"भारतेंदु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

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इनके द्वारा रचित मौलिक नाटक, अनूदित नाट्य रचनाएँ, काव्यकृतियां एवम् निबन्ध आदि हिन्दी साहित्य की धरोहर है ।
 
==विचार==
 
; मातृभाषा
== मौलिक नाटक ==
 
===[[वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति]]===
 
; ब्रजभाषा
<big>'''प्रहसन'''</big>
* जो हो मैंने आप कई बेरे परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाऊँ पर वह मेरे चित्तानुसार नहीं बनी इससे यह निश्चित होता है कि ब्रज-भाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी के कविता ब्रज-भाषा में ही उत्तम होती है।
 
* प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखिएगा कि इस में क्या कसर है। और किस उपाय के अवलम्बन करने से इस भाषा में काव्य सुंदर बन सकता है। इस विषय में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जाएगा। तीन भिन्न-भिन्न छंदों में यह अनुभव करने के लिए कि किस छंद में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है। मेरा चित्त इससे संतुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रज-भाषा से मुझे इसके लिखने में दूना परिश्रम हुआ। इस भाषा की क्रियाओं में दीर्घ भाग विशेष होने के कारण बहुत असुविधा होती है। मैंने कहीं-कहीं सौकर्य के हेतु दीर्घ मात्राओं को भी लघु करके पढ़ने की चाल रखी है। लोग विशेष इच्छा करेंगे और स्पष्ट अनुमति प्रकाश करेंगे तो मैं और भी लिखने का यत्न करूँगा। (1 सितंबर 1881 को ‘भारत मित्र’ के सम्पादक को पत्र )
 
; भारत की दुर्दशा
नांदी
: आवहु सब मिल रोवहु भारत भाई ।
: हा! हा!! भारत दुर्दशा देखि ना जाई ॥
 
; अंग्रेज
दोहा - बहु बकरा बलि हित कटैं, जाके। बिना प्रमान।
* जब अंग्रेज विलायत से आते हैं प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं। (अपनी पत्रिका कविवचनसुधा में)
 
* अंगरेजी राज सुखसाज सजे अति भारी, पर सब धन विदेश चलि जात ये ख्वारी।
सो हरि की माया करै, सब जग को कल्यान ।।
 
* भाइयो! अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोक के इनके सामने खड़े तो हो जाओ देखो भारतवर्ष का धन जिसमें जाने न पावे वह उपाय करो। (कविवचनसुधा में)
 
* भीतर भीतर सब रस चूसै, बाहर से तन मन धन मूसै।<br>जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन? नहिं अंग्रेज ॥ ('अंधेरनगरी' में)
सूत्रधार और नटी आती हैं,
 
सूत्रधार : अहा हा! आज की संध्या की कैसी शोभा है। सब दिशा ऐसा लाल हो रही है, मानो किसी ने बलिदान किया है और पशु के रक्त से पृथ्वी लाल हो गई है।
 
; भारतवर्ष की उन्नति
नटी : कहिए आज भी कोई लीला कीजिएगा?
* भारतवर्ष की उन्नति के जो अनेक उपाय महात्मागण आजकल सोच रहे हैं, उनमें एक और उपाय होने की आवश्यकता है। इस विषय के बड़े-बड़े लेख और काव्य प्रकाश होते हैं, किंतु वे जनसाधारण के दृष्टिगोचर नहीं होते। इसके हेतु मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बनें और वे सारे देश, गांव-गांव में साधारण लोगों में प्रचार की जाएं। मेरी इच्छा है कि मैं ऐसे गीतों का संग्रह करूं और उनको छोटी-छोटी पुस्तकों में मुद्रित करूं।
 
सूत्रधार : बलिहारी! अच्छी याद दिखाई, हाँ जो लोग मांसलीला करते हैं उनकी लीला करैंगे।
 
नेपथ्य में, अरे शैलूषाधम! तू मेरी लीला क्या करैगा। चल भाग जा, नहीं तो तुझे भी खा जायेंगे।
 
दोनो संभय, अरे हमारी बात गृध्रराज ने सुन ली, अब भागना चाहिए नहीं तो बड़ा अनर्थ करैगा।
 
दोनो जाते हैं,
 
इति प्रस्तावना
 
 
 
 
<big>'''प्रथम अंक'''</big>
 
 
स्थान रक्त से रंगा हुआ राजभवन
 
नेपथ्य में, बढ़े जाइयो! कोटिन लवा बटेर के नाशक, वेद धर्म प्रकाशक, मंत्र से शुद्ध करके बकरा खाने वाले, दूसरे के माँस से अपना माँस बढ़ाने वाले, सहित सकल समाज श्री गृध्रराज महाराजाधिराज!
 
गृध्रराज, चोबदार, पुरोहित और मंत्री आते हैं,
 
राजा : बैठकर, आज की मछली कैसी स्वादिष्ट बनी थी।
 
पुरोहित : सत्य है। मानो अमृत में डुबोई थी और ऐसा कहा भी है-
 
केचित् बदन्त्यमृतमस्ति सुरालयेषु केचित् वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु। ब्रूमो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षाः जंबीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे ।।
 
 
राजा : क्या तुम ब्राह्मण होकर ऐसा कहते हो? ऐं तुम साक्षात् ऋषि के वंश में होकर ऐसा कहते हो!
 
पुरोहित : हाँ हाँ! हम कहते हैं और वेद, शास्त्र, पुराण, तंत्र सब कहते हैं। ”जीवो जीवस्य जीवनम्“
 
राजा : ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है।
 
पुरोहित : संदेह होता तो शास्त्र में क्यों लिखा जाता। हाँ, बिना देवी अथवा भैरव के समर्पण किए कुछ होता हो तो हो भी।
 
मंत्री : सो भी क्यों होने लगा भागवत में लिखा है।
 
”लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।“
 
पुरोहित : सच है और देवी पूजा नित्य करना इसमें कुछ सन्देह नहीं है, और जब देवी की पूजा भई तो माँस भक्षण आ ही गया। बलि बिना पूजा होगी नहीं और जब बलि दिया तब उसका प्रसाद अवश्य ही लेना चाहिए। अजी भागवत में बलि देना लिखा है, जो वैष्णवों का परम पुरुषार्थ है।
 
‘धूपोपहारबलिभिस्सर्वकामवरेश्वरीं’
 
मंत्री : और ‘पंचपंचनखा भक्ष्याः’ यह सब वाक्य बराबर से शास्त्रों में कहते ही आते हैं।
 
पुरोहित : हाँ हाँ, जी, इसमें भी कुछ पूछना है अभी साक्षात् मनु जी कहते हैं-
 
‘न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने’
 
और जो मनुजी ने लिखा है कि-
 
‘स्वमांसं परमांसेन यो बर्द्धयितुमिच्छति’
 
सो वही लिखते हैं।
 
‘अनभ्यच्र्य पितृन् देवान्’
 
इससे जो खाली मांस भक्षण करते हैं उनको दोष है। महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मण गोमाँस खा गये पर पितरों को समर्पित था इससे उन्हें कुछ भी पाप न हुआ।
 
मंत्री : जो सच पूछो तो दोष कुछ भी नहीं है चाहे पूजा करके खाओ चाहे वैसे खाओ।
 
पुरोहित : हाँ जी यह सब मिथ्या एक प्रपंच है, खूब मजे में माँस कचर-कचर के खाना और चैन करना। एक दिन तो आखिर मरना ही है, किस जीवन के वास्ते शरीर का व्यर्थ वैष्णवों की तरह क्लेश देना, इससे क्या होता है।
 
राजा : तो कल हम बड़ी पूजा करैंगे एक लाख बकरा और बहुत से पक्षी मँगवा रखना।
 
चोबदार : जो आज्ञा।
 
पुरोहित : उठकर के नाचने लगा, अहा-हा! बड़ा आनंद भया, कल खूब पेट भरैगा।
 
ख्राग कान्हरा ताल चर्चरी,
 
धन्य वे लोग जो माँस खाते।
 
मच्छ बकरा लवा समक हरना चिड़ा भेड़ इत्यादि नित चाभ जाते ।।
 
प्रथम भोजन बहुरि होई पूजा सुनित अतिही सुखमा भरे दिवस जाते।
 
स्वर्ग को वास यह लोक में है तिन्हैं नित्य एहि रीति दिन जे बिताते ।।
 
नेपथ्य में वैतालिक,
 
राग सोरठ।
 
सुनिए चित्त धरि यह बात।
 
बिना भक्षण माँस के सब व्यर्थ जीवन जात।
 
जिन न खायो मच्छ जिन नहिं कियो मदिरा पान।
 
कछु कियो नहिं तिन जगत मैं यह सु निहचै जान ।।
 
जिन न चूम्यौ अधर सुंदर और गोल कपोल।
 
जिन न परस्यौ कुंभ कुच नहिं लखी नासा लोल ।।
 
एकहू निसि जिन न कीना भोग नहिं रस लीन।
 
जानिए निहचै ते पशु हैं तिन कछू नहिं कीन ।।
 
दोहा: एहि असार संसार में, चार वस्तु है सार।
 
जूआ मदिरा माँस अरु, नारी संग बिहार ।।
 
क्योंकि-
 
”माँस एव परो धर्मो मांस एव परा गतिः।
 
मांस एव परो योगी मांस एव परं तपः ।।“
 
हे परम प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से अनेक पाखण्ड के खष्ड को खण्डन करने वाले, नित्य एक अजापुत्र के भक्षण की सामथ्र्य आप में बढ़ती जाय और अस्थि माला धारण करने वाले शिवजी आप का कल्याण करैं आप बिना ऐसी पूजा और कौन करे। आकर बैठता है,
 
पुरोहित : वाह वाह! सच है सच है।
 
नेपथ्य में,
 
पतीहीना तु या नारी पत्नीहीनस्तु नः पुमान्।
 
उभाभ्यां षण्डरण्डाभ्यान्न दोषो मनुरब्रबीत ।।
 
 
सब चकित होकर,
 
ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन करने वाला बंगाली आता है।
 
बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है,
 
बंगाली : अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब बे अर्थ न छंद वृत्ति, न कुछ, ऐसे भी मंत्र जिसके मुँह से निकलने से सब काय्र्यों के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा का कल्याण करैं।
 
राजा दण्डवत् करके बैठता है,
 
राजा : क्यों जी भट्टाचार्य जी पुनर्विवाह करना या नहीं।
 
बंगाली : पुनर्विवाह का करना क्या! पुनर्विवाह अवश्य करना। सब शास्त्र को यही आज्ञा है, और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है, धर्म का नाश होता है, ललनागन पुंश्चली हो जाती है जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है।
 
 
”नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।
 
ब्राह्मणों ब्राह्मणों गच्छेद्यती गच्छेत्तपस्विनी।
 
अस्त्री को विधवां, गच्छेन्न दोषो मनुरब्रवीत् ।।“
 
 
राजा : यह वचन कहाँ का है?
 
बंगाली : यह वचन श्रीपराशर भगवान् का है जो इस युग के धर्मवक्ता हैं।
 
यथा - ‘कलौ पाराशरी स्मृतिः’
 
राजा : क्यों पुरोहित जी, आप इसमें क्या कहते हैं?
 
पुरोहित : कितने साधारण धर्म ऐसे हैं कि जिनके न करने से कुछ पाप नहीं होता, जैसा-”मध्याद्दे भोजनं कुर्यात्“ तो इसमें न करने से कुछ पाप नहीं है, वरन व्रत करने से पुण्य होता है। इसी तरह पुनर्विवाह भी है इसके करने से कुछ पाप नहीं होता और जो न करै तो पुण्य होता है। इसमें प्रमाण श्रीपाराशरीय स्मृति में-
 
"मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचय्र्यव्रते स्थिता।
 
सा नारी लभते स्वर्गं यावच्चंद्रदिवाकरौ ।।"
 
 
इस वचन से, और भी बहुत जगह शास्त्र में आज्ञा है, सो जो विधवा विवाह करती हैं उनको पाप तो नहीं होता पर जो नहीं करतीं उनको पुण्य अवश्य होता है, और व्यभिचारिणी होने का जो कहो सो तो विवाह होने पर भी जिस को व्यभिचार करना होगा सो करै ही गी जो आप ने पूछा वह हमारे समझ में तो यों आता है परन्तु सच पूछिए तो स्त्री तो जो चाहे सो करै इन को तो दोष ही नहीं है-
 
‘न स्त्री जारेण दुष्यति’। ‘स्त्रीमुखं तु सदा शुचि’।
 
‘स्त्रियस्समस्ताः सकला जगत्सु’। ‘व्यभिचारादृतौ शुद्धिः’।
 
इनके हेतु तो कोई विधि निषेध है ही नहीं जो चाहैं करैं, चाहै जितना विवाह करैं, यह तो केवल एक बखेड़ा मात्र है।
 
सब एक मुख होकर, सत्य है, वाह वे क्यों न हो यथार्थ है।
 
चोबदार : सन्ध्या भई महाराज!
 
राजा : सभा समाप्त करो।
 
 
इति प्रथमांक
 
 
 
 
<big>'''द्वितीय अंक'''</big>
 
 
स्थान पूजाघर।
 
राजा, मंत्री, पुरोहित और उक्त भट्टाचाय्र्य आते हंै और अपने-अपने स्थान पर बैठते हैं।,
 
चोबदार : आकर, श्रीमच्छंकराचाय्र्यमतानुयायी कोई वेदांती आया है।
 
राजा : आदरपूर्वक ले आओ।
 
विदूषक आया,
 
विदूषक : हे भगवान् इस बकवादी राजा का नित्य कल्याण हो जिससे हमारा नित्य पेट भरता है। हे ब्राह्मण लोगो! तुम्हारे मुख में सरस्वती हंस सहित वास करै और उसकी पूंछ मुख में न अटवै। हे पुरोहित नित्य देवी के सामने मराया करो और प्रसाद खाया करो।
 
बीच में चूतर फेर-कर बैठ गया,
 
राजा : अरे मूर्ख फिर के बैठ।
 
विदूषक : ब्राह्मण को मूर्ख कहते हो फिर हम नहीं जानते जो कुछ तुम्हें दंड मिलै, हाँ!
 
राजा : चल मुझ उद्दंड को कौन दंड देने वाला है।
 
विदूषक : हाँ फिर मालूम होगा।
 
ख्वेदांती आए,
 
राजा : बैठिए।
 
वेदांती : अद्वैतमत के प्रकाश करने वाले भगवान् शंकराचार्य इस मायाकल्पित मिथ्या संसार से तुझको मुक्त करैं।
 
विदूषक : क्यों वेदांती जी, आप माँस खाते हैं कि नहीं?
 
वेदांती : तुमको इससे कुछ प्रयोजन है?
 
विदूषक : नहीं, कुछ प्रयोजन तो नहीं है। हमने इस वास्ते पूछा कि आप वेदांती अर्थात् बिना दाँत के हैं सो आप भक्षण कैसे करते होंगे।
 
ख्वेदांती टेढ़ी दृष्टि से देखकर चुप रह गया। सब लोग हँस पड़े,
 
विदूषक : बंगाली से, तुम क्या देखते हो? तुम्हें तो चैन है। बंगाली मात्र मच्छ भोजन करते हैं।
 
बंगाली : हम तो बंगालियों में वैष्णव हैं। नित्यानंद महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और मांसभक्षण कदापि नहीं करते और मच्छ तो कुछ माँसभक्षण में नहीं।
 
वेदांती : इसमें प्रमाण क्या?
 
बंगाली : इसमें यह प्रमाण कि मत्स्य की उत्पत्ति वीर्य और रज से नहीं है। इनकी उत्पत्ति जल से है। इस हेतु जो फलादिक भक्ष्य हैं तो ये भी भक्ष्य हैं।
 
पुरोहित : साधु-सधु! क्यों न हो। सत्य है।
 
वेदांती : क्या तुम वैष्णव बनते हो? किस संप्रदाय के वैष्णव हो?
 
बंगाली : हम नित्यानंद महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण ही हैं, इसमें प्रमाण श्रीभागवत में-
 
कृष्णवर्णं त्विषाऽकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदैः।
 
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति ह्यणुमेधसा ।।
 
वेदांती : वैष्णवों के आचाय्र्य तो चार हैं। तो तुम इन चारों से विलक्षण कहाँ से आए?
 
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः।
 
राजा : जाने दो, इस कोरी बकवाद का क्या फल है?
 
ख्नेपथ्य में,
 
उमासहायं परमेश्वरं विभुं त्रिलोचनं नीलकंठं दयालुम्।
 
पुनः, गोविन्द नारायण माधवेति।
 
पुरोहित : कोई वैष्णव और शैव आते हैं।
 
राजा : चोबदार, जा करके अन्दर से ले आओ। ख्चोबदार बाहर गया, वैष्णव और शैव को लेकर फिर आया,
 
ख्राजा ने उठकर दोनों को बैठाया,
 
दोनों-शंख कपाल लिए कर मैं, कर दूसरे चक्र त्रिशूल सुधारे।
 
माल बनी मणि अस्थि की कंठ मैं, तेज दसो दिसि माँझ पसारे ।।
 
राधिका पारवती दिसि बाम, सबैं जगनाशन पालनवारे।
 
चंदन भस्म को लेप किए हरि ईश, हरैं सब दुःख तुम्हारे ।।
 
बंगाली : महाराज, शैव और वैष्णव ये दोनों मत वेद के बाहर हैं।
 
सर्वे शाक्त द्विजाः प्रोक्ता न शैवा न च वैष्णवाः।
 
आदिदेवीमुपासन्ते गायत्रीं वेदमातरम् ।।
 
तथा : तस्मन्माहेश्वरी प्रजा।
 
इस युग का शास्त्र तंत्र है।
 
कृते श्रुत्युक्तमार्गाश्च त्रेतायां स्मृतिभाषिताः।
 
द्वापरे वै पुराणोक्ताः कलावागमसंभवाः ।।
 
और कंठी रुद्राक्ष तुलसी की माला तिलक यह सब अप्रमाण है।
 
शैव : मुंह सम्हाल के बोला करो, इस श्लोक का अर्थ सुनो, सर्वे शाक्ता द्विजाः प्रोक्ताः परंतु, शैवा वैष्णवा न शाक्ताः प्रोक्ताः। जो केवल गायत्री की उपासना करते हैं वे शाक्त हैं। ‘पुराणे हरिणा प्रोक्तौ मार्गो द्वौ शैववैष्णवौ’। और वेदों करके वेद्य शिव ही हैं।
 
बंगाली : भवव्रतधारा ये च ये च तान्समनुव्रताः।
 
पाखण्डिनश्च ते सव्र्वे सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ।।
 
इस वाक्य में क्या कहते हैं?
 
शैव : इस वाक्य में ठीक कहते हैं। इसके आगे वाले वाक्यों से इसको मिलाओ। यह दोनों तांत्रिकों ही के वास्ते लिखते हैं। वह शैव कैसे कि-
 
‘नष्टशौचा मूढ़धियो जटा भस्मास्थिधारिणः।
 
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ।।’
 
तो जहाँ दैव सुरा और आसव यही है अर्थात् तांत्रिक शैव, कुछ हम लोग शुद्ध शैव नहीं।
 
राजा : भला वैष्णव और शैव माँस खाते हैं कि नहीं?
 
शैव : महाराज, वैष्णव तो नहीं खाते और शैवों को भी न खाना चाहिए परंतु अब के नष्ट बुद्धि शैव खाते हैं।
 
पुरोहित : महाराज, वैष्णवों का मत तो जैनमत की एक शाखा है और महाराज दयानंद स्वामी ने इन सबका खूब खण्डन किया है, पर वह तो देवी की मूर्ति भी तोड़ने को कहते हैं। यह नहीं हो सकता क्योंकि फिर बलिदान किसके सामने होगा?
 
नेपथ्य में, नारायण
 
राजा : कोई साधु आता है।
 
धूर्तशिरोमणि गंडकीदास का प्रवेश,
 
राजा : आइए गंडकीदास जी।
 
पुरोहित : गंडकीदासजी हमारे बडे़ मित्र हैं। यह और वैष्णवों की तरह जंजाल में नहीं फँसे हैं। यह आनंद से संसार का सुख भोग करते हैं।
 
गंडकीदास : ख्धीरे से पुरोहित से, अजी, इस सभा में हमारी प्रतिष्ठा मत बिगाड़ो। वह तो एकांत की बात है।
 
पुरोहित : वाह जी, इसमें चोरी की कौन बात है?
 
गंडकी : ख्धीरे से, यहाँ वह वैष्णव और शैव बैठे हैं।
 
पुरोहित : वैष्णव तुम्हारा क्या कर लेगा! क्या किसी की डर पड़ी है?
 
विदूषक : महाराज, गंडकीदास जी का नाम तो रंडादासजी होता तो अच्छा होता।
 
राजा : क्यों?
 
