (फिलॉसफी) है। -- Henry Adams, The Education of Henry Adams (1907), Ch. XXIV.
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