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अनुनाद सिंह (चर्चा | योगदान) No edit summary |
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[[चित्र:Gosvami Tulsidas II.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल वाल्मीकीय रामायण को आर्य काव्य का आदर्श मानते हैं। ’मानस‘ में तुलसीदास धर्मोपदेष्टा और नीतिकार के रूप में सामने आते हैं। वह ग्रंथ एक धर्मग्रंथ के रूप में भी लिखा गया है।
: '' ''नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रतधारी।''
गोस्वामी तुलसीदास ने धर्मरथ के रूपक के माध्यम से धर्म के विभिन्न अंगों का विस्तार से प्रतिपादन किया है। (७/१०३) ’ज्ञानदीपक‘ (लंकाकांड ८०/३-६) के प्रसंग में भी उन्होंने धर्म के विविध अंगों का परिचय दिया है। जीवन मनुष्य की कडी कसौटी लेता है। रामचरितमानस में वर्णधर्म, आश्रमधर्म, पुत्रधर्म, स्त्रीधर्म, युगधर्म का भी निरूपण किया है। जैसे
: '' नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदय राम माया के प्रेरें॥'' (७/१.४/१.२)
जहाँ समाज मानस-रोगों से विमुक्त होकर विमलता, शुभ्रता, नीति और धर्म का चरण करे, उसी का नाम कल्याणकारी राज्य। यह कल्याणकारी राज्य अशत्रुत्व और समता का राज्य है। इसके अभाव में राज्य कल्याण - राज्य न रहकर अनेक दूषणों से दूषित हो जाता है, जिसकी झाँकी तुलसी ने हमें ’कलि-काल‘ वर्णन में कराई है।
’रामचरित-मानस‘ उन आदर्शों की उर्वर भूमि है, जिसको अपनाने से किसी युग की प्रजा अपने कल्याण की साधना कर सकती है। वैसे तो रामराज्य का वर्णन रामचरितमानसेतर अन्य ग्रंथों में भी मिलता है
रामराज्य का विस्तृत वर्णन हमें ’रामचरितमानस‘ के ’उत्तरकांड‘ में मिलता है। तुलसीदास कहते हैं -
इस प्रकार राम के राज्य में शशि की अमृतमयी किरणों से अवनि परिपूर्ण थी और बादल माँगने पर जलधारा बरसाते थे।
धर्मयुक्त कल्याणकारी राज्य का मूल है
: ''जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।''
: ''सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥''
जिसमें प्रजा सुखी है, वही कल्याणकारी राज्य है, वही सुराज्य है - ’’सुखी प्रजा जनु पाई सुराजु‘‘ - पंक्ति में वही भाव ध्वनित है - कल्याणकारी राज्य के राजा का प्रधान धर्म है
: ''साधु, सुजान, सुशील, नृपाला ईश अंश भव राम कृपाला।''
ष्त्मसंअंदबमष् अथवा ’प्रासंगिकता‘ आखिर है क्या? श्री अमृत मोदी के शब्दों में
: ष्त्मसंअंदबम तममितमे जव पजे इमपदह चतंबजपबंसण् । जीपदह पे
अमुक सिद्धान्त आज के संदर्भ में व्यावहारिक हैं? इन्हें प्रयोग में लाना संभव है।
’तुलसी के हिय हेरि‘ में तुलसी-साहित्य के मर्मज्ञ स्व. विष्णुकान्त शास्त्री जी ने ’आधुनिकता की चुनौती और तुलसीदास‘ शीर्षक अध्याय में कहा है कि तुलसीदास की विचारधारा का विपुलांश आज भी वरणीय है। श्रीराम सगुण या निर्गुण ब्रह्म, अवतार, विश्वरूप, चराचर व्यक्त जगत् या चाम मूल्यों की समष्टि और स्रोत-उन का जो भी रूप आप को ग्राह्य हो) के प्रति समर्पित, सेवाप्रधान, परहित निरत, आधि-व्याधि-उपाधि रहित जीवन, मन, वाणी और कर्म की एकता, उदार, परमत सहिष्णु, सत्यनिष्ठ, समन्वयी दृष्टि, अन्याय के प्रतिरोध के लिए वज्र - कठोर, प्रेम-करुणा के लिए कुसुम कोमल चित्त, गिरे हुए को उठाने और आगे बढने की प्रेरणा और आश्वासन, भोग की तुलना में तप को प्रधानता देने वाला विवेकपूर्ण संयत आचरण, दारिद्रय मुक्त, सुखी, सुशिक्षित, समृद्ध समतायुक्त समाज, साधुमत और लोकमत का समादर करनेवाला प्रजाहितैषी शासन-संक्षेप में यही आदर्श प्रस्तुत किया है, तुलसी की ’मंगल करनि, कलिमल हरनि‘-वाणी ने। क्या आधुनिकता इस को खारिज कर सकती है ?
विष्णुकान्त शास्त्री जी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने रखते हुए पूछते है
जीवन के प्रत्येक अंग में
मति अति नीच, ऊँचि रुचि आछी । <Br/>
चहिअ अमिय जग, जुरइ न छाछी
: सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि
अर्थ : स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता ,वह हृदय में खूब पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है
▲सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ||
▲अर्थ : स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता ,वह हृदय में खूब पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है |
अर्थ : जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय होते हैं
▲सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि |
▲ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि ||
▲अर्थ : जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय होते हैं |दरअसल ,उनका तो दर्शन भी उचित नहीं होता |
==बाहरी कडियाँ==
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