विदूषक : यह तो रंडा ही के दास हैं।
 
आशङ्खचक्रातबाहुदण्डा गृहे समालिगितघालरण्डाः।
 
अथच-भण्डा भविष्यन्ति कलौ प्रचण्डाः।
 
रण्डामण्डलमण्डनेषु पटवो धूर्ताः कलौ वैष्णवाः।
 
शैव, वैष्णव और वेदांती: अब हम लोग आज्ञा लेते हैं। इस सभा में रहने का हमारा धर्म नहीं।
 
विदूषक : दंडवत्, दंडवत् जाइए भी किसी तरह।
 
सब जाते हैं,
 
विदूषक : महाराज, अच्छा हुआ यह सब चले गए। अब आप भी चलें। पूजा का समय हुआ।
 
राजा : ठीक है।
 
जवनिका गिरती है,
 
 
 
<big>'''तृतीय अंक'''</big>
 
 
स्थान- राजपथ
 
पुरोहित गले में माला पहिने टीका दिए बोतल लिए उन्मत्त सा आता है,
 
पुरोहित : ख्घूमकर, वाह भगवान करै ऐसी पूजा नित्य हो, अहा! राजा धन्य है कि ऐसा धर्मनिष्ठ है, आज तो मेरा घर माँस मदिरा से भर गया। अहा! और आज की पूजा की कैसी शोभा थी, एक ओर ब्राह्मणों का वेद पढ़ना, दूसरी ओर बलिदान वालों का कूद-कूदकर बकरा काटना ‘वाचं ते शुंधामि’, तीसरी ओर बकरों का तड़पना और चिल्लाना, चैथी ओर मदिरा के घड़ों की शोभा और बीच में होम का कुंड, उसमें माँस का चटचटाकर जलना अैर उसमें से चिर्राहिन की सुगंध का निकलना, वैसा ही लोहू का चारों ओर फैलना और मदिरा की छलक, तथा ब्राह्मणों का मद्य पीकर पागल होना, चारों ओर घी और चरबी का बहना, मानो इस मंत्र की पुकार सत्य होती थी।
 
‘घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः’
 
अहा! वैसी ही कुमारियों की पूजा-
 
‘इमं ते उपस्थं मधुना सृजामि प्रजापतेर्मुखमेतद्द्वितीयं तस्या योनिं परिपश्यंति घीराः।’
 
अहा हा! कुछ कहने की बात नहीं है। सब बातें उपस्थित थीं।
 
‘मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः’
 
ऐसे ही मदिरा की नदी बहती थी। कुछ ठहर कर, जो कुछ हो मेरा तो कल्याण हो गया, अब इस धर्म के आगे तो सब धर्म तुच्छ हैं और जो मांस न खाय वह तो हिन्दू नहीं जैन है। वेद में सब स्थानों पर बलि देना लिखा है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जो बिना बलिदान का है और ऐसा कौन देवता है जो मांस बिना ही प्रसन्न हो जाता है, और जाने दीजिए इस काल में ऐसा कौन है जो मांस नहीं खाता? क्या छिपा के क्या खुले खुले, अँगोछे में मांस और पोथी के चोंगे में मद्य छिपाई जाती है। उसमें जिन हिंदुओं ने थोड़ी भी अंगरेजी पढ़ी है वा जिनके घर में मुसलमानी स्त्री है उनकी तो कुछ बात ही नहीं, आजाद है। ख्सिर पकड़ कर, हैं माथा क्यों घूमता है? अरे मदिरा ने तो जोर किया। उठकर गाता है,।
 
जोर किया जोर किया जोर किया रे, आज तो मैंने नशा जोरे किया रे।
 
साँझहि से हम पीने बैठे पीते पीते भोर किया रे ।। आज तो मैंने.
 
ख्गिरता पड़ता नाचता है,
 
रामरस पीओ रे भाई, जो पीए सो अमर होय जाई
 
चैके भीतर मुरदा पाकैं जवेलै नहाय कै ऐसेन जनम जर जाई ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे जो बकरी पत्ती खात है ताकि काढ़ी खाल।
 
अरे जो नर बकरी खात है तिनको कौन हवाल ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
यह माया हरि की कलवारिन मद पियाय राखा बौराई।
 
एक पड़ा भुइँया में लोटै दूसर कहै चोखी दे माई ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे चढ़ी है सो चढ़ी नहिं उतरन को नाम।
 
भर रही खुमारी तब क्या रे किसी से है काम ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
मीन काट जल धोइए खाए अधिक पियास।
 
अरे तुलसीप्रीत सराहिए मुए मीत की आस ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे मीन पीन पाठीन पुराना भरि भरि भार कंहारन आना।
 
महिष खाइ करि मदिरा पाना अरे गरजा रे कुंभकरन बलवाना ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
ऐसा है कोई हरिजन मोदी तन की तपन बुझावैगा।
 
पूरन प्याला पिये हरी का फेर जनम नहिं पावैगा ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे भक्तों ने रसोईं की तो मरजाद ही खोई।
 
कलिए की जगह पकने लगी रामतरोई रे ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
भगतजी गदहा क्यों न भयो।
 
जब से छोड़ो माँस-मछरिया सत्यानाश भयो ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे एकादशी के मछली खाई।
 
अरे कबौं मरे बैवुं$ठै जाई ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
अरे तिल भर मछरी खाइबो कोटि गऊ को दान।
 
ते नर सीधे जात है सुरपुर बैठि बिमान ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
कंठी तोड़ो माला तोड़ो गंगा देहु बहाई।
 
अरे मदिरा पीयो खाइ कै मछरी बकरा जाहु चबाई ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
ऐसी गाढ़ी पीजिए ज्यौं मोरी की कीच।
 
घर के जाने मर गए आप नशे के बीच ।।
 
रामरस पीओ रे भाई
 
नाचता नाचता गिर के अचेत हो जाता है,
 
ख्मतवाले बने हुए राजा और मंत्री आते हैं,
 
राजा : मंत्री, पुरोहित जी बेसुध पड़े हैं।
 
मंत्री : महाराज, पुरोहित जी आनंद में हैं। ऐसे ही लोगों को मोक्ष मिलता है।
 
राजा : सच है। कहा भी है-
 
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा पतित्वा धरणीतले।
 
उत्थाय च पुनः पीत्वा नरो मुक्तिमवाप्नुयात् ।।
 
मंत्री : महाराज, संसार के सार मदिरा और माँस ही हैं।
 
‘मकाराः पझ् दुल्र्लभाः।’
 
राजा : इसमें क्या संदेह।
 
वेद वेद सबही कहैं, भेद न पायो कोय।
 
बिन मदिरा के पान सो, मुक्ति कहो क्यों होय ।।
 
मंत्री : महाराज, ईश्वर ने बकरा इसी हेतु बनाया ही है, नहीं और बकरा बनाने का काम क्या था? बकरे केवल यज्ञार्थ बने हैं और मद्य पानार्थ।
 
राजा : यज्ञो वै विष्णुः, यज्ञेन यज्ञमयजंति देवाः, ज्ञाद्भवति पज्र्जन्यः, इत्यादि श्रुतिस्मृति में यज्ञ की कैसी स्तुति की है और ”जीवो जीवस्य जीवन“ जीव इसी के हेतु हैं क्योंकि-”माँस भात को छोड़िकै का नर खैहैं घास?“
 
मंत्री : और फिर महाराज, यदि पाप होता भी हो तो मूर्खों को होता होगा। जो वेदांती अपनी आत्मा में रमण करने वाले ब्रह्मस्वरूप ज्ञानी हैं उनको क्यों होने लगा? कहा है न-
 
यावद्धतोस्मि हंतास्मीत्यात्मानं मन्यतेऽस्वदृक्।
 
तावदेवाभिमानज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ।।
 
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः ।।
 
नैनं छिदंति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।।
 
अच्छेद्योयामदह्योयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।।
 
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
 
इससे हमारे आप से ज्ञानियों को तो कोई बंधन ही नहीं है। और सुनिए, मदिरा को अब लोग कमेटी करके उठाना चाहते हैं वाह बे वाह!
 
राजा : छिः अजी मद्यपान गीता में लिखा है ”मद्याजी माँ नमस्कुरु।“
 
मंत्री : और फिर इस संसार में माँस और मद्य से बढ़कर कोई वस्तु है भी तो नहीं।
 
राजा : अहा! मदिरा की समता कौन करेगा जिसके हेतु लोग अपना धर्म छोड़ देते हैं। देखो-
 
मदिरा ही के पान हित, हिंदू धर्महि छोड़ि।
 
बहुत लोग ब्राह्मो बनत, निज कुल सों मुख मोड़ि ।।
 
ब्रांडी को अरु ब्राह्म को, पहिलो अक्षर एक।
 
तासों ब्राह्मो धर्म में, यामें दोस न नेक ।।
 
मंत्री : महाराज, ब्राह्मो को कौन कहे हम लोग तो वैदिक धर्म मानकर सौत्रमणि यज्ञ करके मदिरा पी सकते हैं।
 
राजा : सच है, देखो न-
 
मदिरा को तो अंत अरु आदि राम को नाम।
 
तासों तामैं दोष कछू नहिं यह बुद्धि ललाम ।।
 
तिष्ठ तिष्ठ क्षण मद्य हम पियैं न जब लौं नीच।
 
यह कहि देवी क्रोंध सों हत्यौ शंुभ रन बीच ।।
 
मद पी विधि जग को करत, पालत हरि करि पान।
 
मद्यहि पी के नाश सब करत शंभु भगवान ।।
 
विष्णु वारुनी, पोर्ट पुरुषोत्तम मद्य मुरारि।
 
शांपिन शिव, गौड़ी गिरिश, ब्रांडी ब्रह्म विचारि ।।
 
मंत्री : और फिर महाराज, ऐसा कौन है जो मद्य नहीं पीता, इससे तो हमीं लोग न अच्छे जो विधिपूर्वक वेद की रीति से पान करते हैं और यों छिपके इस समय में कौन नहीं करता।
 
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अरु सैयद सेख पठान।
 
दै बताई मोहि कौन जो करत न मदिरा पान ।।
 
पियत भट्ट के ठट्ट अरु गुजरातिन के वृंद।
 
गौतम पियत अनंद सों पियत अग्र के नंद ।।
 
ब्राह्मण सब छिपि छिपि पियत जामैं जानि न जाय।
 
पोथी के चोंगान भरि बोतल बगल छिपाय ।।
 
वैष्णव लोग कहावही कंठी मुद्रा धारि।
 
छिपि छिपि कैं मदिरा पियहिं, यह जिय मांझि विचारि ।।
 
होटल में मदिरा पियैं, चोट लगे नहिं लाज।
 
लोट लए ठाढ़े रत टोटल देवै काज ।।
 
राजा राजकुमार मिलि बाबू लीने संग।
 
बार-बधुन लै बाग में पीअत भरे उमंग ।।
 
राजा : सच है, इसमें क्या संदेह है?
 
मंत्री : महाराज, मेरा सिर घूमता है और ऐसी इच्छा होती है कि कुछ नाचूं और गाऊं,
 
राजा : ठीक है मैं भी नाचूं-गाऊंगा, तुम प्रारंभ करो।
 
मंत्री उठकर राजा का हाथ पकड़कर गिरता-पड़ता नाचता और गाता है,
 
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरी रस का रे।
 
तननुं तननुं तननुं में गाने का है चसका रे ।।
 
निनि धध पप मम गग गिरि सासा भरले सुर अपने बस का रे।
 
धिधिकट धिधिकट धिधिकट धाधा बजे मृदंग थाप कस कारे ।।
 
तीले अवधू के.।
 
भट्टी नहिं सिल लोढ़ा नहीं घोरधार।
 
पलकन की फेरन में चढ़त धुआंधार ।।
 
पीले अवधू के.।
 
कलवारिन मदमाती काम कलोल।
 
भरि भरि देत पियलवा महा ठठोल ।।
 
पीले अवधू के.।
 
अरी गुलाबी गाल को लिए गुलाबी हाथ।
 
मोहि दिखाव मद की झलक छलक पियालो साथ ।।
 
पीले अवधू के.।
 
बहार आई है भर दे बादए गुलगूँ से पैमाना।
 
रहै लाखों बरस साकी तेरा आबाद मैखाना ।।
 
सम्हल बैठो अरे मस्तो जरा हुशियार हो जाओ।
 
कि साकी हाथ में मै का लिए पैमाना आता है ।।
 
उड़ाता खाक सिर पर झूमता मस्ताना आता है।
 
पीले अवधू के.-अहाँ अहाँ अहाँ ।।
 
यह अठरंग है लोग चतुरंग ही गाते हैं।
 
न जाय न जाय मो सों मदवा भरीलो न जाय
 
तब फिर कहाँ से-
 
ड्रिंक डीप आॅर टेस्ट नाॅट द पीयरियन स्प्रिंग
 
क्तपदा कममच वत जंेजम दवज जीम चपमतपंदेचतपदहण्
 
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरा रस का रे।
 
एक दूसरे के सिर पर धौल मारकर ताल देकर नाचते हैं। फिर एक पुरोहित का सिर पकड़ता है दूसरा पैर और उसको लेकर नाचते हैं,
 
जवनिका गिरती है।
 
 
 
<big>'''चतुर्थ अंक'''</big>
 
 
स्थान-यमपुरी
 
यमराज बैठे हैं, और चित्रगुप्त पास खड़े हैं,
 
(चार दूत राजा, पुरोहित, मंत्री, गंडकीदास, शैव और वैष्णव को पकड़ कर लाते हैं)
 
१ दूत : ख्राजा के सिर में धौल मारकर, चल बे चल, अब यहाँ तेरा राज नहीं है कि छत्र-चंवर होगा, फूल से पैर रखता है, चल भगवान् यम के सामने और अपने पाप का फल भुगत, बहुत कूद-कूद के हिंसा की और मदिरा पी, सौ सोनार की न एक लोहार की।
 
ख्दो धौल और लगाता है,
 
२ दूत : पुरोहित को घसीटकर, चलिए पुरोहित जी, दक्षिणा लीजिये, वहाँ आपने चक्र-पूजन किया था, यहाँ चक्र में आप मे चलिए, देखिए बलिदान का कैसा बदला लिया जाता है।
 
३ दूत : मंत्री की नाक पकड़कर, चल बे चल, राज के प्रबन्ध के दिन गये, जूती खाने के दिन आये, चल अपने किये का फल ले।
 
४ दूत : ख्गंडकीदास का कान पकड़कर झोंका देकर, चल रे पाखंडी चल, यहाँ लंबा टीका काम न आवेगा। देख वह सामने पाखंडियों का मार्ग देखने वाले सर्प मुंह खोले बैठे हैं।
 
सब यमराज के सामने जाते हैं,
 
यम. : वैष्णव और शैव से, आप लोग यहाँ आकर मेरे पास बैठिए।
 
वै. और शै. : जो आज्ञा। यमराज के पास बैठ जाते हैं,
 
यम : चित्रगुप्त देखो तो इस राजा ने कौन-कौन कर्म किये हैं।
 
चित्र. : बही देखकर, महाराज, सुनिये, यह राजा जन्म से पाप में रत रहा, इसने धर्म को अधर्म माना और अधर्म को धर्म माना जो जी चाहा किया और उसकी व्यवस्था पण्डितों से ले ली, लाखों जीव का इसने नाश किया और हजारों घड़े मदिरा के पी गया पर आड़ सर्वदा धर्म की रखी, अहिंसा, सत्य, शौच, दया, शांति और तप आदि सच्चे धर्म इसने एक न किये, जो कुछ किया वह केवल वितंडा कर्म-जाल किया, जिसमें मांस भक्षण और मदिरा पीने को मिलै, और परमेश्वर-प्रीत्यर्थ इसने एक कौड़ी भी नहीं व्यय की, जो कुछ व्यय किया सब नाम और प्रतिष्ठा पाने के हेतु।
 
यम : प्रतिष्ठा कैसी, धर्म और प्रतिष्ठा से क्या सम्बन्ध?
 
चित्र. : महाराज सरकार अंगरेज के राज्य में जो उन लोगों के चित्तानुसार उदारता करता है उसको ”स्टार आफ इंडिया“ की पदवी मिलती है।
 
यम. : अच्छा! तो बड़ा ही नीच है, क्या हुआ मैं तो उपस्थित ही हूँ।
 
”अंतःप्रच्छन्न पापानां शास्ता वैवस्वतो यमः“
 
भला पुरोहित के कर्म तो सुनाओ।
 
चित्र. : महाराज यह शुद्ध नास्तिक है, केवल दंभ से यज्ञोपवीत पहने है, यह तो इसी श्लोक के अनुरूप है-
 
अंतः शाक्ता बहिःशैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः।
 
नानारूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ।।
 
इसने शुद्ध चित्त से ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया, जो-जो पक्ष राजा ने उठाये उसका समर्थन करता रहा और टके-टके पर धर्म छोड़ कर इसने मनमानी व्यवस्था दी। दक्षिणा मात्र दे दीजिए फिर जो कहिए उसी में पंडितजी की सम्मति है, केवल इधर-उधर कमंडलाचार करते इसका जन्म बीता और राजा के संग से माँस-मद्य का भी बहुत सेवन किया, सैकड़ों जीव अपने हाथ से वध कर डाले।
 
यम. : अरे यह तो बड़ा दुष्ट है, क्या हुआ मुझसे काम पड़ा है, यह बचा जी तो ऐसे ठीक होंगे जैसा चाहिए। अब तुम मंत्री जी के चरित्र कहो।
 
चित्र. : महाराज, मंत्रीजी की कुछ न पूछिए। इसने कभी स्वामी का भला नहीं किया, केवल चुटकी बजाकर हां में हां मिलाया, मुंह पर स्तुति पीछे निंदा, अपना घर बनाने से काम, स्वामी चाहे चूल्हे में पड़े, घूस लेते जनम बीता, मांस और मद्य के बिना इसने न और धर्म जाने न कर्म जाने-यह मंत्री की व्यवस्था है, प्रजा पर कर लगाने में तो पहले सम्मति दी पर प्रजा के सुख का उपाय एक भी न किया।
 
यम. : भला ये श्रीगंडकीदासजी आये हैं इनका पवित्र चरित्र पढ़ो कि सुनकर कृतार्थ हों, देखने में तो बड़े लम्बे-लम्बे तिलक दिये हैं।
 
चित्र. : महाराज ये गुरु लोग हैं, इनके चरित्र कुछ न पूछिये, केवल दंभार्थ इनका तिलक मुद्रा और केवल ठगने के अर्थ इनकी पूजा, कभी भक्ति से मूर्ति को दंडवत् न किया होगा पर मंदिर में जो स्त्रियाँ आईं उनको सर्वदा तकते रहे; महाराज, इन्होंने अनेकों को कृतार्थ किया है और समय तो मैं श्रीरामचंद्रजी का श्रीकृष्ण का दास हूँ पर जब स्त्री सामने आवे तो उससे कहेंगे मैं राम तुम जानकी, मैं कृष्ण तुम गोपी और स्त्रियाँ भी ऐसी मूर्ख कि फिर इन लोगों के पास जाती हैं, हा! महाराज, ऐसे पापी धर्मवंचकों को आप किस नरक में भेजियेगा।
 
नेपथ्य में बड़ा कलकल होता है,
 
यम. : कोई दूत जाकर देखो यह क्या उपद्रव है।
 
१ दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है, महाराज, संयमनीपुरी की प्रजा बड़ी दुखी है, पुकार करती है कि ऐसे आज कौन पापी नरक में आए हैं जिनके अंग के वायु से हम लोगों का सिर घूमा जाता है और अंग जलता है। इनको तो महाराज शीघ्र ही नरक में भेजें नहीं तो हम लोगों के प्राण निकल जायंगे!
 
