"भगवद्गीता": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ७:
: मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
: अर्थ - धृतराष्ट्र बोले - हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित,। युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ? ॥१॥
 
* नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
: न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
: अर्थ- आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है। जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
 
* जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
: तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
: अर्थ - जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है। इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।
 
* क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है, जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है।
 
* नरक के तीन द्वार होते है, वासना, क्रोध और लालच।
 
* जिस प्रकार अग्नि स्वर्ण को परखती है, उसी प्रकार संकट वीर पुरुषों को।
 
* मनुष्य को परिणाम की चिन्ता किए बिना, लोभ- लालच बिना एवं निस्वार्थ और निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
 
* मनुष्य को अपने कर्मों के संभावित परिणामों से प्राप्त होने वाली विजय या पराजय, लाभ या हानि, प्रसन्नता या दुःख इत्यादि के बारे में सोच कर चिंता से ग्रसित नहीं होना चाहिए।
 
* अपने अनिवार्य कार्य करो, क्योंकि वास्तव में कार्य करना निष्क्रियता से बेहतर है।
 
* अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है।
 
* युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
: युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
: अर्थ - जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है। वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
 
* मनुष्य का मन इन्द्रियों के चक्रव्यूह के कारण भ्रमित रहता है। जो वासना, लालच, आलस्य जैसी बुरी आदतों से ग्रसित हो जाता है। इसलिए मनुष्य का अपने मन एवं आत्मा पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
 
* असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
: अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
: अर्थ - हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु, हे कुन्तीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
 
* जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
 
* मैं धरती की मधुर सुगंध हूँ, मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ। (कृष्ण)
 
* यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
: तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥18.78॥
: अर्थ- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है। (संजय, गीता के अन्त में)
 
==इन्हें भी देखें==