"भारतेंदु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

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* भारतवर्ष की उन्नति के जो अनेक उपाय महात्मागण आजकल सोच रहे हैं, उनमें एक और उपाय होने की आवश्यकता है। इस विषय के बड़े-बड़े लेख और काव्य प्रकाश होते हैं, किंतु वे जनसाधारण के दृष्टिगोचर नहीं होते। इसके हेतु मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बनें और वे सारे देश, गांव-गांव में साधारण लोगों में प्रचार की जाएं। मेरी इच्छा है कि मैं ऐसे गीतों का संग्रह करूं और उनको छोटी-छोटी पुस्तकों में मुद्रित करूं।
 
; नर-नारी की समानता
: खल जनन सों सज्जन दुखी मति होंहि, हरिपद मति रहै।
: अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै।।
: बुध तजहि मत्सर, '''नारि नर सम होंहि''', जग आनंद लहै।
: तजि ग्राम कविता, सुकविजन की अमृतवानी सब कहै॥ (कविवचनसुधा के प्रवेशांक में भारतेन्दु द्वारा अपने आदर्श की घोषणा)