यम : सच है, ये ऐसे ही पापी हैं, अभी मैं इनका दंड करता हूँ, कह दो घबड़ायंे न।
 
२ दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है,
 
यम : ख्राजा से, तुझ पर जो दोष ठहराए गए हैं बोल उनका क्या उत्तर देता है।
 
राजा : हाथ जोड़कर, महाराज, मैंने तो अपने जान सब धर्म ही किया कोई पाप नहीं किया, जो मांस खाया वह देवता-पितर को चढ़ाकर खाया और देखिए महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मणों ने भूख के मारे गोवध करके खा लिया पर श्राद्ध कर लिया था इससे कुछ नहीं हुआ।
 
यम. : कुछ नहीं हुआ, लगें इसको कोड़े।
 
२ दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
 
राजा : हाथ से बचा-बचाकर, हाय-हाय, दुहाई-दुहाई, सुन लीजिए-
 
सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालंजरे गिरौ।
 
चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ।।
 
तेपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः।
 
प्रस्थिता दीर्घमध्वानं यूयं किमवसीदथ ।।
 
यह वाक्य लोग श्राद्ध के पहिले श्राद्ध शुद्ध होने को पढ़ते हैं फिर मैंने क्या पाप किया। अब देखिए, अंगरेजों के राज्य में इतनी गोहिंसा होती है सब हिंदू बीफ खाते हैं उन्हें आप नहीं दंड देते और हाय हमसे धार्मिक की यह दशा, दुहाई वेदों की दुहाई धर्म शास्त्र की, दुहाई व्यासजी की, हाय रे, मैं इनके भरोसे मारा गया।
 
यम. : बस चुप रहो, कोई है? यह अंधतामिस्र नामक नरक में जायगा। अभी इसको अलग रखो।
 
१ दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़-खींचकर एक ओर खड़ा करता है,
 
यम. : पुरोहित से, बोल बे ब्राह्मणधम! तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है।
 
पुरो. : हाथ जोड़कर, महाराज, मैं क्या उत्तर दूंगा, वेद-पुराण सब उत्तर देते हैं।
 
यम. : लगें कोड़े, दुष्ट वेद-पुराण का नाम लेता है।
 
२ दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
 
पुरो. : दुहाई-दुहाई, मेरी बात तो सुन लीजिए। यदि मांस खाना बुरा है तो दूध क्यों पीते हैं, दूध भी तो मांस ही है और अन्न क्यों खाते हैं अन्न में भी तो जीव हैं और वैसे ही सुरापान बुरा है तो वेद में सोमपान क्यों लिखा है और महाराज, मैंने तो जो बकरे खाए वह जगदंबा के सामने बलि देकर खाए, अपने हेतु कभी हत्या नहीं की और न अपने राजा साहब की भाँति मृगया की। दुहाई, ब्राह्मण व्यर्थ पीसा जाता है। और महाराज, मैं अपनी गवाही के हेतु बाबू राजेंद्रलाल के दोनों लेख देता हूँ, उन्होंने वाक्य और दलीलों से सिद्ध कर दिया है कि मांस की कौन कहे गोमांस खाना और मद्य पीना कोई दोष नहीं, आगे के हिंदू सब खाते-पीते थे। आप चाहिए एशियाटिक सोसाइटी का जर्नल मंगा के देख लीजिए।
 
यम. : बस चुप, दुष्ट! जगदंगा कहता है और फिर उसी के सामने उसी जगत् के बकरे को अर्थात् उसके पुत्र ही को बलि देता है। अरे दुुष्ट, अपनी अंबा कह, जगदंबा क्यों कहता है, क्या बकरा जगत् के बाहर है? चांडाल सिंह को बलि नहीं देता-‘अजापुत्रं बलिं दद्याद्दैवोदुर्बलघातकः’ कोई है? इसको सूचीमुख नामक नरक में डालो। दुष्ट कहीं का, वेद-पुराण का नाम लेता है। मांस-मदिरा खाना-पीना है तो यों ही खाने में किसने रोका है धर्म को बीच में क्यों डालता है, बाँधो।
 
२ दूत : जो आज्ञा महाराज। बाँध कर एक ओर खड़ा करता है,।
 
यम. : मंत्री से, बोल बे, तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है?
 
मंत्री : आप ही आप, मैं क्या उत्तर दूँ, यहाँ तो सब बात बेरंग है। इन भयावनी मूर्तियों को देखकर प्राण सूखे जाते हैं उत्तर क्या दूं। हाय-हाय, इनके ऐसे बड़े-बडे दाँत हैं कि मुझे तो एक ही कवर कर जायंगे।
 
यम. : बोल जल्दी।
 
३ दूत : एक कोड़ा मारकर, बोलता है कि नहीं।
 
मंत्री : हाथ जोड़कर, महाराज, अभी सोचकर उत्तर देता हूँ। कुछ सोचकर, चित्रगुप्त से, आप मुझे एक बेर राज्य पर भेज दीजिए, मैंने जितना धन बड़ी-बड़ी कठिनाई और बड़े-बड़े अधर्म से एकत्र किया है सब आपको भेंट करूंगा और मैं निरपराधी कुटुंबी हूँ मुझे छोड़ दीजिये।
 
चित्र : क्रोध से, अरे दुष्ट, यह भी क्या मृत्युलोक की कचहरी है कि तू हमें घूस देता है और क्या हम लोग वहाँ के न्यायकत्र्ताओं की भांति जंगल से पकड़ कर आए हैं कि तुम दुष्टों के व्यवहार नहीं जानते। जहाँ तू आया है और जो गति तेरी है वही घूस लेने वालों की भी होगी।
 
यम. : क्रो ध से, क्या यह दुष्ट द्रव्य दिखाता है? भला रे दुष्ट! कोई है इसको पकड़कर कुंभीपाक में डालो।
 
३ दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़कर खींचता है,।
 
यम. : अब आप बोलिए बाबाजी, आप अपने पापों का क्या उत्तर देते हैं?
 
गंडकी. : मैं क्या उत्तर दूँगा। पाप पुण्य जो करता है, ईश्वर करता है इसमें मनुष्य का क्या दोष है?
 
ईश्वरः सर्व भूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
 
भ्रामयन् सव्र्वभूतानि यंत्ररूढ़ानि मायया ।।
 
मैं तो आज तक सव्र्वदा अच्छा ही करता रहा।
 
यम. : कोई है? लगें कोड़े दुष्ट को, अब ईश्वर फल भी भुगतैगा। हाय हाय, ये दुष्ट दूसरों की स्त्रियों को माँ और बेटी कहते हैं और लंबा लंबा टीका लगाकर लागों को ठगते हैं।
 
४ दूत : महाराज यह किस नरक में जायगा! कोड़े मारता है।,
 
गंडकी : हाय-हाय दुहाई, अरे कंठी-टीका कुछ काम न आया। अरे कोई नहीं है जो इस समय बचावै।
 
यम. : यह दुष्ट रौरव नरक में जायगा जहाँ इसको ऐसे ही अनेक धर्मवंचक मिलेंगे। ले जाओ सबको।
 
ख्चारों दूत चारों को पकड़कर घसीटते और मारते हैं और चारों चिल्लाते हैं,
 
चारों : अरे ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।’
 
हाय रे ‘अग्निष्टोमे पशुमालभेत्।’
 
अरे बाप रे ”सौत्रमण्यां सुरां पिबेत्।“
 
भैया रे ”श्रोत्रं ते शुंधामि।“
 
यही कहकर चिल्लाते हैं और दूत लोग उसको घसीटकर मारते-मारते ले जाते हैं,
 
यम. : शैव और वैष्णव से, आप लोगों की अकृत्रिम भक्ति से ईश्वर ने आपको कैलास और बैकुंठ वास की आज्ञा दी है सो आ लोग जाइए और अपने सुकृत का फल भोगिए। आप लोगों ने इस धर्म वंचकों की दशा तो देखी ही है, देखिए पापियों की यह गति होती है और आप से सुकृतियों को ईश्वर प्रसन्न होकर सामीप्य मुक्ति देता है, सो लीजिए, आप लोगों को परम पद मिला। बधाई है, कहिए इससे भी विशेष कोई आपका हित हो तो मैं पूर्ण करूं।
 
शै. और वै. : हाथ जोड़कर, भगवन् इससे बढ़कर और हम लोगों का क्या हित होगा। तथापि यह नाटकाचाय्र्य भरतऋषि का वाक्य सफल हो।
 
निज स्वारथ को धरम-दूर या जग सों होई।
 
ईश्वर पद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।।
 
खल के विष-बैनन सों मत सज्जन दुख पावैं।
 
छुटै राजकर मेघ समय पै जल बरसावैं ।।
 
कजरी ठुमरिन सों मोड़ि मुख सत कविता सब कोइ कहैं।
 
यह कवि बानी बुध-बदन में रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।।
 
सब जाते हैं,
 
-जवनिका गिरती है।-
 
 
इति चतुर्थो।
 
समाप्तं प्रहसनं।
 
===[[सत्य हरिश्चन्द्र]] (१८७५)===
''' सत्य हरिश्चंद्र ''' भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित चार अंकों का नाटक है। काशी पत्रिका नामक पाक्षिक हिन्दी पत्र में प्रकाशित यह नाटक पहली बार १८७६ ई. में बनारस न्यु मेडिकल हाल प्रेस में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।
 
'''<big>कथानक</big>'''
 
इस में सूर्य कुल के राजा हरिश्चन्द्र की कथा है।
 
 
'''<big>अंक विभाजन</big>'''
* प्रथम अंक- इन्द्रसभा
* द्वितीय अंक- हरिश्चन्द्र की सभा
* तृतीय अंक- काशी में विक्रय
* चतुर्थ अंक- श्मशान
 
 
'''<big>अथ सत्यहरिश्चन्द्र</big>'''
 
<big>(मंगलाचरण)</big>
 
 
सत्यासक्त दयाल द्विज प्रिय अघ हर सुख कन्द।
 
जनहित कमला तजन जय शिव नृप कवि हरिचन्द ।। १ ।।
 
(नान्दी के पीछे सूत्राधार आता है)
 
सू. : अहा! आज की सन्ध्या भी धन्य है कि इतने गुणज्ञ और रसिक लोग एकत्रा हैं और सबकी इच्छा है कि हिन्दी भाषा का कोई नवीन नाटक देखैं। धन्य है विद्या का प्रकाश कि जहाँ के लोग नाटक किस चिड़िया का नाम है इतना भी नहीं जानते थे भला वहाँ अब लोगों की इच्छा इधर प्रवृत्त तो हुई। परन्तु हा! शोच की बात है कि जो बड़े-बडे़ लोग हैं और जिनके किए कुछ हो सकता है वे ऐसी अन्धपरम्परा में फँसे हैं और ऐसे बेपरवाह और अभिमानी हैं कि सच्चे गुणियों की कहीं पूछ ही नहीं है। केवल उन्हीं की चाह और उन्हीं की बात है जिन्हें झूठी खैरखाही दिखाना वा लंबा चैड़ा गाल बजाना आता है। (कुछ सोच कर) क्या हुआ, ढंग पर चला जायगा तौ यों भी बहुत कुछ हो रहैगा। काल बड़ा बली है, धीरे-धीरे सब आप से आप ही कर देगा। पर भला आज इन लोगों को लीला कौन सी दिखाऊं। (सोचकर) अच्छा, उनसे भी तो पूछ लें ऐसे कौतुकों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बुद्धि विशेष लड़ती है। (नेपथ्य की ओर देख कर) मोहना! अपनी भाभी को जरा इधर तो भेजना।
 
(नेपथ्य में से-मैं तो आप ही आती थी कहती हुई नटी आती है)
 
न. : मैं तो आप ही आती थी। वह एक मनिहारिन आ गई थी उसी के बखेड़े में लग गई, नहीं तो अब तक कभी की आ चुकी होती। कहिए, आज जो लीला करनी हो वह पहिले ही से जानी रहै तो मैं और सभी से कह के सावधान कर दूं।
 
सू. : आज का नाटक तो हमने तुम्हारी ही प्रसन्नता पर छोड़ दिया है।
 
न. : हम लोगों को तो सत्य हरिश्चन्द्र आज कल अच्छी तरह याद है और उसका खेल भी सब छोटे बड़े को भज रहा है।
 
सू. : ठीक है, यही हो। भला इससे अच्छा और कौन नाटक होगा। एक तो इन लोगों ने उसे अभी देखा नहीं है, दूसरे आख्यान भी करुणा पूर्ण राजा हरिश्चन्द्र का है, तीसरे उसका कवि भी हम लोगों का एक मात्रा जीवन है।
 
न. : (लंबी सांस लेकर) हा! प्यारे हरिश्चन्द्र का संसार ने कुछ भी गुण रूप न समझा। क्या हुआ। कहैंगे सबै ही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहिजायगी ।। २ ।।
 
सू. : इसमें क्या संदेह है? काशी के पंडितों ही ने कहा है।।
 
सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद।
 
जिमि सुझाव दिन रैन के कारन नित हरिचंद२ ।। ३ ।।
 
और फिर उनके मित्र पंडित शीतलाप्रसाद जी ने इस नाटक के नायक से उनकी समता भी किया है। इससे उनके बनाए नाटकों में भी सत्य हरिश्चन्द्र ही आज खेलने को जी चाहता है।।
 
न. : कैसी समता, मैं भी सुनूं।
 
सू. : जो गुन नृप हरिचन्द मैं जगहित सुनियत कान।
 
सो सब कवि हरिचन्द मैं लखहु प्रतच्छ सुजान ।। ४ ।।१
 
(नेपथ्य में)
 
अरे!
 
यहाँ सत्यभय एक के कांपत सब सुर लोक।
 
यह दूजो हरिचन्द को करन इन्द्रउर सोक ।। ४ ।।२
 
सू. : (सुनकर और नेपथ्य की ओर देखकर) यह देखो! हम लोगों को बात करते देर न हुई कि मोहना इन्द्र बन कर आ पहुँचा। तो अब चलो हम लोग भी तैयार हों।
 
(दोनों जाते हैं)
 
इतिप्रस्तावना
 
 
'''<big>प्रथम अंक</big>'''
जवनिका उठती है
 
(स्थान इन्द्रसभा, बीच में गद्दी तकिया धरा हुआ, घर सजा हुआ)
 
(इन्द्र आता है)
 
इ. : (‘यहाँ सत्यभय एक के’ यह दोहा फिर से पढ़ता हुआ इधर-उधर घूमता है।)
 
(द्वारपाल आता है)
 
द्वा. : महाराज! नारद जी आते हैं।
 
इ. : आने दो, अच्छे अवसर पर आए।
 
द्वा. : जो आज्ञा। (जाता है)
 
इ. : (आप ही आप) नारद जी, सारी पृथ्वी पर इधर उधर फिरा करते हैं। इनसे सब बातों का पक्का पता लगेगा। हमने माना कि राजा हरिश्चन्द्र को स्वर्ग लेने की इच्छा न हो तथापि उस के धर्म की एक बेर परीक्षा तो लेनी चाहिए।
 
(नारदजी आते हैं)
 
इ. : (हाथ जोड़कर दंडवत करता है)
 
आइए आइए धन्य भाग्य, आज किधर भूल पड़े।
 
ना. : हमैं और भी कोई काम है, केवल यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ-यही हमैं है कि और भी कुछ।
 
इ. : साधु स्वभाव ही से परोपकारी होते हैं। विशेष कर के आप ऐसे हैं जो हमारे से दीन गृहस्थों को घर बैठे दर्शन देते हैं क्योंकि जो लोग गृहस्थ और काम काजी हैं वे स्वभाव ही से गृहस्थी के बन्धनों से ऐसे जकड़ जाते हैं कि साधु संगम तो उनको सपने में भी दुर्लभ हो जाता है, न वे अपने प्रबन्धों से छुट्टी पावेंगे न कहीं जायंगे।
 
ना. : आप को इतनी शिष्टाचार नहीं सोहती। आप देवराज हैं और आप के संग की तो बड़े-बड़े ऋषि मुनि इच्छा करते हैं फिर आप को सतसंग कौन दुर्लभ हैं। केवल जैसा राजा लोगों में एक सहज मुंह देखा व्यापार होता है वैसी ही बातैं आप इस समय कर रहे हैं।
 
इ. : हम को बड़ा शोच है कि आप ने हमारी बातों को शिष्टाचार समझा। क्षमा कीजिए आप से हम बनावट नहीं कर सकते। भला, बिराजिये तो सही, यह बातें तो होती ही रहेंगी।
 
ना. : बिराजिये (दोनों बैठते हैं)।
 
इ. : कहिए, इस समय कहाँ से आना हुआ।
 
ना. : अयोध्या से। अहा। राजा हरिश्चन्द्र धन्य है। मैं तो उसके निष्कपट अकृत्रिम सुझाव से बहुत ही संतुष्ट हुआ। यद्यपि इसी सूर्यकाल में अनेक बड़े-बड़े धार्मिक हुए पर हरिश्चन्द्र तो हरिश्चन्द्र ही है।
 
इ. : (आप ही आप) यह भी तो उसी का गुण गाते हैं।
 
ना. : महाराज। सत्य की तो मानो हरिश्चन्द्र मूर्ति है। निस्सन्देह ऐसे मनुष्यों के उत्पन्न होने से भारत भूमि का सिर केवल इनके स्मरण से उस समय भी ऊँचा रहेगा जब वह पराधीन होकर हीनावस्था को प्राप्त होगी।
 
इ. : (आप ही आप) अहा! हृदय भी ईश्वर ने क्या ही वस्तु बनाई है। यद्यपि इसका स्वभाव सहज ही गुणग्राही हो तथापि दूसरों की उत्कट कीर्ति से इसमें ईर्ष्या होती ही हैं, उसमें भी जो जितने बड़े हैऺ उनकी ईर्ष्या भी उतनी ही बड़ी हैं। हमारे ऐसे बड़े पदाधिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना दूसरों की सम्पत्ति और कीर्ति।
 
ना. : आप क्या सोच रहे हैं?
 
इ. : कुछ नहीं। यों ही मैं यही सोचता था कि हरिश्चन्द्र की कीर्ति आज कल छोटे बड़े सबके मुंह से सुनाई पड़ती है इससे निश्चय होता है कि नहीं हरिश्चन्द्र निस्संदेह बड़ा मनुष्य है।
 
ना. : क्यों नहीं, बड़ाई उसी का नाम है जिसे छोटे बड़े सब मानैं, और फिर नाम भी तो उसी का रह जायगा जो ऐसा दृढ़ हो कर धर्म साधन करेगा। (आप ही आप) और उसकी बड़ाई का यह भी तो एक बड़ा प्रमाण है कि आप ऐसे लोग उससे बुरा मानते हैं क्योंकि जिससे बड़े-बड़े लोग डाह करें पर उसका कुछ बिगाड़ न सकें वह निस्संदेह बहुत बड़ा मनुष्य है।
 
इ. : भला उसके गृह चरित्र कैसे हैं?
 
ना. : दूसरों के लिए उदाहरण बनाने के योग्य। भला पहिले जिसने अपने निज के और अपने घर के चरित्र ही नहीं शुद्ध किए हैं उसकी और बातों पर क्या विश्वास हो सकता है। शरीर में चरित्र ही मुख्य वस्तु है। बचन से उपदेशक और क्रियादिक से कैसा भी धर्मनिष्ठ क्यों न हो पर यदि उसके चरित्र शुद्ध नहीं हैं तो लोगों में वह टकसाल न समझा जायगा और उसकी बातें प्रमाण न होंगी! महात्मा और दुरात्मा में इतना ही भेद है कि उनके मन बचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न निस्संदेह हरिश्चन्द्र महाशय है। उसके आशय बहुत उदार हैं इसमें कोई संदेह नहीं।
 
इ. : भला आप उदार वा महाशय किसको कहते हैं?
 
ना. : जिसका भीतर बाहर एक सा हो और विद्यानुरागिता उपकार प्रियता आदि गुण जिसमें सहज हों। अधिकार में क्षमा, विपत्ति में धैर्य, सम्पत्ति में अनाभिमान और युद्ध में जिसको स्थिरता है वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है और उसी की माता पुत्रवती है। हरिश्चंद्र में ये सब बातें सहज हैं। दान करके उसको प्रसन्नता होती है और कितना भी दे पर संतोष नहीं होता, यही समझता है कि अभी थोड़ा दिया।
 
इ. : (आप ही आप) हृदय! पत्थर के होकर तुम यह सब कान खोल के सुनो।
 
ना. : और इन गुणों पर ईश्वर की निश्चला भक्ति उसमें ऐसी है जो सब का भूषण है क्योंकि उसके बिना किसी की शोभा नहीं। फिर इन सब बातों पर विशेषता यह है कि राज्य का प्रबन्ध ऐसा उत्तम और दृढ़ है कि लोगों को संदेह होता है कि इन्हें राज काज देखने की छुट्टी कब मिलती है। सच है छोटे जी के लोग थोड़े ही कामों में ऐसे घबड़ा जाते हैं मानो सारे संसार का बोझ इन्हीं पर है; पर जो बडे़ लोग हैं उन के सब काम महारम्भ होते हैं तब भी उनके मुख पर कहीं से व्याकुलता नहीं झलकती, क्योंकि एक तो उनके उदार चित्त में धैर्य और अवकाश बहुत है, दूसरे उनके समय व्यर्थ नहीं जाते और ऐसे यथायोग्य बने रहते हैं जिससे उन पर कभी भीड़ पड़ती ही नहीं।
 
इ. : भला महाराज वह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है।
 
ना. : यही तो हम कहते हैं। निस्संदेह वह राजा कुल का कलंक है जिसने बिना पात्रा विचारे दान देते-देते सब लक्ष्मी का क्षय कर दिया, आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया। और जहाँ प्रबन्ध है वहाँ धन ही क्या कमती है। मनुष्य कितना धन देगा और जाचक कितना लेंगे।
 
इ. : पर यदि कोई अपने वित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु मांगे जिससे दाता की सर्वस्व हानि हो तो वह दे कि नहीं?
 
