"वाणी": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ३:
: ''न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः।
: ''वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
: ''क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥'' -- भर्ठरिभर्तृहरि, नीतिशतक
: इस धरती पर पुरुषों (मनुष्यों) की सुन्दरता न तो बाजूबन्द पहनने से और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कांति वाले मोतियों की माला ही पहनने से बढ़ती है। न स्नान से, न सुगंधित पदार्थों के लेपन से, न फूलों की सज्जा से, न ही बालों को बनाने से ही (मनुष्य की सुन्दरता में वृद्धि होती है)। एकमात्र संस्कारित वाणी अपनाने से ही मनुष्य के सौन्दर्य को बढ़ाती है। सभी प्रकार के आभूषण समयान्तराल के बाद नष्ट ही हो जाते हैं, किन्तु मधुर/सारगर्भित/कल्याणकारी वाणी ही सदैव मनुष्य का आभूषण होती है।
 
* ''प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
: ''तस्मात् तदेव वक्तव्यं , वचने का दरिद्रता ॥
: ( प्रिय वाणी बोलने से सभी जन्तु खुश हो जाते है । इसलिये मीठी वाणी ही बोलनी चाहिये , वाणी में क्या दरिद्रता ? )
 
पंक्ति १६:
: औरन को शीतल लगे , आपहुँ शीतल होय ॥ -- कबीरदास
 
* मधुर वचन है औषधिऔषधी , कटुक वचन है तीर ।
: श्रवण मार्ग ह्वै संचरै , शाले सकल शरीर ॥ -- कबीरदास
 
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