ना. : क्यों नहीं। अपना सर्वस्व वह क्षण भर में दे सकता है, पात्रा चाहिए। जिसको धन पाकर सत्पात्रा में उसके त्याग की शक्ति नहीं है वह उदार कहाँ हुआ।
 
इ. : (आप ही आप) भला देखेंगे न।
 
ना. : राजन्! मानियों के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है। वे तो अपने सहज सुभाव ही से सत्य और विचार तथा दृढ़ता में ऐसे बंधे हैं कि सत्पात्र मिलने या बात पड़ने पर उनको स्वर्ण का पर्वत भी तिल सा दिखाई देता है। और उसमें भी हरिश्चन्द्र-जिसका सत्य पर ऐसा स्नेह है जैसा भूमि, कोष, रानी, और तलवार पर भी नहीं है। जो सत्यानुरागी ही नहीं है भला उससे न्याय कब होगा, और जिसमें न्याय नहीं है वह राजा ही काहे का है। कैसी भी विपत्ति और उभय संकष्ट पड़ै और कैसी ही हानि वा लाभ हो पर जो न्याय न छोड़े वही धीर और वही राजा और उस न्याय का मूल सत्य है।
 
इ. : तो भला वह जिसे जो देने को कहैगा देगा वा जो करने को कहैगा वह करैगा।
 
ना. : क्या आप उसका परिहास करते हैं? किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निन्दा है। क्या आप ने उसका यह सहज साभिमान वचन कभी नहीं सुना है-
 
चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत व्योहार।
 
पै दृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य विचार ।।
 
इ. : (आप ही आप) तो फिर इसी सत्य के पीछे नाश भी होंगे, हमको भी अच्छा उपाय मिला। (प्रगट) हाँ पर आप यह भी जानते हैं कि क्या वह यह सब धम्र्म स्वर्ग लेने को करता है?
 
ना. : वाह। भला जो ऐसे उदार हैं उनके आगे स्वर्ग क्या वस्तु है। क्या बड़े लोग धर्म स्वर्ग पाने को करते हैं। जो अपने निर्मल चरित्र से संतुष्ट हैं उन के आगे स्वर्ग कौन वस्तु है। फिर भला जिनके शुद्ध हृदय और सहज व्योहार हैं वे क्या यश वा स्वर्ग की लालच में धर्म करते हैं। वे तो आपके स्वर्ग को सहज में दूसरे को दे सकते हैं। और जिन लोगों को भगवान के चरणारविंद में भक्ति है वे क्या किसी कामना से धर्माचरण करते हैं, यह भी तो एक क्षुद्रता है कि इस लोक में एक देकर परलोक में दो की आशा रखना।
 
इ. : (आप ही आप) हमने माना कि उस को स्वर्ग लेने की इच्छा न हो तथापि अपने कर्मों से वह स्वर्ग का अधिकारी तो हो जायेगा।
 
ना. : और जिनको अपने किये शुभ अनुष्ठानों से आप संतोष मिलता है उन के उस असीम आनंद के आगे आप के स्वर्ग का अमृतपान और अप्सरा तो महा महा तुच्छ हैं। क्या अच्छे लोग कभी किसी शुभ कृत्य का बदला चाहते हैं।
 
इ. : तथापि एक बेर उनके सत्य की परीक्षा होती तो अच्छा होता।
 
ना. : राजन्! आपका यह सब सोचना बहुत अयोग्य है। ईश्वर ने आपको बड़ा किया है तो आप को दूसरों की उन्नति और उत्तमता पर संतोष करना चाहिए। ईर्ष्या करना तो क्षुद्राशयों का काम है। महाशय वही है जो दूसरों की बड़ाई से अपनी बड़ाई समझै।
 
इ. : (आप ही आप) इन से काम न होगा। (बात बहलाकर प्रगट) नहीं नहीं मेरी यह इच्छा थी कि मैं भी उनके गुणों को अपनी आँखों से देखता। भला मैं ऐसी परीक्षा थोड़े लेना चाहता हूँ जिससे उन्हें कुछ कष्ट हो।
 
ना. : (आप ही आप) अहा! बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा वही है जिसका चित्त बड़ा है। अधिकार तो बड़ा है पर चित्त में सदा क्षुद्र और नीच बातैं सूझा करती हैं। वह आदर के योग्य नहीं है, परन्तु जो कैसा भी दरिद्र है पर उसका चित्त उदार और बड़ा है, वही आदरणीय है।
 
(द्वारपाल आता है)
 
द्वा. : महाराज! विश्वामित्र जी आए हैं।
 
इ. : (आप ही आप) हां इनसे वह काम होगा। अच्छे अवसर पर आए। जैसा काम हो वैसे ही स्वभाव के लोग भी चाहिएं। (प्रकट) हां हां लिवा लाओ।
 
द्वा. : जो आज्ञा। (जाता है)
 
(विश्वामित्र आते हैं)
 
इ. : (प्रणामादि शिष्टाचार करके) आइए भगवन्, विराजिए।
 
वि. : (नारदजी को प्रणाम करके और इन्द्र को आशीर्वाद देकर बैठते हैं)
 
ना. : तो अब हम जाते हैं, क्योंकि पिता के पास हमें किसी आवश्यक काम को जाना है।
 
वि. : यह क्या? हमारे आते ही आप चले, भला ऐसी रुष्टता किस काम की।
 
ना. : हरे हरे! आप ऐसी बात सोचते हैं, राम राम भला आप के आने से हम क्यों जायंगे। मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गये।
 
इ. : (हंसकर) आपकी जो इच्छा।
 
ना. : (आप ही आप) हमारी इच्छा क्या अब तो आप ही की यह इच्छा है कि हम जायं, क्योंकि अब आप तो विश्व के अमित्र जी से राजा हरिश्चन्द्र को दुख देने की सलाह कीजिएगा तो हम उसके बाधक क्यों हो, पर इतना निश्चय रहे कि सज्जन को दुर्जन लोग जितना कष्ट देते हैं उतनी ही उनकी सत्य कीर्ति तपाए सोने की भांति और भी चमकती है क्योंकि विपत्ति बिना सत्य की परीक्षा नहीं होती। (प्रगट) यद्यपि ‘जो इच्छा’ आप ने सहज भाव से कहा है तथापि परस्पर में ऐसे उदासीन बचन नहीं कहते क्योंकि इन वाक्यों से रूखापन झलकता है। मैं कुछ इसका ध्यान नहीं करता, केवल मित्र भाव से कहता हूं। लो, जाता हूं और यही आशीर्वाद दे कर जाता हूं कि तुम किसी को कष्टदायक मत हो क्योंकि अधिकार पाकर कष्ट देना यह बड़ों की शोभा नहीं, सुख देना शोभा है।
 
इ. : (कुछ लज्जित होकर प्रणाम करता है)।
 
(नारदजी जाते हैं)
 
वि. : यह क्यों? आज नारद भगवान ऐसी जली कटी क्यों बोलते थे, क्या तुमने कुछ कहा था।
 
इ. : नहीं तो। राजा हरिश्चन्द्र का प्रसंग निकला था सो उन्होंने उसकी बड़ी स्तुति की और हमारा उच्च पद का आदरणीय स्वभाव उस परकीत्र्ति को सहन न कर सका। इसी में कुछ बात ही बात ऐसा सन्देह होता है कि वे रुष्ट हो गए।
 
वि. : तो हरिश्चन्द्र में कौन से ऐसे गुण हैं? (सहज की भृकुटी चढ़ जाती है)।
 
इ. : (ऋषि का भ्रूभंग देखकर चित्त में संतोष करके उनका क्रोध बढ़ाता हुआ) महाराज सिपारसी लोग चाहे जिसको बढ़ा दें, चाहे घटा दें। भला सत्य धम्र्म पालन क्या हंसी खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है जिन्होंने घर बार छोड़ दिया है। भला राज करके और घर में रह के मनुष्य क्या धर्म का हठ करैगा। और फिर कोई परीक्षा लेता तो मालूम पड़ती। इन्हीं बातों से तो नारद जी बिना बात ही अप्रसन्न हुए।
 
वि. : मैं अभी देखता हूँ न। तो हरिश्चन्द्र को तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भला मेरे सामने वह क्या सत्यवादी बनैगा और क्या दानीपने का अभिमान करैगा।
 
(क्रोधपूर्वक उठ कर चला चाहते हैं कि परदा गिरता है)।
 
।। इति प्रथम अंक ।।
 
 
'''<big>दूसरा अंक</big>'''
स्थान राजा हरिश्चन्द्र का राजभवन।
 
रानी शैव्या बैठी हैं और एक सहेली बगल में खड़ी है।
 
रा. : अरी? आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे हैं कि जब से सो के उठी हूं कलेजा कांप रहा है। भगवान् कुसल करे।
 
स. : महाराज के पुन्य प्रताप से सब कुसल ही होगी आप कुछ चिन्ता न करें। भला क्या सपना देखा है मैं भी सुनूँ?
 
रा. : महाराज को तो मैंने सारे अंग में भस्म लगाए देखा है और अपने को बाल खोले, और (आँखों में आँसू भर कर) रोहितास्व को देखा है कि उसे सांप काट गया है।
 
स. : राम! राम! भगवान् सब कुसल करेगा। भगवान् करे रोहितास्व जुग जुग जिए और जब तक गंगा जमुना में पानी है आप का सोहाग अचल रहे। भला आप ने इस की शांती का भी कुछ उपाय किया है।
 
रा. : हाँ गुरुजी से तो सब समाचार कहला भेजा है देखो वह क्या करते हैं।
 
स. : हे भगवान् हमारे महाराज महारानी कुँअर सब कुसल से रहैं, मैं आंचल पसार के यह वरदान मांगती हूं।
 
(ब्राह्मण आता है)
 
ब्रा. : (आशीर्वाद देता है)
 
स्वस्त्यस्तुतेकुशलमस्तुचिरायुरस्तु
 
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु
 
ऐश्वय्र्यमस्तुकुशलोस्तुरिपुक्षयोस्तु
 
सन्तानवृद्धिसहिताहरिभक्तिरस्तु ।।
 
रा. : (हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है)
 
ब्रा. : महाराज गुरूजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है। इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा लें और फिर थोड़ा स पान भी कर लें और यह रक्षाबंधन भेजा है। इसे कुमार रोहिताश्व की दहनी भुजा पर बांध दें फिर इस जल से मैं मार्जन करूँगा।
 
रा. : (नेत्रा में जल लगाकर और कुछ मंुह फेर कर आचमन करके) मालती, यह रक्षाबन्धन तू सम्हाल के अपने पास रख। जब राोहितास्व मिले उस के दहने हाथ पर बाँध दीजियो।
 
स. : जो आज्ञा (रक्षाबन्धन अपने पास रखती है)।
 
ब्रा. : तो अब आप सावधान हो जायं मैं मार्जन कर लूँ।
 
रा. : (सावधान होकर) जो आज्ञा।
 
ब्रा. : (दुर्बा से मार्जन करता है)
 
देवास्त्वामभिषिंचन्तुब्रह्मविष्णुशिवादयः
 
गन्धव्र्वाःकिन्नराः नागाः रक्षा कुव्र्वन्तुतेसदा
 
पितरोगुह्यकायक्षाः देव्योभूताचमातरः
 
सव्र्वेत्वामभिषिंचन्तुरक्षांकुर्वन्तुतेसदा
 
भद्रमस्तुशिवंचास्तुमहालक्ष्मीप्रसीदतु
 
पतिपुत्रयुतासाध्विजीत्ववं शरदांशतं ।।
 
(मार्जन का जल पृथ्वी पर फेंककर)
 
यत्पापंरोगमशुभंतद्दूरेंप्रतिहतमस्तु
 
(फिर रानी पर मार्जन करके)
 
यन्मंगलंशुभं सौभाग्यधनधान्यमारोग्यं बहु
 
पुत्रत्वं तत्सव्र्वमीशप्रसादात्ब्राम्हणवचनात्त्वय्यस्तु
 
(मार्जन कर के फूल अक्षत रानी के हाथ में देता है)
 
रा. : (हाथ जोड़कर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है)
 
महाराज गुरु जी से मेरी ओर से बिनती करके दंडवत कह दीजिएगा।
 
ब्रा. : जो आज्ञा (आशीर्वाद देकर जाता है)
 
रा. : आज महाराज अब तक सभा में नहीं आए?
 
स. : अब आते होंगे, पूजा में कुछ देर लगी होगी।
 
(नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं)
 
(राग भैरव)
 
प्रगटहु रविकुलरबि निसि बीती प्रजा कमलगन फूले।
 
मन्द परे रिपुगन तारा सम जन भय तम उन भूले ।।
 
नसे चोर लम्पट खल लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो।
 
मागध बंदी सूत चिरैयन मिलि कलरोर मचायो ।।
 
तुव कस सीतल पौन परसि चटकीं गुलाब की कलियां।
 
अति सुख पाइ असीस देत सोइ करि अंगुरिन चट अलियां ।।
 
भए धरम मैं थित सब द्विज जन प्रजा काज निज लागे।
 
रिपु जुवती मुख कुमुद मन्द जन चक्रवाक अनुरागे ।।
 
अरध सरिस उपहार लिए नृप ठाढ़े तिन कहं तोखौ।
 
न्याव कृपा सों ऊंच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ।
 
(नेपथ्य में से बाजे की धुनि सुन पड़ती है)
 
रा. : महाराज ठाकुर जी के मंदिर से चले, देखो बाजों का शब्द सुनाई देता है और बंदी लोग भी गाते आते हैं।
 
स. : आप कहती हैं चले? वह देखिये आ पहुंचे कि चले।
 
रा. : (घबड़ा कर आदर के हेतु उठती हैं)
 
(परिकर1 सहित महाराज हरिश्चन्द्र2 आते हैं)
 
(रानी प्रणाम करती हैं और सब लोग यथा स्थान बैठते हैं)
 
ह. : (रानी से प्रीतिपूर्वक) प्रिये! आज तुम्हारा मुखचन्द्र मलीन क्यों हो रहा है?
 
रा. : पिछली रात मैंने कुछ दुःस्वप्न देखे हैं जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है।
 
ह. : प्रिये! यद्यपि स्त्रियों का स्वभाव सहज ही भीरु होता है पर तुम तो वीर कन्या वीरपत्नी और वीरमाता हो तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यों?
 
रा. : नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है।
 
ह. : सो गुरु जी से कुछ शान्ति करने को नहीं कहलाया।
 
रा. : महाराज! शान्ति तो गुरु जी ने कर दी है।
 
ह. : तब क्या चिन्ता है शास्त्रा और ईश्वर पर विश्वास रक्खो सब कल्याण होगा। सदा सर्वदा सहज मंगल साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ के संतोष करना चाहिए।
 
रा. : महाराज! स्वप्न के शुभाशुभ का विचार कुछ महाराज ने भी ग्रंथों में देखा है?
 
ह. : (रानी की बात अनसुनी करके) स्वप्न तो कुछ हमने भी देखा है चिन्तापूर्वक स्मरण करके। हां यह देखा है कि एक क्रोधी ब्राह्मण विद्या साधन करने को सब दिव्य महाविद्याओं को खींचता है और जब मैं स्त्री जान कर उनको बचाने गया हूँ तो वह मुझी से रुष्ट हो गया है और फिर जब बड़े विनय से मैंने उसे मनाया है तो उसने मुझसे मेरा सारा राज्य मांगा है। मैंने उसे प्रसन्न करने को अपना सब राज्य दे दिया है। (इतना कहकर अत्यन्त व्याकुलता नाट्य करता है।)
 
रा. : नाथ। आप एक साथ ऐसे व्याकुल क्यों हो गए?
 
ह. : मैं यह सोचता हूँ कि अब मैं उस ब्राह्मण को कहाँ पाऊंगा और बिना उसकी थाती उसे सौंपे भोजन कैसे करूंगा।
 
रा. : नाथ। क्या स्वप्न के व्योहार को भी आप सत्य मानिएगा?
 
ह. : प्रिये, हरिश्चन्द्र की अर्धान्गिनि होकर तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं है। हा! भला तुम ऐसी बात मुंह से निकालती हौ! स्वप्न किसने देखा है? मैंने न? फिर क्या? स्वप्न संसार अपने काल में असत्य है इसका कौन प्रमाण है, और जो अब असत्य कहो तो मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है, फिर इस संसार में परलोक के हेतु लोग धर्माचरण क्यों करते हैं? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में क्या प्रत्यक्ष।
 
रा. : (हाथ जोड़कर) नाथ क्षमा कीजिए, स्त्री की बुद्धि ही कितनी।
 
ह. : (चिन्ता करके) पर मैं अब करूं क्या! अच्छा। प्रधान! नगर में डौंडी पिटवा दो कि राज्य सब लोग आज से अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण का समझें उसके अभाव में हरिश्चन्द्र उसके सेवक की भाँति उसकी थाती समझ के राज का काय्र्य करेगा और दो मुहर राज काज के हेतु बनवा लो एक पर ‘अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण सेवक हरिश्चन्द्र’ और दूसरे पर ‘राजाधिराज अज्ञात नाम गोत्रा ब्राह्मण महाराज’ खुदा रहे और आज से राज काज के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे। देस देस के राजाओं और बड़े-बड़े कार्याधीशों को भी आज्ञापत्रा भेज दो कि महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण को पृथ्वी दी है इससे आज से उसका राज हरिश्चन्द्र मंत्री की भांति सम्हालेगा।
 
(द्वारपाल आता है)
 
द्वा. : महाराजाधिराज! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा है और व्यर्थ हम लोगों को गाली देता है।
 
ह. : (घबड़ा कर) अभी सादरपूर्वक ले आओ।
 
द्वा. : जो आज्ञा (जाता है)।
 
ह. : यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी बात हो।
 
(द्वारपाल के साथ विश्वामित्र आते हैं)।
 
ह. : (आदरपूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम करके) महाराज! पधारिए, यह आसन है।
 
वि. : बैठे, बैठ चुके, बोल अभी तैनें मुझे पहिचाना कि नहीं।
 
ह. : (घबड़ाकर) महाराज! पूब्र्ब परिचित तो आप ज्ञात होते हैं।
 
वि. : (क्रोध से) सच है रे क्षत्रियाधम। तू काहे को पहिचानेगा, सच है रे सूर्यकुलकलंक तू क्यों पहिचानेगा, धिक्कार तेरे मिथ्या धर्माभिमान को ऐसे ही लोग पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं। अरे दुष्ट तै भूल गया कल पृथ्वी किस को दान दी थी, जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
 
‘जातिस्वयंग्रहणदुर्ललितैकविप्रं
 
दृप्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम्
 
सर्गान्तराहरणभीतजगत्कृतान्तं
 
चण्डालयाजिनमवैषिनकौशिकंमाम्’
 
ह. : (पैरों पर गिरके बड़े विनय से) महाराज! भला आप को त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा।
 
‘अन्नक्षयादिषु तथाविहितात्मवृत्ति
 
राजप्रतिग्रह पराङमुखमानसं त्वाम्
 
आड़ोवकप्रधनकम्पितजीवलोकं
 
कस्तेजसां च तपसां च निधिर्नवेत्ति ।।’
 
बि. : (क्रोध से) सच है रे पाप पाखंड मिथ्यादान बीर! तू क्यों न मुझे ‘राज प्रतिग्रह पराङमुख’ कहेगा क्योंकि तैंने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान न दी है, ठहर-ठहर देख इस झूठ का कैसा फल भोगता है, हा! इसे देख कर क्रोध से जैसे मेरी दहिनी भुजा शाप देने को उठती है वैसे ही जाति स्मरण से के संस्कार से बाईं भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है, (अत्यन्त क्रोध से लंबी सांस लेकर और बांह उठा कर) अरे ब्रह्मा! सम्हाल अपनी सृष्टि को नहीं तो परम तेज पुञच दीर्घतपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या? ब्रह्मा का तो गर्ब उसी दिन मैंने चूर्ण किया जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभिमान चूर्ण करूंगा जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत् में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।
 
ह. : (पैरों पर गिर के) महाराज क्षमा कीजिए मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आप की मैं आप का भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुंह से निकालते हैं। (ईषत् क्रोध से) और आप बारंबार मुझे झूठा न कहिए। सुनिए मेरी यह प्रतिज्ञा है।
 
‘चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत ब्योहार।
 
पै दृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य बिचार’ ।।
 
बि. : (क्रोध और अनादर पूब्र्बक हंस कर) ह्ह्ह्ह्! सच है सच है रे मूढ़! क्यों नहीं, आखिर सूर्यबंशी है। तो दे हमारी पृथ्वी।
 
ह. : लीजिए, इसमें विलम्ब क्या है, मैंने तो आप के आगमन के पूब्र्ब ही से अपना अधिकार छोड़ दिया है। (पृथ्वी की ओर देखकर)
 
जेहि पाली इक्ष्वाकु सीं अबलौं रवि कुल राज।
 
ताहि देत हरिचन्द नृप विश्वामित्र हि आज ।।
 
वसुधे! तुम बहु सुख कियो मम पुरुखन की होय। धरमबद्ध हरिचन्द को छमहु सु परबस जोय।।
 
वि. : (आप ही आप) अच्छा! अभी अभिमान दिखा ले, तो मेरा नाम विश्वामित्र जो तुझको सत्यभ्रष्ट कर के छोड़ा, और लक्ष्मी से तो भ्रष्ट हो ही चुका है। (प्रगट) स्वस्ति। अब इस महादान की दक्षिणा कहां है?
 
ह. : महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी आती है।
 
वि. : भला सहस्र स्वर्ण मुद्रा से कम इतने बडे़ दान की दक्षिणा क्या होगी।
 
ह. : जो आज्ञा (मंत्री से) मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ।
 
वि. : (क्रोध से) ‘मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ’ मंत्री कहां से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है कि तैं मंत्री पर हुकुम चलाता है? झूठा कहीं का, देना ही नहीं था तो मुंह से कहा क्यों? चल मैं नहीं लेता ऐसे मनुष्य की दक्षिणा।
 
ह. : (हाथ जोड़कर बिनय से) महाराज ठीक है। खजाना अब सब आप का है, मैं भूला क्षमा कीजिए। क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है।
 
वि. : एक महीने में जो मुझे दक्षिणा न मिलेगी तो मैं तुझ पर कठिन ब्रह्मदंड गिराऊंगा, देख केवल एक मास की अवधि है।
 
ह. : महाराज! मैं ब्रह्मदंड से उतना नहीं डरता जितना सत्यदंड से इससे
 
बेचि देह दारा सुअन होइ दास हूं मन्द।
 
रखि है निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।
 
(आकाश से फूल की वृष्टि और बाजे के साथ जयध्वनि होती है)
 
(जवनिका गिरती है)
 
।। इति दूसरा अंक ।।
 
 
('''तीसरे अंक में अंकावतार''')
 
 
स्थान वाराणसी का बाहरी प्रान्त तालाब।
 
(पाप आता है)
 
पाप : (इधर उधर दौड़ता और हांफता हुआ) मरे रे मरे, जले रे जले, कहां जायं, सारी पृथ्वी तो हरिश्चन्द्र के पुन्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर ही नहीं सकते। सुना है कि राजा हरिश्चन्द्र काशी गए हैं क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उरिन नहीं हो सकते। यह बात जब हरिश्चन्द्र ने सुनी तो बहुत ही घबड़ाए और सोच विचार कर कहा कि बहुत अच्छा महाराज हम काशी में अपना शरीर बेचेंगे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है। यह सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें क्योंकि जहाँ हरिश्चन्द्र का राज्य न होगा वहाँ हमारे प्राण बचेंगे, सो यहाँ और भी उत्पात हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म, होम इत्यादि में लोग ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेंगे। रात दिन शंख घंटा की घनघोर के साथ वेद की धूनि मानो ललकार के हमारे शत्राु धर्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उस का हृदय एक साथ शीतल हो जाता है। इसके उपरान्त शि शि शि........ ध्वनि अलग मारे डालती है। हाय कहाँ जायं क्या करें। हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कट जाती है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है पर यहाँ तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न हो यहाँ आया कि गति हुई।
 
(नेपथ्य में)
 
येषांक्वापिगतिर्नास्ति तेषांवाराणसीगतिः
 
पाप : सच है, अरे! यह कौन महा भयंकर भेस, अंग में भभूत पोते; एड़ी तक जटा लटकाए, लाल लाल आँख निकाले साक्षात् काल की भांति त्रिशूल घुमाता हुआ चला आता है। प्राण! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो भागो पाताल में, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा ठिकाना लगना कठिन ही है।
 
(भागता हुआ जाता है)
 
(भैरव आते हैं)
 
भैर. : सच है। येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः। देखो इतना बड़ा पुन्यशील राजा हरिश्चन्द्र भी अपनी आत्मा और स्त्री पुत्र बेचने को यहीं आया है। अहा! धन्य है सत्य। आज जब भगवान भूतनाथ राजा हरिश्चन्द्र का वृतांत भवानी से कहने लगे तो उनके तीनों नेत्रा अश्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने से सब शरीर के भस्मकण अलग अलग हो गए। मुझको आज्ञा भी दी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा हरिश्चन्द्र की अंगरक्षा करना। इससे चलूं। मैं भी भेस बदलकर भगवान की आज्ञा पालन में प्रवत्र्त हूँ।
 
(जाते हैं। जवनिका गिरती है)
 
'''तीसरे अंक में यह अंकावतार समाप्त हुआ'''
 
 
 
'''<big>तीसरा अंक</big>'''
<big>(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क)</big>
 
 
महाराज हरिश्चन्द्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं
 
ह. : देखो काशी भी पहुंच गए। अहा! धन्य है काशी। भगवति बाराणसि तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है।
 
‘चारहु आश्रम बर्न बसै मनि कंचन धाम अकास बिभासिका।
 
सोभा नहीं कहि जाइ कछू बिधि नै रची मनो पुरीन की नासिका।
 
आपु बसैं गिरि धारनजू तट देवनदी बर बारि बिलासिका।
 
पुन्यप्रकासिका पापबिनासिका हीयहुलासिका सोहत कासिका’ ।। 1 ।।
 
‘बसैं बिंदुमाधव बिसेसरादि देव सबै दरसन ही तें लागै जम मुख मसी है।
 
तीरथ अनादि पंचगंगा मनिकर्निकादि सात आवरन मध्य पुन्य रूप धंसी है।
 
गिरिधरदास पास भागीरथी सोभा देत जाकी धार तोरै आसु कम्र्म रूप रसी है।
 
समी सम जसी असी बरना में बसी पाप खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी है’ ।। 2 ।।
 
 
‘रचित प्रभासी भासी अवलि मकानन की जिनमें अकासी फबै रतन नकासी है।
 
फिरैं दास दासी बिप्रगृही औ संन्यासी लसै बर गुनरासी देवपुरी हूं न जासी है।
 
गिरिधरदास बिश्वकीरति बिलासी रमा हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है।
 
खासी परकासी पुनवांसी चंदिक्रा सी जाके वासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है’ ।। 3 ।।
 
 
देखो। जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अंगूठी के नगीने सा नगर बनाया है वैसी ही नदी भी इसके लिये दी है। धन्य गंगे!
 
‘जम की सब त्रास बिनास करी मुख तें निज नाम उचारन में।
 
सब पाप प्रतापहि दूर दरौ तुम आपन आप निहारन में।
 
अहो गंग अनंग के शत्रु करे बहु नेकु जलै मुख डारन में।
 
गिरिधारनजू कितने बिरचे गिरिधारन धारन धारन में’ ।। 4 ।।
 
 
कुछ महात्म ही पर नहीं गंगा जी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है। आहा!
 
 
नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
 
बिच बिच छहरति बूंद मध्यमुक्ता मनि पोहति ।।
 
लोल लहर लहि पवन एक पैं इक इमि आवत।
 
जिमि नरगन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत ।।
 
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत।
 
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत ।।
 
श्री हरिपदनख चन्द्रकान्त मनि द्रवित सुधारस।
 
ब्रह्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस ।।
 
शिव सिर मालति माल भगीरथ नृपति पुन्य फल।
 
ऐरावत गज गिरि पति हिम नग कंठहार कल ।।
 
सगर सुअन सठ सह्स परम जल मात्रा उधारन।
 
अगिनित धारारूप धारि सागर संचारन ।।
 
कासी कहं प्रिय जानि ललकि भेंट्यौ जब धाई।
 
सपनेहूं नहिं तजी रहीं अंकन लपटाई ।।
 
कहूं बंधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
 
कहुं छतरी कहुं मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत ।।
 
धवल धाम चहुं ओर फरहरत धुजा पताका।
 
घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका ।।
 
मधुरी नौबत बजब कहूं नारि नर गावत।
 
बेद पढ़त कहुं द्विज कहुं जोगी ध्यान लगावत।
 
कहूं सुंदरी नहात नीर कर जुगल उछारत।
 
जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत ।।
 
धोअत सुंदरि बदन करन अति ही छबि पावत।
 
‘बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत’ ।।
 
सुंदरि ससि मुख नीर मध्य इमि सुंदर सोहत।
 
कमल बेलि लहलही नवल कुसमन मन मोहत ।।
 
दीठि जहीं जहं जात रहत तितही ठहराई।
 
गंगा छबि हरिचन्द्र कछू बरनी नहीं जाई ।।
 
(कुछ सोचकर) पर हां! जो अपना जी दुखी होता है तो संसार सून जान पड़ता है।
 
असनं वसनं वासो येषां चैवाविधानतः।
 
मगधेनसमाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी ।।1
 
विश्वामित्र को पृथ्वी दान करके जितना चित्त प्रसन्न नहीं हुआ उतना अब बिना दक्षिणा दिये दुखी होता है। हा! कैसे कष्ट की बात है राजपाट धनधाम सब छूटा अब दक्षिणा कहाँ से देंगे! क्या करें! हम सत्य धर्म कभी छोड़ेंहीगे नहीं और मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होंगे, और जो वह शाप न भी देंगे तो क्या? हम ब्राह्मण का ऋण चुकाए बिना शरीर भी तो नहीं त्याग कर सकते। क्या करें? कुबेर को जीतकर धन लावें? पर कोई शस्त्रा भी तो नहीं है। तो क्या किसी से मांग कर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे। फिर ऋण काढ़ें? पर देंगे कहां से। हा! देखो काशी में आकर लोग संसार के बंधन से छूटते हैं पर हमको यहाँ भी हाय हाय मची है। हा! पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं अपना कलंकित मंुह फिर किसी को न दिखाऊं। (आतंक से) पर यह क्या? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर हमारे यह कर्म हैं कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी में समा जाना सोचें। (कुछ सोच कर) हमारी तो इस समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती। क्या करें? हमें तो संसार सूना देख पड़ता है। (चिंता करके। एक साथ हर्ष से) वाह, अभी तो स्त्री पुत्र और हम तीन-तीन मनुष्य तैयार हैं। क्या हम लोगों के बिकने से सहस्र स्वर्ण मुद्रा भी न मिलेंगी? तब फिर किस बात का इतना शोच? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहाँ सोई थी। हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था;
 
बेचि देह दारा सुअन होय दास हूं मंद।
 
रखि हैं निज बच सत्य करि अभिमानी हरिश्चन्द ।।
 
(नेपथ्य में) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता? क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-पीछे दक्षिणा के वास्ते लगे फिरें?
 
ह. : अरे मुनि तो आ पहुंचे। क्या हुआ आज उनसे एक दो दिन की अवधि और लेंगे।
 
विश्वामित्र आते हैं
 
वि. : (आप ही आप) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण फिर बहक गई कुछ इन्द्र के कहने ही पर नहीं हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है पर क्या करें इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूंगा तब तक मेरा संतोष न होगा (आगे देखकर) अरे यही दुरात्मा (कुछ रुककर) वा महात्मा हरिश्चंद्र है। (प्रगट) क्यों रे आज महीने में कै दिन बाकी है। बोल कब दक्षिणा देगा?
 
ह. : (घबड़ाकर) अहा! महात्मा कौशिक। भगवान् प्रणाम करता हूं। (दंडवत् करता है)।
 
वि. : हुई प्रणाम, बोल तैं ने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ अब मैं एक क्षण भर भी न मानूंगा। दे अभी नहीं तो-(शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं।)
 
ह. : (पैरों पर गिरकर) भगवन् क्षमा कीजिए; क्षमा कीजिए। यदि आज सूर्यास्त के पहिले न दूं तो जो चाहे कीजिएगा। मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले आता हूं।
 
वि. : (आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) अच्छा आज सांझ तक और सही। सांझ को न देगा तो मैं शाप ही न दूंगा बरंच त्रौलोक्य में आज ही विदित कर दूंगा कि हरिश्चन्द्र सत्य भ्रष्ट हुआ। (जाते हैं)
 
ह. : भला किसी तरह मुनी से प्राण बचे। अब चलें अपना शरीर बेच कर दक्षिणा देने का उपाय सोचें। हा! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही मनुष्य कृतार्थ है जिस ने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी और क्रूर लहनदार की लाल आँखें नहीं देखी हैं। (आगे चल कर) अरे क्या बाजार में आ गए, अच्छा, (सिर पर तृण रखकर)1 अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, दुकानदार, हम किसी कारण से अपने को हजार मोहर पर बेचते हैं किसी को लेना हो तो लो। (इसी तरह कहता हुआ इधर उधर फिरता है) देखो कोई दिन वह था कि इसी मनुष्य विक्रय को अनुचित जानकर हम दूसरों को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते हैं। दैव बली है। (अरे सुनो भाई इत्यादि कहता हुआ इधर उधर फिरता है। ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्यों तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो?’ आर्य यह मत पूछो, यह सब कर्म की गति है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘तुम क्या क्या कर सकते हो; क्या समझते हो और किस तरह रहोगे?’ इस का क्या पूछना है। स्वामी जो कहेगा वही करेंगे; समझते सब कुछ हैं पर इस अवसर पर कुछ समझना काम नहीं आता; और जैसे स्वामी रक्खेगा वैसे रहेंगे। जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘कुछ दाम कम करो।’ आर्य हम लोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहां से जाने। जो कुछ ठीक था कह दिया।
 
(नेपथ्य में से)
 
आर्यपुत्र! ऐसे समय में हम को छोड़े जाते हो। तुम दास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूंगी। स्त्री को अद्र्धांगिनी कहते हैं, इससे पहिले बायां अंग बेच लो तब दाहिना अंग बेचो।
 
ह. : (सुनकर बड़े शोक से) हा! रानी की यह दशा इन आँखों से कैसे देखी जायेगी!
 
(सड़क पर शैव्या और बालक फिरते हुए दिखाई पड़ते हैं)
 
शै. : कोई महात्मा कृपा करके हम को मोल ले तो बड़ा उपकार हो।
 
बा. : अम को बी कोई मोल ले लो बला उपकाल ओ।
 
शै. : (आँखों में आंसू भरकर) पुत्र! चन्द्रकुलभूषण महाराज वीरसेन का नाती और सूर्यकुल की शोभा महाराज हरिश्चन्द्र का पुत्र होकर तू क्यों ऐसे कातर बचन कहता है। मैं अभी जीती हूँ! (रोती है)
 
बा. : (माँ का अंचल पकड़ के) माँ! तुमको कोई मोल लेगा तो अम को भी मोल लेगा। आं आं मा लोती काए को औ। (कुछ रोना सा मुंह बना के शैव्या का आंचल पकड़ के झूलने लगता है।)
 
शै. : (आंसू पोंछकर) पुत्र! मेरे भाग्य से पूछ।
 
ह. : अहह! भाग्य! यह भी तुम्हें देखना था। हा! अयोध्या की प्रजा रोती रह गई हम उनको कुछ धीरज भी न दे आए। उनकी अब कौन गति होगी। हा! यह नहीं कि राज छूटने पर भी छुटकारा हो अब यह देखना पड़ा। हृदय तुम इस चक्रवर्ती की सेवा योग्य बालक और स्त्री को बिकता देखकर टुकड़े-टुकड़े क्यों नहीं हो जाते? (बारंबार लंबी सांसें लेकर आंसू बहाता है)।
 
शै. : (कोई महात्मा इत्यादि कहती हुई ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्या क्या करोगी?’ पर पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और सब सेवा करूंगी। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘पर इतने मोल पर कौन लेगा?’ आर्य कोई साधु ब्राह्मण महात्मा कृपा करके ले ही लेंगे।
 
(उपाध्याय और बटुक आते हैं)
 
उ. : क्यों रे कौंडिन्य! सच ही दासी बिकती है?
 
ब. : हाँ गुरुजी क्या मैं झूठ कहूंगा। आप ही देख लीजिएगा।
 
उ. : तो चल, आगे भीड़ हटाता चल। देख धाराप्रवाही भांति कैसे सब काम काजी लोग अधर से उधर फिर रहे हैं। भीड़ के मारे पैर धरने की जगह नहीं है, और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता।
 
ब. : (आगे आगे चलता हुआ) हटो भाई हटो (कुछ आगे बढ़कर) गुरुजी यह जहाँ भीड़ लगी है वहीं होगी।
 
उ. : (शैव्या को देखकर) अरे यही दासी बिकती है?
 
शै. : (अरे कोई हम को मोल ले इत्यादि कहती और रोती है)
 
बा. : (माता की भांति तोतली बोली से कहता है)
 
उ. : पुत्री। कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी?
 
शै. : पर पुरुष से सम्भाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और जो-जो कहिएगा सब सेवा करूंगी।
 
उ. : वाह! ठीक है। अच्छा लो यह सुबर्ण। हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्रा के अग्नि की सेवा से घर से काम काज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना।
 
शै. : (हाथ फैलाकर) महाराज आप ने बड़ा उपकार किया।
 
उ. : (शैव्या को भली भांति देखकर आप ही आप) आहा! यह निस्संदेह किसी बडे़ कुल की है। इसका मुख सहज लज्जा से ऊँचा नहीं होता, और दृष्टि बराबर पैर ही पर है। जो बोलती है वह धीरे-धीरे बहुत सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों हुई! (प्रगट) पुत्री तुम्हारे पति है न?
 
श. : (राजा की ओर देखती)
 
ह. : (आप ही आप दुख से) अब नहीं। पति के होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो।
 
उ. : (राजा को देखकर आश्चर्य से) अरे यह विशाल नेत्रा, प्रशस्त वक्षस्थल, और संसार की रक्षा करने के योग्य लंबी-लंबी भुजा वाला कौन मनुष्य है, और मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रक्खा है? (प्रगट) महात्मा तुम हम को अपने दुख का भागी समझो और कृपा पूर्वक अपना सब वृत्तांत कहो।
 
ह. : भगवान्! और तो विदित करने का अवसर नहीं है इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के ऋण के कारण यह दशा हुई।
 
उ. : तो हम से धन लेकर आप शीघ्र ही ऋणमुक्त हूजिए।
 
ह. : (दोनों कानों पर हाथ रखकर) राम राम! यह तो ब्राह्मण की बृत्ति है। आप से धन लेकर हमारी कौन गति होगी?
 
उ. : तो पाँच हजार पर आप दोनों में से जो चाहे सो हमारे संग चले।
 
शै. : (राजा से हाथा जोड़र) नाथ हमारे आछत आप मत बिकिए, जिस में हम को अपनी आँख से यह न देखना पड़े हमारी इतनी बिनती मानिए। (रोती है)
 
ह. : (आँसू रोक कर) अच्छा! तुम्ही जाओे। (आप ही आप) हा! यह बज्र हृदय हरिश्चन्द्र ही का है कि अब भी नहीं बिदीर्ण होता।
 
शै. : (राजा के कपड़े में सोना बांधती हुई) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होंगे। (रोती हुई उपाध्याय से) आर्य आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का भली भांति दर्शन कर लूं। फिर यह मुख कहाँ और मैं कहाँ।
 
उ. : हाँ हाँ मैं जाता हूँ। कौडिन्य यहाँ है,, तुम उसके साथ आना। (जाता है)
 
शै. : (रोकर) नाथ मेरे अपराधों को क्षमा करना।
 
ह. : (अत्यन्त घबड़ाकर) अरे अरे विधाता तुझे यही करना था। (आप ही आप) हा! पहिले महारानी बनाकर अब दैव ने इसे दासी बनाया। यह भी देखना बदा था। हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है। (रोता हुआ प्रगट रानी से) प्रिये सर्वभाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना और सेवा करना।
 
शै. : (रोकर) नाथ! जो आज्ञा।
 
बटु. : उपाध्याय जी गए अब चलो जल्दी करो।
 
ह. : (आँखों में आँसू भर के) देवी (फिर रुक कर अत्यंत सोच में आप ही आप) हाय! अब मैं देवी क्यों कहता हूं अब तो विधाता ने इसे दासी बनाया। (धैर्य से) देवी! उपाध्याय की आराधना भली भांति करना और इनके सब शिष्यों से भी सुहृत भाव रखना, ब्राह्मण के स्त्री की प्रीति पूर्वक सेवा करना, बालक का यथासंभव पालन करना, और अपने धर्म और प्राण की रक्षा करना। विशेष हम क्या समझावें जो जो दैव दिखावे उसे धीरज से देखना। (आंसू बहते हैं)
 
शै. : जो आज्ञा (राजा के पैरों पर गिर के रोती है)।
 
ह. : (धैर्य पूव्र्वक) प्रिये! देर मत करो बटुक घबड़ा रहे हैं।
 
श. : (उठ कर रोती और राजा की ओर देखती हुई धीरे-धीरे चलती है)
 
वा. : (राजा से) पिता माँ कआँ जाती ऐं।
 
ह. : (धैर्य से आंसू रोककर) जहाँ हमारे भाग्य ने उसे दासी बनाया है।
 
बा. : (बटुक से) अले मां को मत लेजा। (माँ का आँचल पकड़ के खींचता है)
 
बटु. : (बालक को ढकेल कर) चल चल देर होती है।
 
बा. : (ढकेलने से गिर कर रोता हुआ उठकर अत्यंत क्रोध और करुणा से माता पिता की ओर देखता है)
 
ह. : ब्राह्मण, देवता! बालकों के अपराध से नहीं रुष्ट होना (बालक को उठाकर धूर पोंछ के मुंह चूमता हुआ) पुत्र मुझ चांडाल का मुख इस समय ऐसे क्रोध से क्यों देखता है? ब्राह्मण का क्रोध तो सभी दशा में सहना चाहिए। जाओ माता के संग मुझ भाग्यहीन के साथ रह कर क्या करोगे। (रानी से) प्रिये धैर्य धरो। अपना कुल और जाति स्मरण करो। अब जाओ, देर होती है।
 
(रानी और बालक रोते हुए बटुक के साथ जाते हैं)
 
ह. : धन्य हरिश्चन्द्र! तुम्हारे सिवाय और ऐसा कठोर हृदय किस का होगा। संसार में धन और जन छोड़कर लोग स्त्री की रक्षा करते हैं पर तुमने उसका भी त्याग किया।
 
(विश्वामित्र आते हैं)
 
ह. : (पैर पर गिर के प्रणाम करता है)
 
बि. : ला दे दक्षिणा। अब सांझ होने में कुछ देर नहीं है।
 
ह. : (हाथ जोड़कर) महाराज आधी लीजिए आधी अभी देता हूं। (सोना देता है)
 
बि. : हम आधी दक्षिणा लेके क्या करें! दे चाहे जहाँ से सब दक्षिणा। (नेपथ्य में) धिक् तपो धिक् व्रतमिदं ध्कि ज्ञानं धिक् बहुश्रुतम्। नीतंवान सियब्रह्मन् हरिश्चंद्रमिमां दशां।
 
बि. : (बड़े क्रोध से) आः हमको धिक्कार देने वाला यह कौन दुष्ट है? (ऊपर देखकर) अरे बिश्वेदेवा (क्रोध से जल हाथ में लेकर) अरे क्षत्रिय के पक्षपातियो! तुम अभी विमान से गिरो और क्षत्रिय के कुल में तुम्हारा जन्म हो और वहाँ भी लड़कपन ही में ब्राह्मण के हाथ से मारे जाओ। जल छोड़ते हैं,
 
(नेपथ्य में हाहाकार के साथ बड़ा शब्द होता है)
 
(सुनकर और ऊपर देखकर आनंद से) हहहह! अच्छा हुआ! यह देखो किरीट कुंडल बिना मेरे क्रोध से बिमान से छूट कर विश्वेदेवा उलटे हो-हो कर नीचे गिरते हैं। और हमको धिक्कार दें।
 
ह. : (ऊपर देखकर भय से) बाह रे तप का प्रभाव। (आप ही आप) तब तो हरिश्चन्द्र को अब तक शाप नहीं दिया है यही बड़ा अनुग्रह है। (प्रगट) भगवन् यह स्त्री बेचकर आधा धन पाया है सो लें और आधा हम अपने को बेचकर अभी देते हैं। (नेपथ्य में) अरे अब तो नहीं सही जाती।
 
बि. : हम आधा न लेंगे चाहे जहाँ से अभी सब दे।
 
ह. : (अरे सुनो भाई सेठ साहूकार इत्यादि पुकारता हुआ घूमता है)
 
(चांडाल के भेष में धर्म और सत्य आते हैं)2
 
धर्म : (आप ही आप)
 
हम प्रत्तच्छ हरिरूप जगत हमरे बल चालत।
 
जल थल नभ थिर मो प्रभाव मरजाद न टालत ।।
 
हमहीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।
 
इक हमहीं संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।
 
सो हम नित थित इक सत्य मैं जाके बल सब जियो।
 
सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेस हम यह कियो ।।
 
(आश्चर्य से आप ही आप) सचमुच इस राजर्षि के समान दूसरा आज त्रिभुवन में नहीं है। (आगे बढ़कर प्रत्यक्ष) अरे हरजनवाँ! मोहर का संदूख ले आवा है न?
 
सत्य. : क चैधरी मोहर ले के का करबो?
 
धर्म. : तों हमे का काम पूछै से?
 
(दोनों आगे बढ़ते हुए फिरते हैं)
 
ह. : (अरे सुनो भाई सेठ साहुकार इत्यादि दो तीन बेर पुकार के इधर उधर घूमकर) हाय! कोई नहीं बोलता और कुलगुरु भगवान् सूर्य भी आज हमसे रुष्ट हो कर शीघ्र ही अस्ताचल जाया चाहते हैं। (घबराहट दिखाता है)।
 
धर्म : (आप ही आप) हाय हाय! इस समय इस महात्मा को बड़ा ही कष्ट है। तो अब चलें आगे। (आगे बढ़ कर) अरे अरे हम तुम को मोल लेंगे। लेव यह पचास सै मोहर लेव।
 
ह. : (आनन्द से आगे बढ़कर) वाह कृपानिधान! बड़े अवसर पर आए। लाइये। (उसको पहिचान कर) आप मोल लोगे?
 
धर्म : हाँ हम मोल लेंगे। (सोना देना चाहता है)।
 
ह. : आप कौन हैं?
 
धर्म : हम चैधरी डोम सरदार।
 
अमल हमारा दोनों पार ।।
 
सब मसान पर हमारा राज।
 
कफन मांगने का है काज ।।
 
फूलमती देवी1 के दास।
 
पूजैं सती मसान निवास ।।
 
धनतेरस औ रात दिवाली।
 
बल चढ़ाय के पूजैं काली ।।
 
सो हम तुमको लेंगे मोल।
 
देंगे मुहर गांठ के खोल ।।
 
(मत्त की भांति चेष्टा करता है)
 
ह. : (बड़े दुःख से) अहह! बड़ा दारुण व्यसन उपस्थित हुआ है। (विश्वामित्र से) भगवान् मैं पैर पड़ता हूँ, मैं जन्म भर आप का दास होकर रहूंगा, मुझे चांडाल होने से बचाइए ।।
 
वि. : छिः मूर्ख! भला हम दास लेके क्या करेंगे।
 
‘स्वयंदासास्तपस्विनः’
 
ह. : (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा कीजियेगा हम सब करेंगे।
 
वि. : सब करेगा न? (ऊपर हाथ उठाकर) कर्म के साक्षी देवता लोग सुनें, यह कहता है कि जो आप कहेंगे मैं सब करूंगा।
 
ह. : हाँ हाँ जो आप आज्ञा कीजिएगा सब करूंगा।
 
बि. : तो इसी गाहक के हाथ अपने को बेचकर अभी हमारी शेष दक्षिणा चुका दे।
 
ह. : जो आज्ञा। (आप ही आप) अब कौन सोच है। (प्रगट धर्म से) तो हम एक नियम पर बिकेंगे।
 
धर्म : वह कौन?
 
ह. : भीख असन कम्मल बसन रखिहैं दूर निवास।
 
जो प्रभु आज्ञा होइ है करि हैं सब ह्नै दास ।।
 
धर्म : ठीक है लेव सोना (दूर से राजा के आंचल में मोहर देता है)
 
ह. : (लेकर हर्ष से आप ही आप)
 
ऋण छूट्यो पूरîो बचन द्विजहु न दीनो शाप।
 
सत्य पालि चंडालहू होइ आजु मोहि दाप ।।
 
(प्रगट विश्वामित्र से) भगवन्! लीजिए यह मोहर।
 
बि. : (मुँह चिढ़ाकर) सचमुच देता है?
 
ह. : हाँ हाँ यह लीजिए। (मोहर देते हैं)
 
बि. : (लेकर) स्वस्ति। (आप ही आप) बस अब चलो बहुत परीक्षा हो चुकी। (जाना चाहते हैं)
 
ह. : (हाथ जोड़कर) भगवन् दक्षिणा देने में देर होने का अपराध क्षमा हुआ न?
 
बि. : हाँ क्षमा हुआ। अब हम जाते हैं।
 
ह. : भगवन् प्रणाम करता हूँ।
 
(बिश्वामित्र आशीर्वाद देकर जाते हैं)
 
ह. : अब चैधरी जी (लज्जा से रुककर) स्वामी की जो आज्ञा हो वह करें।
 
धर्म : (मत्त की भांति नाचता हुआ)
 
जाओ अभी दक्खिनी मसान।
 
लेओ वहाँ कफ्फन का दान ।।
 
जो कर तुमको नहीं चुकावै।
 
सो किरिया करने नहिं पावै ।।
 
चलो घाट पर करो निवास।
 
भए आज से मेरे दास ।।
 
ह. : जो आज्ञा। (जवनिका गिरती है)
 
सत्यहरिश्चन्द्र का तीसरा अंक समाप्त हुआ।
 
 
 
'''<big>चौथा अंक</big>'''
 
<big>(श्मशान)
 
 
 
स्थान: दक्षिण, स्मशान, नदी, पीपल का बड़ा पेड़,
 
चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी, इत्यादि।
 
कम्मल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चन्द्र फिरते दिखाई पड़ते हैं।
 
ह. : (लम्बी सांस लेकर) हाय! अब जन्म भर यही दुख भोगना पड़ेगा।
 
जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान।
 
कफन खसोटी को करम, सबही एक समान ।।
 
न जाने विधाता का क्रोध इतने पर भी शांत हुआ कि नहीं। बड़ों ने सच कहा है कि दुःख से दुःख जाता है। दक्षिणा का ऋण चुका तो यह कर्म करना पड़ा। हम क्या सोचें। अपनी अनथ प्रजा क्या को, या दीन नातेदारों को या अशरश नौकरों को, या रोती हुई दासियों को, या सूनी अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान बालक को, या अपने ही इस चंडालपने को। हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोधभरी और रानी ने जाती समय करुणाभरी दृष्टि से जो मेरी ओर देखा था वह अब तक नहीं भूलती। (घबड़ा कर) हा देवी! सूर्यकुल की बहू और चंद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गईं और दासी बनीं। हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की माला भी नहीं गुथ सकती थीं उनसे बरतन कैसे मांजोगी! (मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हल कर) अथवा क्या हुआ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चन्द्र ने सत्य छोड़ा।
 
बेचि देह दारा सुअन होई दासहू मन्द।
 
राख्यौ निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।
 
(आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)
 
अरे! यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी? कोई पुन्यात्मा का मुरदा आया होगा। तो हम सावधान हो जायं। (लट्ठ कंधे पर रखकर फिरता हुआ) खबरदार खबरदार बिना हम से कहे और बिना हमें आधा कफन दिये कोई संस्कार न करे। (यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा से इधर उधर देखता फिरता है) (नेपथ्य में कोलाहल सुनकर) हाय हाय! कैसा भयंकर समशान है! दूर से मंडल बांध बांध कर चोंच बाए, डैना फैलाए, कंगालों की तरह मुरदों पर गिद्ध कैसे गिरते हैं, और कैसा मांस नोंच नोंच कर आपुस में लड़ते और चिल्लाते हैं। इधर अत्यंत कर्णकटु अमंगल के नगाड़े की भांति एक के शब्द की लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिराईन फैलाती हुई चट चट करती चिता कैसी जल रही हैं, जिन में कहीं से मांस के टुकड़े उड़ते हैं, कहीं लोहू बा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला पीला हो रहा है। ज्वाला घूम घूम कर निकलती है। आग कभी एक साथ धधक उठती है कभी मन्द हो जाती है। धुआँ चारों ओर छा रहा है। (आगे देखकर आदर से) अहा! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो। अएतएव कहा है
 
‘मरनो भलो विदेश को जहाँ न अपुनो कोय।
 
माटी खायं जनावरा महा महोच्छव होय ।।’
 
अहा! देखो
 
सिर पर बैठ्यो काग आंख दोउ खात निकारत।
 
खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनन्द उर धारत ।।
 
गिद्ध जांघ कहं खोदि खोदि कै मांस उचारत।
 
स्वान आँगुरिन काटि काटि कै खान बिचारत ।।
 
बहु चील नोचि लै जात तुच मोद बढ्यौ सबको हियो
 
मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो ।।
 
सोई मुख सोई उदर सोई कर पद दोय।
 
भयो आजु कछु और ही परसत जेहि नहिं कोय ।।
 
हाड़ माँस लाला रकत बसा तुचा सब सोय।
 
छिन्न भिन्न दुरगन्धमय मरे मनुस के होय ।।
 
कादर जेहि लखि कै डरत पंडित पावत लाज।
 
अहो! व्यर्थ संसार को विषय वासना साज ।।
 
 
(अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है।)
 
 
हा! मरना भी क्या वस्तु है।
 
सोई मुख जेहि चन्द बखान्यौ।
 
सोई अंग जेहि प्रिय करि जान्यौ ।।
 
सोई भुज जे पिय गर डारे।
 
सोई भुज जिन रन बिक्रम पारे ।।
 
सोई पद जिहि सेवक बन्दत।
 
सोई छबि जेहि देखि आनन्दत ।।
 
सोई रसना जहं अमृत बानी।
 
सोई सुनि कै हिय नारि जुड़ानी ।।
 
सोई हृदय जहं भाव अनेका।
 
सोई सिर जहं निज बच टेका ।।
 
सोई छबिमय अंग सुबाए।
 
आजु जीव बिनु धरनि सुहाए ।।
 
कहां गई वह सुंदर सोभा।
 
जीवत जेहि लखि सब मन लोभा ।।
 
प्रानहुं ते बढ़िजा कहं चाहत।
 
ता कहं आजु सबै मिलि दाहत ।।
 
फूल बोझ हू जिन न सहारे।
 
तिन पै बोझ काठ बहु डारे ।।
 
सिर पीड़ा जिन की नहिं हेरी।
 
करत कपाल क्रिया तिनकेरी ।।
 
छिनहूं जे न भए कहुं न्यारे।
 
ते हू बन्धुन छोड़ि सिधारे ।।
 
जो दृग कोर महीप निहारत।
 
आजु काक तेहि भोज बिचारत ।।
 
भुज बल जे नहिं भुवन समाए।
 
ते लखियत मुख कफन छिपाए ।।
 
नरपति प्रजा भेद बिनु देखे।
 
गनें काल सब एकहि लेखे ।।
 
सुभग कुरूप अमृत बिख साने।
 
आजु सबै इक भाव बिकाने ।।
 
पुरू दधीच कोऊ अब नाहीं।
 
रहे नावं हीं ग्रन्थन मांही ।।
 
अहा! देखो वही सिर जिस पर मंत्रा से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रक्खा जाता था, जिसमें इतना अभिमान था कि इन्द्र को भी तुच्छ गिनता था, और जिसमें बड़े-बड़े राज जीतने के मनोरथ भरे थे, आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छूने में भी घिन करते हैं। (आगे देखकर) अरे यह स्मशान देवी हैं। अहा कात्यायनी को भी कैसा वीभत्स उपचार प्यारा है। यह देखो डोम लोगों ने सूखे गले सड़े फूलों की माला गंगा में से पकड़ पकड़ कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है। मरे बैल और भैसों के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं जिन में लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है। घंट के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोहू के थापे लगे हैं। नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उसके खाने को कुत्ते और सियार लड़ लड़कर कोलाहल मचा रहे हैं। (हाथ जोड़कर) ‘भगवति! चंडि! प्रेते! प्रेत विमाने! लसत्प्रेते। प्रेतास्थि रौद्ररूपे! प्रेताशनि। भैरवि! नमस्ते’।1
 
(नेपथ्य में) राजन् हम केवल चंडालों के प्रणाम के योग्य हैं। तुम्हारे प्रणाम से हमें लज्जा आती है। मांगो, क्या वर मांगते हो।
 
ह. : (सुनकर आश्चर्य से) भगवति! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमारे स्वामी का कल्याण कीजिए। (नेपथ्य में) साधु महाराज हरिश्चन्द्र साधु!
 
ह. : (ऊपर देखकर) अहा! स्थिरता किसी को भी नहीं है। जो सूर्य उदय होते ही पद्मिनी बल्लभ और लौकिक वैदिक दोनों कर्म का प्रवत्र्तक था, जो दो पहर तक अपना प्रचंड प्रताप क्षण-क्षण बढ़ाता गया, जो गगनांगन का दीपक और कालसर्प का शिखामणि था वह इस समय परकटे गिद्ध की भांति अपना सब तेज गंवाकर देखो समुद्र में गिरा चाहता है।
 
अथवा
 
सांझ सोई पट लाल कसे कटि सूरज खप्पर हाथ लह्यो है। पच्छिन के बहु सब्दन के मिस जीअ उचाटन मंत्रा कह्यो है। मद्य भरी नर खोपरी सो ससि को नव बिम्बहू धाई गह्यो है। दै बलि जीव पसू यह मत्त ह्वै काल कपालिक नाचि रह्यो है।
 
सूरज धूम बिना की चिता सोई अंत में लै जल माहिं बहाई। बोलैं घने तरु बैठि बिहंगम रोअत सो मनु लोग लोगाई। धूम अंधार, कपाल निसाकर, हाड़ नछत्रा, लहू सी ललाई। आनंद हेतु निसाचर के यह काल समान सी सांझ बनाई।
 
अहा! यह चारों ओर से पक्षी लोग कैसा शब्द करते हुए अपने-अपने घोसलों की ओर चले जाते हैं। वर्षा से नदी का भयंकर प्रवाह, सांझ होने से स्मशान के पीपल पर कौओं का एक संग अमंगल शब्द से कांव कांव करना, और रात के आगम से एक सन्नाटे का समय चित्त में कैसी उदासी और नय उत्पन्न करता है। अंधकार बढ़ता ही जाता है। वर्षा के कारण इन स्मशानवासी मंडूकों का टर्र टर्र करना भी कैसा डरावना मालूम होता है।
 
रुरुआ चहुंदिसि ररत डरत सुनि कै नर नारी।
 
फटफटाइ दोउ पंख उलुकहु रटत पुकारी।
 
अन्धकार बस गिरत काक अरु चील करत रव।
 
गिद्ध गरुड़ हड़गिल्ल भजत लखिविकट भयद दव।
 
रोअत सियार गरजत नदी स्वान भू कि डरपावई।
 
संग दादुर झींगुर रुदन धुनि मिलि खर तुमुल मचावई।
 
 
इस समय ये चिता भी कैसी भयंकर मालूम पड़ती हैं। किसी का सिर चिता के नीचे लटक रहा है, कहीं आंच से हाथ पैर जलकर गिर पड़े हैं, कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिल्कुल कच्चा है, किसी को वैसे ही पानी में बहा दिया है, किसी को किनारे छोड़ दिया है, किसी का मुंह जल जाने से दांत निकला हुआ भयंकर हो रहा है, और कोई दहकती आग में ऐसा जल गया है कि कहीं पता भी नहीं है। बाहरे शरीर! तेरी क्या क्या गति होती है!!! सचमुच मरने पर इस शरीर को चटपट जला ही देना योग्य है क्योंकि ऐसे रूप और गुण जिस शरीर में थे उसको कीड़ों या मछलियों से नुचवाना और सड़ा कर दुर्गंधमय करना बहुत ही बुरा है। न कुछ शेष रहेगा न दुर्गति होगी। हाय! चलो आगे चलें। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर उधर घूमता है)1 (कौतुक से देखकर) पिशाचों का क्रीड़ा कुतूहल भी देखने के योग्य है। अहा! यह कैसे काले काले झाड़ई से सिर के बाल खड़े किये लम्बे-लम्बे हाथ पैर बिकराल दांत लम्बी जीभ निकाले इधर-उधर दौड़ते और परस्पर किलकारी मारते हैं मानों भयानक रस की सेना मूर्तिमान होकर यहाँ स्वच्छंद विहार कर रही है। हाय हाय! इन का खेल और सहज व्योहार भी कैसा भयंकर है। कोई कटाकट हड्डी चबा रहा है, कोई खोपड़ियों में लोहू भर भर के पीता है, कोई सिर का गेंद बनाकर खेलता है, कोई अंतड़ी निकालकर गले में डाले है और चंदन की भांति चरबी और लोहू शरीर में पोत रहा है, एक दूसरे से माँस छीनकर ले भागता है, एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुंह में रख लेता है पर जब गरम मालूम पड़ता है तो थू थू करके थूक देता है, और दूसरा उसी को फिर झट से खा जाता है। हा! देखो यह चुड़ैल एक स्त्री की नाक नथ समेत नोच लाई है जिसे
 
सत्य हरिश्चंद्र के परवती संस्करणों में बढ़ाया गया अंश,
 
(पिशाच और डाकिणी गण परस्पर आमोद करते और गाते बजाते आते हैं।)
 
पि. और डा. : हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमाछम,
 
हम सेवैं मसान, शिव को भजैं, बोलैं बम बम बम।
 
पि. : हम कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ हड्डी को तोड़ेंगे।
 
हम भड़ भड़ धड़ धड़ पड़ पड़ सिर सबका फोड़ेंगे।
 
डा. : हम घुट घुट घुट घुट घुट घुट लोहू पिलावेंगी।
 
हम चट चट चट चट चट चट ताली बाजवेंगी।।
 
सब : हम नाचें मिलकर थेई थेई थेई थेई कूदें धम् धम् धम्
 
हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमा छम।।
 
पि. : हम काट काट कर सिर को गेंदा उछालेंगे।
 
हम खींच खींच कर चर्बी पंशाखा बालेंगे।।
 
डा. : हम माँग में लाल लाल लोहू का सिंदूर लगावेंगी।
 
हम नस के तागे चमड़े का लहँगा बनावेंगी।।
 
सब : हम धज से सज के बज के चलेंगे चमकेंगे चम चम चम।
 
पि. : लोहू का मुँह से फर्र फर्र फुहारा छोड़ेंगे।
 
माला गले पहिरने को अँतड़ी को जोडे़गें।।
 
डा. : हम लाद के औंधे मुरदे चैकी बनावैंगी।
 
कफन बिछा के लड़कों को उस पर सुलावेंगी।।
 
सब : हम सुख से गावेंगे ढोल बजावेंगे ढम ढम ढम ढम ढम।
 
(वैसे ही कूदते हुए एक ओर चले जाते हैं।)
 
 
देखने को चारों ओर से सब भूतने एकत्रा हो रहे हैं और सभों को इसका बड़ा कौतुक हो गया है। हंसी में परस्पर लोहू का कुल्ला करते हैं और जलती लकड़ी और मुरदों के अंगों में लड़ते हैं और उनको ले ले कर नाचते हैं। यदि तनिक भी क्रोध में आते हैं तो स्मशान के कुत्तों को पकड़-पकड़ कर खा जाते हैं। अहा! भगवान भूतनाथ ने बड़े कठिन स्थान पर योग साधना की है। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है) (ऊपर देखकर) आधी रात हो गई, वर्षा के कारण अंधेरी बहुत ही छा रही है, हाथ से नाक नहीं सूझता। चांडाल कुल की भांत स्मशान पर तम का भी आज राज हो रहा है। (स्मरण करके) हा। इस दुःख की दशा में भी हमसे प्रिया अलग पड़ी है। कैसी भी हीन अवस्था हो पर अपना प्यारा जो पास रहे तो कुछ कष्ट नहीं मालूम पड़ता। सच है-”टूट टाट घर टपकत खटियौ टूट। पिय कै बांह उसिसवां सुख कै लुट“। बिधना ने इस दुःख पर भी बियोग दिया हा! यह वर्षा और यह दुःख! हरिश्चन्द्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा पर जिस ने सपने में भी दुख नहीं देखा वह महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो धीरज धरो। तुम ने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है जिसके साथ सदा दुख ही दुख है। (ऊपर देखकर) अरे पानी बरसने लगा! (घोघी भली भांति ओढ़ कर) हमको तो यह वर्षा और स्मशान दोनों एकही से दिखाई पड़ते हैं। देखो।
 
चपला की चमक चहूंघा सों लगाई चिता चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है।
 
हेती बग माल स्याम बादर सु भूमिकारी बीर बधूबूंद भव लपटायो है ।।
 
हरीचन्द नीर धार आंसू सी परत जहाँ दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है।
 
दाहन बियोगी दुखियान को मरे हूं यह देखो पापी पाव मसान बनि आयो है।
 
 
(कुछ देर तक चुप रह कर) कौन है? (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिर कर)
 
 
इन्द्रकालहू सरिस जो आयसु लांघै कोय।
 
यह प्रचंड भुज दंड मम प्रति भट ताको होय ।।
 
अरे कोई नहीं बोलता। (कुछ आगे बढ़कर) कौन है?
 
(नेपथ्य में) हम हैं।
 
ह. : अरे हमारी बात का उत्तर कौन देता है? चले जहाँ से आवाज आई है वहाँ चल कर देखें। (आगे बढ़ कर नेपथ्य की ओर देख कर) अरे यह कौन है?
 
चिता भस्म सब अंग लगाए।
 
अस्थि अभूषन बिबिध बनाए ।।
 
हाथ मसान कपाल जगावत।
 
को यह चल्यो रुद्र सम आवत ।।
 
(कापालिक के वेष में धर्म आता है)
 
धर्म. : अरे हम हैं।
 
वृत्ति अयाचित आत्म रति करि जग के सुख त्याग।
 
फिरहिं मसान-मसान हम धारि अनन्द बिराग ।।
 
आगे बढ़कर महाराज हरिश्चन्द्र को देखकर आप ही आप,
 
हम प्रतच्छ हरि रूप जगत हमरे बल चालत।
 
जल थल नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत ।।
 
हम हीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।
 
हम ही इक संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।
 
सो हम नित थित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो।
 
सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो ।।
 
कुछ सोचकर, राजर्षि हरिश्चन्द्र की दुःख परंपरा अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्रा अत्यन्त आश्चर्य के हैं! अथवा महात्माओं का यह स्वभाव ही होता है।
 
सहत बिविध दुख मरि मिटत भोगत लाखन सोग।
 
पै निज सतय न छाड़हीं जे जग सांचे लोग ।।
 
बरु सूरज पच्छिम उगैं विन्ध्य तरै जल मांहिं।
 
सत्य बीर जन पै कबहुं निज बच टारत नाहिं ।।
 
अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुख को दुख, सुख को दुख गिनते ही नहीं। चलें उनके पास चलें। (आगे बढ़कर और देखकर) अरे यही महात्मा हरिश्चन्द्र हैं? (प्रगट) महाराज! कल्याण हो।
 
ह.: (प्रणाम करके) आइये योगिराज।
 
ध. : महाराज! हम अर्थी हैं।
 
ह. : (लज्जा और विकलता नाट्य करता है)
 
ध. : महाराज आप लज्जा मत कीजिए। हम लोग योग बल से सब कुछ जानते हैं। आप इस दशा पर भी हमारा अर्थ पूर्ण करने को बहुत हैं। चन्द्रमा राहु से ग्रसा रहता है तब भी दान दिलवा कर भिक्षुओं का कल्याण करता है।
 
ह. : आज्ञा। हमारे योग्य जो कुछ हो आज्ञा कीजिए।
 
ध. : अंजन गुटिका पादुका धातुभेद बैताल। वज्र रसायन जोगिनी मोहि सिद्ध इहि काल।
 
ह. : तो मुझे आज्ञा हो वह करूं।
 
ध. : आज्ञा यही है कि यह सब मुझे सिद्ध हो गए हैं पर विघ्न इस में बाधक होते हैं सो आप विघ्नों का निवारण कर दीजिए।
 
ह. : आप जानते ही हैं कि मैं पराया दास हूँ, इससे जिनमें मेरा धर्म न जाय वह मैं करने को तैयार हूं।
 
ध. : (आप ही आप) राजन्, जिस दिन तुम्हारा धर्म जाएगा उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी (प्रत्यक्ष) महाराज इसमें धर्म न जायगा क्योंकि स्वामी की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं। सिद्धि का आकर इसी स्मशान के निकट ही है और मैं अब पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप बिघ्नों का निषेध कर दीजिए।
 
(जाता है)
 
ह. : (ललकार कर) हटो रे हटो विघ्नो चारों ओर से तुम्हारा प्रचार हम ने रोक दिया।
 
(नेपथ्य में) महाराजाधिराज जो आज्ञा।
 
आप से सत्य वीर की आज्ञा कौन लांघ सकता है।
 
खुल्यौ द्वारा कल्यान को सिद्ध जोग तप आज।
 
निधि सिधि विद्या सब करहिं अपुने मन को काज ।।
 
ह. : (हर्ष से) बड़े आनन्द की बात है कि विघ्नों ने हमारा कहना मान लिया। (विमान पर बैठी हुई तीनों महाविद्या आती है)
 
म. वि. : महाराज हरिश्चन्द्र! बधाई है। हमीं लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम किया था तब देवताओं ने माया से आपको स्वप्न में हमारा रोना सुनाकर हमारा प्राण बचाया।
 
ह. : (आप ही आप) अरे यही सृष्टि की उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली महाविद्या हैं जिन्हें विश्वामित्र भी न सिद्ध कर सके। (प्रगट हाथ जोड़कर) त्रिलोकविजयिनी महाविद्याओं को नमस्कार है।
 
म. वि. : महाराज हम लोग आप के बस में हैं। हमारा ग्रहण कीजिए।
 
ह. : देवियो! यदि हम पर प्रसन्न हो तो विश्वामित्र मुनि का वशवत्र्तिनी हो क्योंकि उन्होंने आप लोगों के वास्ते बड़ा परिश्रम किया है।
 
म. वि. : (परस्पर आश्चर्य से देखकर) धन्य महाराज धन्य! जो आज्ञा।
 
(जाती हैं)
 
धर्म एक बैताल के सिर पर पिटारा रखवाए हुए आता है।
 
ध. : महाराज का कल्याण हो। आप की कृपा से महानिधान सिद्ध हुआ। आपको बधाई है अब लीजिए इस रसेन्द्र को।
 
याही के परभाव सों अमरदेव सम होइ।
 
जोगी जन बिहरहिं सदा मेरु शिखर भय खोइ ।।
 
ह. : (प्रणाम करके) महाराज दास धर्म के यह विरुद्ध है। इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी लेना स्वामी को धोखा देना है।
 
ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) तो इसके स्वर्ण बना कर आप अपना दास्य छुड़ा लें।
 
ह. : यह ठीक है पर मैंने तो बिनती किया न कि जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योंकि मैं तो देह के साथ ही अपना सत्व मात्रा बेच चुका इससे आप मेरे बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेन्द्र दीजिए।
 
ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) धन्य हरिश्चन्द्र! धन्य तुम्हारा धैर्य! धन्य तुम्हारा विवेक! और धन्य तुम्हारी महानुभावता! या
 
चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय।
 
पै बीरन कें मन कबहूं चलहिं नाहिं ललचाय ।।
 
तो हमें भी इसमें कौन हठ है। (प्रत्यक्ष) बैताल! जाओ, जो महाराज की आज्ञा है, वह करो।
 
बै. : जो रावल जी की आज्ञा। (जाता है)
 
ध. : महाराज ब्राह्म मुहूर्त निकट आया अब हम को भी आज्ञा हो।
 
ह. : जोगिराज! हम को भूल न जाइएगा, कभी कभी स्मरण कीजिएगा।
 
ध. : महाराज! बड़े बडे़ देवता आप का स्मरण करते हैं और करेंगे मैं क्या हूँ।
 
(जाता है)
 
ह. : क्या रात बीत गई! आज तो कोई भी मुरदा नया नहीं आया। रात के साथ ही स्मशान भी शांत हो चला। भगवान् नित्य ही ऐसा करें।
 
(नेपथ्य मे घंटानूपुरादि का शब्द सुनकर) अरे यह बड़ा कोलाहल कैसा हुआ?
 
(विमान पर अष्ट महासिद्धि नव निधि और बारहो प्रयोग आदि देवता आते हैं)।
 
ह. : (आश्चर्य से) अरे यह कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर स्मशान पर एकत्रा हो रहे हैं।
 
दे. : महाराज हरिश्चन्द्र की जय हो। आप के अनुग्रह से हम लोग विघ्नों से छूटकर स्वतंत्रा हो गए। अब हम आपके वश में हैं जो आज्ञा हो करें। हम लोग अष्ट महा सिद्धि नव निधि और बारह प्रयोग सब आप के हाथ में है।
 
ह. : (प्रणाम करके) यदि हम पर आप लोग प्रसन्न हो तो महासिद्धि योगियों के, निधि सज्जन के, और प्रयोग साधकों के पास जाओ।
 
दे. : (आश्चर्य से) धन्य राजर्षि हरिश्चन्द्र! तुम्हारे बिना और ऐसा कौन होगा जो घर आई लक्ष्मी का त्याग करे। हमीं लोगों की सिद्धि को बड़े-बड़े योगी मुनि पच मरते हैं पर तुमने तृण की भांति हमारा त्याग करके जगत का कल्याण किया।
 
ह. : आप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं पर मैं क्या करूं, क्योंकि मैं पराधीन हूं। एक बात और भी निवेदन है। वह यह कि छह अच्छे प्रयोग की तो हमारे समय में सद्यः सिद्धि होय पर बुरे प्रयोगों की सिद्धि विलंब से हो।
 
दे. : महाराज! जो आज्ञा। हम लोग जाते हैं। आज आप के सत्य ने शिव जी के कीलन1 को भी शिथिल कर दिया। महाराज का कल्याण हो।
 
(जाते हैं)
 
(नेपथ्य में इस भांति मानो राजा हरिश्चन्द्र नहीं सुनता)
 
(एक स्वर से) तो अब अप्सरा को भेजें?
 
(दूसरे स्वर से) छिः मूर्ख! जिस को अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नहीं डिगाया उसको अप्सरा क्या डिगावेंगी?
 
(एक स्वर से) तो अब अन्तिम उपाय किया जाय।
 
(दूसरे स्वर से) हाँ तक्षक को आज्ञा दे। अब और कोई उपाय नहीं है।
 
ह. : अहा अरुण का उदय हुआ चाहता है। पूर्व दिशा ने अपना मंुह लाल किया। (साँस ले कर) ”वा चकई को भयो चित चीतो चियोति चहूँ दिसि चाय सों नाची। ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनी जोति मनो जम जांची। बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपत्ति काची। लोहू पियो जो बियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची।“ हा! प्रिये इन बरसातों की रात को तुम रो रो के बिताती होगी! हा! वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर बेचा तब दास हुए तुम बिना बिके ही क्यों दास बन गए!
 
जेहि सहसन परिचायिका राखत हाथहि हाथ। सो तुम लोटत धूर मैं दास बालकन साथ! जाकी आयसु जग नृपति सुनतहि धारत सीस! तेहि द्विज बटु अज्ञा करत अहह कठिन अति इस। बिनु तन बेचे बिनु जग ज्ञान विवेक। दैव सर्प दंशित भए भोगत कष्ट अनेक।
 
(घबड़ा कर) नारायण! नारायण! मेरे मुख से क्या निकल गया। देवता उस की रक्षा करें। (बांई आँख का फड़कना दिखाकर) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? (दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर) अरे और साथ ही यह मंगल शकुन भी! न जाने क्या होनहार है, वा अब क्या होनहार है जो होना था सो हो चुका। अब इससे बढ़कर और कौन दशा होगी? अब केवल मरण मात्रा बाकी है। इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहिले ही शरीर छूटे क्योंकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है पर बश क्या है।
 
(नेपथ्य में)
 
पुत्र हरिश्चन्द्र सावधान। यही अन्तिम परीक्षा है। तुम्हारे पुरखा इक्ष्वाकु से लेकर त्रिशंकु पर्यन्त आकाश में नेत्रा भरे खड़े एक टक तुम्हारा मुख देख रहे हैं। आज तक इस वंश में ऐसा कठिन दुःख किसी को नहीं हुआ था। ऐसा न हो कि इन का सिर नीचा हो। अपने धैर्य का स्मरण करो।
 
ह. : (घबड़ा कर ऊपर देखकर) अरे! यह कौन है? कुलगुरु भगवान सूर्य अपना तेज समेटे मुझे अनुशासन कर रहे हैं। (ऊपर पितः मैं सावधान हूं सब दुखों को फूल की माला की भांति ग्रहण करूंगा।) (नेपथ्य में रोने की आवाज सुन पड़ती है)
 
ह. : अरे अब सवेरा होने के समय मुरदा आया! अथवा चांडाल कुल का सदा कल्याण हो हमें इस से क्या। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ फिरता है)
 
(नेपथ्य में)
 
हाय! कैसी भई! हाय बेटा हमें रोती छोड़ के कहाँ चले गए! हाय! हाय रे!
 
ह. : अहह! किसी दीन स्त्री का शब्द है, और शोक भी इस पुत्र का है। हाय हाय! हम को भी भाग्य ने क्या ही निर्दय और वीभत्स कर्म सौंपा है! इससे भी वस्त्रा मांगना पड़ेगा।
 
(रोती हुई शैव्या रोहिताश्व का मुरदा लिये आती है)
 
शै. : (रोती हुई) हाय! बेटा जब बाप ने छोड़ दिया तब तुम भी छोड़ चले! हाय हमारी बिपत और बुढ़ौती की ओर भी तुम ने न देखा! हाय! हाय रे! अब हमारी कौन गति होगी! (रोती है)
 
ह. : हाय हाय! इसके पति ने भी इसको छोड़ दिया है। हा! इस तपस्विनी को निष्करुण विधि ने बड़ा ही दुख दिया है।
 
शै. : (रोती हुई) हाय बेटा! अरे आज मुझे किसने लूट लिया! हाय मेरी बोलती चिड़िया कहाँ उड़ गई! हाय अब मैं किसका मुंह देख के जीऊंगी! हाय मेरी अंधी की लकड़ी कौन छीन ले गया! हाय मेरा ऐसा सुंदर खिलौना किसने तोड़ डाला! अरे बेटा तै तो मरे पर भी सुंदर लगता है! हाय रे! अरे बोलता क्यों नहीं! बेटा जल्दी बोल, देख माँ कब की पुकार रही है! बच्चा तू तो एक दफे पुकारने में दौड़कर गले से लपट जाता था, आज क्यों नहीं बोलता!
 
(शव को बारंबार गले लगाती, देखती और चूमती है)
 
ह. : हाय! हाय! इस दुखिया के पास तो खड़ा नहीं हुआ जाता।
 
शै. : पागल की भांति यह क्या हो रहा है। बेटा कहाँ गए हौ आओ जल्दी! अरे अकेले इस मसान में मुझे डर लगती है। यहाँ मुझ को कौन ले आया है रे! बेटा जल्दी आओ। क्या कहते हौ, मैं गुरू को फूल लेने गया था वहाँ काले सांप ने मुझे काट लिया! हाय हाय रे! अरे कहाँ काट लिया? अरे कोई दौड़ के किसी गुनी को बुलाओ जो जिलावै बच्चे को। अरे वह साँप कहाँ गया! हम को क्यों नहीं काटता? काट रे काट; क्या उस सुकुंआर बच्चे ही पर बल दिखाना था? हमें काट। हाय हम को नहीं काटता। अरे हिंयां तो कोई सांप वांप नही है, मेरे लाल झूठ बोलना कब से सीखे? हाय हाय मैं इतना पुकारती हूँ और तुम खेलना नहीं छोड़ते? बेटा गुरु जी पुकार रहे हैं उनके होम की बेला निकली जाती है। देखो बड़ी देर से वह तुम्हारे आसरे बैठै हैं। दो जल्दी इनको दूब और बेलपत्रा। हाय हमने इतना पुकारा तुम कुछ नहीं बोलते! ख्जोर से, बेटा सांझ भई, सब विद्यार्थी लोग घर फिर आए, तुम अब तक क्यों नहीं आए? आगे शव देखकर, हाय हाय रे! अरे मेरे लाल को सांप ने सचमुच डंस लिया! हाय लाल! हाय मेरे आँखों के उजियाले को कौन ले गया! हाय! मेरा बोलता हुआ सुग्गा कहाँ उड़ गया! बेटा अभी तो बोल रहे थे अभी क्या हो गया! हाय मेरा बसा घर आज किसने उजाड़ दिया! हाय मेरी कोख में किस ने आग लगा दी! हाय मेरा कलेजा किसने निकाल लिया! ख्चिल्ला-चिल्ला कर रोती है, हाय लाल कहां गए! अरे अब मैं किसका मुंह देख के जीउं$गी रे! हाय अब मां कहके मुझको कौन पुकारेगा! अरे आज किस बैरी की छाती ठंडी भई रे! अरे तेरे सुकुंआर अंगों पर भी काल को तनिक दया न आई! अरे बेटा आंख खोलो! हाय मैं सब विपत तुम्हारा ही मुंह देखकर सहती थी तो अब कैसे जीती रहूंगी! अरे लाल एक बेर तो बोलो! (रोती है)
 
ह. : न जाने क्यों इसके रोने पर मेरा कलेजा फटा जाता है।
 
शै. : (रोती हुई) हा नाथ! अरे अपने गोद के खेलाए बच्चे की यह दशा क्यों नहीं देखते! हाय! अरे तुम ने तो इसको हमें सौंपा था कि इसे अच्छी तरह पालना सो हमने इसकी यह दशा कर दी! हाय! अरे ऐसे समय में भी आकर नहीं सहाय होते! भला एक बेर लड़के का मुंह तो देख जाओ! अरे मैं किस के भरोसे अब जीऊंगी?
 
ह. : हाय हाय! इसकी बातों से तो प्राण मुंह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। यहां से हट चलें (कुछ दूर हटकर उसकी ओर देखता खड़ा हो जाता है)।
 
शै. : (रोती हुई) हाय! यह बिपत का समुद्र कहां से उमड़ पड़ा! अरे छलिया मुझे छलकर कहां भाग गया! ख्देख कर, अरे आयुस की रेखा तो इतनी लम्बी है फिर अभी से यह बज्र कहां से टूट पड़ा! अरे ऐसा सुंदर मुह, बड़ी-बड़ी आंख, लम्बी-लम्बी भुजा, चैड़ी छाती, गुलाब सा रंग! हाय मरने के तुझ में कौन से लच्छन थे जो भगवान ने तुझे मार डाला! हाय लाल! अरे बड़े-बड़े जोतसी गुनी लोग तो कहते थे कि तुम्हारा बेटा बड़ा प्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा, बहुत दिन जीयेगा, सो सब झूठ निकला! हाय! पोथी, पत्रा, पूजा, पाठ, दान, जप होम, कुछ भी काम न आया! हाय तुम्हारे बाप का कठिन पुत्र भी तुम्हारा सहाय न भया और तुम चल बसे! हाय!
 
ह. : अरे इन बातों से तो मुझे बड़ी शंका होती है (शव को भली भांति देखकर) अरे इस लड़के में तो सब लक्षण चक्रवर्ती के से दिखाई पड़ते हैं। हाय! न जाने किस बड़े कुल का दीपक आज इस ने बुझाया है, और न जाने किस नगर को आज इसने अनाथ किया है। हाय! रोहिताश्व भी इतना बड़ा भया होगा (बड़े सोच से) हाय हाय! मेरे मुंह से क्या अमंगल निकल गया। नारायण (सोचता है)
 
शै. : भगवान विश्वामित्र! आज तुम्हारे सब मनोरथ पूरे भए। हाय!
 
ह. : (घबड़ाकर) हाय हाय यह क्या? (भली भांत देखकर रोता हुआ) हाय अब तक मैं संदेह ही में पड़ा हूं? अरे मेरी आँखें कहां गई थीं जिन ने अब तक पुत्र रोहिताश्व को न पहिचाना, और कान कहां गये थे जिन ने अब तक महारानी की बोली न सुनी! हा पुत्र! हा लाल! हा सूर्यवंश के अंकुर! हा हरिश्चन्द्र की विपत्ति के एक मात्रा अवलम्ब! हाय! तुम ऐसे कठिन समय में दुखिया माँ को छोड़कर कहाँ गए। अरे तुम्हारे कोमल अंगों को क्या हो गया! तुम ने क्या खेला, क्या खाया, क्या सुख भोगा, कि अभी से चल बसे। पुत्र स्वर्ग ऐसा ही प्यारा था तो मुझ से कहते, मैं बाहुबल से तुम को इसी शरीर से स्वर्ग पहुंचा देता। अथवा अब इस अभिमान से क्या? भगवान इसी अभिमान का फल यह सब दे रहा है। हाय पुत्र! (रोता है)
 
आह! मुझसे बढ़कर और कौन मन्दभाग्य होगा! राज्य गया, धन, जन, कुटुम्ब सब छूटा, उस पर भी यह दारुण पुत्रशोक उपस्थित हुआ। भला अब मैं रानी को क्या मुंह दिखाऊं। निस्संदेह मुझसे अधिक अभागा और कौन होगा। न जाने हमारे जन्म के पाप उदय हुए हैं जो कुछ हमने आज तक किया वह यदि पुण्य होता तो हमें यह दुख न देखना पड़ता। हमारा धर्म का अभिमान सब झूठा था, क्योंकि कलियुग नहीं है कि अच्छा करते बुरा फल मिले, निस्संदेह मैं महा अभागा और बड़ा पापी हूं। (रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है और नेपथ्य में शब्द होता है) क्या प्रलयकाल आ गया? नहीं। यह बड़ा भारी असगुन हुआ है। इसका फल कुछ अच्छा नहीं, वा अब बुरा होना ही क्या बाकी रह गया है जो होगा। हा। न जाने किस अपराध से दैव इतना रूठा है (रोता है) हा सूर्यकुल आलवालप्रवाल। हा हरिश्चन्द्र हृदयानन्दन! हा शैव्याबलम्ब! हा वत्सरोहिताश्व! हा मातृ पितृ विपत्ति सहचर! तुम हम लोगों को इस दशा में छोड़कर कहां गए! आज हम सचमुच चांडाल हुए। लोग कहेंगे कि इस ने न जाने कौन दुष्कर्म किया था कि पुत्रशोक देखा। हाय हम संसार को क्या मंुह दिखावेंगे। (रोता है) वा संसार में इस बात के प्रगट होने के पहले ही हम भी प्राण त्याग करें। हा निर्लज्ज प्राण तुम अब भी क्यों नहीं निकलते। हा बज्र हृदय इतने पर भी तू क्यों नहीं फटता। नेत्रो, अब और क्या देखना बाकी है कि तुम अब तक खुले हो। या इस व्यर्थ प्रलाप का फल ही क्या है समय बीता जाता है, इसके पूर्व कि किसी से साम्हना हो प्राण त्याग करना ही उत्तम बात है (पेड़ के पास जाकर फांसी देने के योग्य डाल खोजकर उसमें दुपट्टा बांधता है) धर्म! मैंने अपने जान सब अच्छा ही किया परंतु न जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना। (दुपट्टे की फांसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चैंक कर) गोविन्द गोविन्द! यह मैंने क्या अनर्थ अधर्म विचारा। भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण त्याग करना चाहा। भगवान् सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। नारायण नारायण! इस इच्छाकृत मानसिक पाप से कैसे उद्धार होगा! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर क्षमा करना, दुख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती; अब तो मैं चांडालकुल का दास हूं, न अब शैव्या मेरी स्त्री है और न रोहिताश्व मेरा पुत्र। चलूं अपने स्वामी के काम पर सावधान हो जाऊं, वा देखूं अब दुक्खिनी शैव्या क्या करती है (शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है)।
 
शै. : (पहली तरह बहुत रोकर) हाय! अब मैं क्या करूं। अब मैं किसका मुंह देखकर संसार में जीऊंगी। हाय मैं आज से निपूती भई! पुत्रवती स्त्री अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी। हा नित्य सवेरे उठकर अब मैं किसकी चिन्ता करूंगी। खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझ से मांग मांग पर अब कौन खाएगा! मैं परोसी थाली सूनी देखकर कैसे प्रान रक्खूंगी। (रोती है) हाय खेलता खेलता आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा, और माँ माँ कहकर तनक तनक बातों पर कौन हठ करेगा। हाय मैं अब किसको अपने आंचल से मुंह की धूल पोंछकर गले लगाऊंगी और किसके अभिमान से बिपत में भी फूली फूली फिरूंगी। (रोती है) या जब रोहिताश्व नहीं तो मैं ही जी के क्या करूंगी। (छाती पीटकर) हाय प्रान, तुम अभी क्यों नही निकले। (हाय मैं ऐसी स्वारथी हूं कि आत्महत्या के नरक के भय से अब भी अपने को नहीं मार डालती। नहीं नहीं अब मैं न जीऊंगी। या तो इस पेड़ में फांसी लगाकर मर जाऊंगी या गंगा में कूद पड़ंईगी) (उन्मत्त की भांति उठकर दौड़ना चाहती है)।
 
ह. : (आड़ में से) तनहिं बेंचि दासी कहवाई।
 
मरत स्वामि आयसु बिन पाई
 
करु न अधर्म सोचु जिय माहीं।
 
‘पराधीन सपने सुख नाहीं ।।’
 
शै. : (चैकन्नी होकर) अहा! यह किसने इस कठिन समय में धर्म का उपदेश किया। सच है मैं अब इस देह की कौन हूं जो मर सकूं। हा दैव! तुझसे यह भी न देखा गया कि मैं मरकर भी सुख पाऊं। (कुछ धीरज धरके) तो चलूं छाती पर वज्र धरके अब लोकरीति करूं। रोती और लकड़ी चुनकर चिता बनाती हुई) हाय! जिन हाथों से ठोंक ठोंक कर रोज सुलाती थी उन्हीं हाथों से आज चिता पर कैसे रक्खूंगी, जिसके मुंह में छाला पड़ने के भय से कभी मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे-(बहुत ही रोती है)।
 
ह. : धन्य देवी, आखिर तो चंद्र सूर्यकुल की स्त्री हो। तुम न धीरज करोगी तो और कौन करेगा।
 
शै. : (चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना चाहती है और रोती है)।
 
ह. : तो अब चलें उस से आधा कफन मांगे (आगे बढ़कर और बलपूर्वक आंसुओं को रोककर शैव्या से) महाभागे! स्मशान पति की आज्ञा है कि आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूंकने न पावे सो तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो (कफन मांगने को हाथ फैलाता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)।
 
(नेपथ्य में)
 
अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलं। त्वया राजन् हरिश्चन्द्र सब्र्वं लोकोत्तरं कृतं।
 
(दोनों आश्चर्य से ऊपर देखते हैं)
 
शै. : हाय। इस कुसमय में आर्यपुत्र की यह कौन स्तुति करता है? वा इस स्तुति ही से क्या है, शास्त्र सब असत्य हैं नहीं तो आर्यपुत्र से धर्मी की यह गति हो! यह केवल देवताओं और ब्राह्मणों का पाषंड है।
 
ह. : (दोनों कानों पर हाथ रखकर) नारायण नारायण! महाभागे ऐसा मत कहो; शास्त्र, ब्राह्मण और देवता त्रिकाल में सत्य हैं। ऐसा कहोगी तो प्रायश्चित होगा। अपना धर्म बिचारो। लाओ मृतकंबल हमें दो और अपना काम आरंभ करो (हाथ फैलाता है)
 
शै. : (महाराज हरिश्चन्द्र के हाथ में चक्रवर्ती का चिद्द देखकर और कुछ स्वर कुछ आकृति से अपने पति को पहचान कर) हा आर्यपुत्र, इतने दिन तक कहाँ छिपे थे! देखो अपने गोद के खेलाए दुलारे पुत्र की दशा! तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व देखो अब अनाथ की भांति मसान में पड़ा है। (रोती है।)
 
ह. : प्रिये धीरज धरो। यह रोने का समय नहीं है। देखो सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कोई आ जाय और हम लोगों की जान ले, और एक लज्जा मात्रा बच गई है वह भी जाय। चलो कलेजे पर सिल रखकर अब रोहिताश्व की क्रिया करो और आधा कंबल हमको दो।
 
शै. : (रोती हुई) नाथ! मेरे पास तो एक भी कपड़ा नहीं था, अपना आंचल फाड़कर इसे लपेट लाई हूं, उसमें से भी जो आधा दे दूंगी तो यह खुला ही रह जायगा। हाय! चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मिलता! (बहुत रोती है)
 
ह. : (बलपूर्वक आंसुओं को रोककर और बहुत धीरज धर कर) प्यारी, रोओ मत। ऐसे ही समय में तो धीरज और धरम रखना काम है। मैं जिस का दास हूं उस की आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत करने दो। इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र समझकर तुम से इसका आधा कफन न लूं तो बड़ा अधर्म हो। जिस हरिश्चन्द्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा फाड़ दो। देखो सबेरा हुआ चाहता है ऐसा न हो कि कुलगुरु भगवान् सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर चित् में उदास हों। (हाथ फैलाता है)
 
शै. : (रोती हुई) नाथ जो आज्ञा। (रोहिताश्व का मृतकंबल फाड़ा चाहती है कि रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है, तोप छूटने का सा बड़ा शब्द और बिजली का सा उजाला होता है। नेपथ्य में बाजे की ओर बस धन्य और जय-जय की ध्वनि होती है, फूल बरसते हैं और भगवान् नारायण प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लेते हैं।)
 
भ. : बस महाराज बस (धर्म और सत्य सब की परमावधि हो गई। देखो तुम्हारे पुण्य भय से पृथ्वी बारम्बार कांपती है, अब त्रौलोक्य की रक्षा करो। (नेत्रों से आंसू बहते हैं)
 
ह. : (साष्टांग दंडवत् करके रोता हुआ गद्गद् स्वर से) भगवान्! मेरे वास्ते आपने परिश्रम किया! कहाँ यह श्मशान भूमि, कहाँ यह मत्र्यलोक, कहाँ मेरा मनुष्य शरीर, और कहां पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदघन साक्षात् आप! (प्रेम के आंसुओं से गद्गद् कंठ होने से कुछ कहा नहीं जाता)
 
भ. : (शैव्या से) पुत्री अब शोच मत कर! धन्य तेरा सौभाग्य कि तुझे राजर्षि हरिश्चन्द्र ऐसा पति मिला है (रोहिताश्व की ओर देखकर वत्स ब्रेरेट बंद रोहिताश्व उठो, देखो तुम्हारे माता पिता देर से तुम्हारे मिलने को व्याकुल हो रहे हैं।) (रोहिताश्व उठ खड़ा होता है और आश्चर्य से भवगान् को प्रणाम कर के माता पिता का मुंह देखने लगता है, आकाश से फिर पुष्पवृष्टि होती है)
 
ह. और शै.: (आश्चर्य, आनंद, करुणा और प्रेम से कुछ कह नहीं सकते, आंखों से आंसू बहते हैं और एकटक भगवान् के मुखारविंद की ओर देखते हैं)
 
(श्री महादेव, पार्वती, भैरव, धर्म, सत्य, इंद्र और विश्वामित्र आते हैं)1
 
सब : धन्य महाराज हरिश्चन्द्र धन्य! जो आपने किया, सो किसी ने न किया न करेगा।
 
(राजा हरिश्चन्द्र शैव्या और रोहिताश्व सबको प्रणाम करते हैं)
 
बि. : महाराज यह केवल चन्द्र सूर्य तक आप की कीर्ति स्थिर रहने के हेतु मैंने छल किया था सो क्षमा कीजिए और अपना राज्य लीजिए।
 
(हरिश्चन्द्र भगवान और धर्म का मुंह देखते हैं)
 
धर्म : महाराज राज आप का है इसका मैं साक्षी हूं आप निस्संदेह लीजिए।
 
सत्य : ठीक है जिसने हमारा अस्तित्व संसार में प्रत्यक्ष कर दिखाया उसी का पृथ्वी का राज्य है।
 
श्रीमहादेव : पुत्र हरिश्चन्द्र, भगवान नारायण के अनुग्रह से ब्रह्मलोक पर्यंत तुम ने पाया तथापि मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी कीर्ति, जब तक पृथ्वी है तब तक स्थिर रहे, और रोहिताश्व दीर्घायु, प्रतापी और चक्रवर्ती होय।
 
पा. : पुत्री शैव्या! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियाँ गावें, तुम्हारी पुत्रवधू सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग न करे।
 
(हरिश्चन्द्र और शैव्या प्रणाम करते हैं)
 
भै. : और जो तुम्हारी कीर्ति कहे सुने और उसका अनुसरण करे उस की भैरवी यातना न हो।
 
इन्द्र : (राजा को आलिंगन करके और हाथ जोड़ के) महाराज ,मुझे क्षमा कीजिये। यह सब मेरी दुष्टता थी परंतु इस बात से आप का तो कल्याण ही हुआ। स्वर्ग कौन कहे आप ने अपने सत्यबल से ब्रह्मपद पाया। देखिये आप की रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी, आप उपाध्यक्ष बने थे, नारद जी बटु बने थे, साक्षात् धर्म ने आप के हेतु चांडाल और कापालिक का भेष लिया, और सत्य ने आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का रूप धारण किया। न आप बिके, न दास हुए, यह सब चरित्रा भगवान नारायण की इच्छा से केवल आप के सुयश के हेतु किया गया।
 
ह. : (गद्गद स्वर से) अपने दासों का यश बढ़ाने वाला और कौन है।
 
भ. : महाराज। और जो भी इच्छा हो मांगो।
 
ह. : (प्रणाम करके गद्गद स्वर से) प्रभु! आप के दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आप की आज्ञानुसार यह वर मांगता हूं कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ बैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे।
 
भ. : एवमस्तु, तुम ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट पतंग जीव मात्र सब परमधाम जायंगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण टूट जायंगे तब भी वह तुम्हारी इच्छानुसार सत्य मात्र एक पद से स्थित रहेगा। इतना ही देकर मुझे सन्तोष नहीं हुआ कुछ और भी मांगो। मैं तुम्हें क्या-क्या दूं क्योंकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका। तथापि मेरी इच्छा यही है कि तुम को कुछ और वर दूं। तुम्हें वर देने में मुझे सन्तोष नहीं होता।
 
ह. : (हाथ जोड़कर) भगवान मुझे अब कौन इच्छा है। मैं और क्या वर मांगूं तथापि भरत का यह वाक्य सुफल हो-
 
खल गनन सो सज्जन दुखी मति होइ, हरिपद रति रहे।
 
उपधर्म छूटैं सत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै ।।
 
बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, सबजगसुखल है।
 
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहै ।।
 
(पुष्पवृष्टि और बाजे की धुनि के साथ जवनिका गिरती है)
 
 
इति श्री
 
सत्य हरिश्चन्द्र नाटक सम्पूर्ण हुआ ।।
<big><big>
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===श्री चंद्रावली(१८७६,नाटिका)===
 
===विषस्य विषमौषधम्(१८७६,भाण)===
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===[[भारत दुर्दशा]] (१८८०,ब्रजरत्नदास के अनुसार१८७६,नाट्य रासक)===
 
 
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'''<big>पहला अंक</big>'''
 
 
 
।<big>। मंगलाचरण ।।</big>
 
 
<big>जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार।
 
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।।</big>
 
<big>स्थान - बीथी
 
(एक योगी गाता है)
 
(लावनी)</big>
 
<big>रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
 
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।। धु्रव ।।
 
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
 
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।।
 
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
 
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो ।।
 
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
 
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
 
जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती।
 
जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती ।।
 
जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।
 
तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ।।
 
अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।
 
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
 
लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।
 
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी ।।
 
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।
 
छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी ।।
 
भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई।
 
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
 
अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।
 
पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।।
 
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।
 
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री ।।
 
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
 
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
 
(पटीत्तोलन) </big>
------------------------
 
 
'''<big>दूसरा अंक</big>'''
 
 
 
<big>स्थान-श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर
 
कौआ, कुत्ता, स्यार घूमते हुए, अस्थि इधर-उधर पड़ी है।
 
(भारत’ का प्रवेश)</big>
 
<big>भारत : हा! यही वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था, ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ और आज हम उसी को देखते हैं कि श्मशान हो रही है।
 
अरे यहां की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहां गए? अरे पामर जयचद्र! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं।
 
(रोता है) मातः; राजराजेश्वरि बिजयिनी! मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय! मैंने जाना था कि अँगरेजों के हाथ में आकर
 
हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर दैव से वह भी न सहा गया। हाय! कोई बचानेवाला नहीं।</big>
 
<big>(गीत)
 
कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ।
 
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ ।।
 
जाकी सरन गहत सोई मारत सुनत न कोउ दुखगाथ।
 
दीन बन्यौ इस सों उन डोलत टकरावत निज माथ ।।
 
दिन दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊ नहिं साथ।
 
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ नाथ ।।</big>
 
(<big>नेपथ्य में गंभीर और कठोर स्वर से)
 
अब भी तुझको अपने नाथ का भरोसा है! खड़ा तो रह। अभी मैंने तेरी आशा की जड़ न खोद डाली तो मेरा नाम नहीं।/<big>
 
<big>भारत : (डरता और काँपता हुआ रोकर) अरे यह विकराल वदन कौन मुँह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है?
 
हाय-हाय इससे वै$से बचेंगे? अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायेगा! हाय! परमेश्वर बैकुंठ में और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी?
 
हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा? अब कोई उपाय नहीं। अब मरा, अब मरा। (मूर्छा खाकर गिरता है)
 
(निर्लज्जता आती है)</big>
 
<big>निर्लज्जता : मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छिः छिः! जीओगे तो भीख माँग खाओगे। प्राण देना तो कायरों का काम है।
 
क्या हुआ जो धनमान सब गया ‘एक जिंदगी हजार नेआमत है।’ (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चलें। नहीं नहीं मुझसे अकेले न उठेगा।
 
(नेपथ्य की ओर) आशा! आशा! जल्दी आओ।
 
(आशा आती है)
 
निर्लज्जता : यह देखो भारत मरता है, जल्दी इसे घर उठा ले चलो।
 
आशा : मेरे आछत किसी ने भी प्राण दिया है? ले चलो; अभी जिलाती हूँ।
 
(दोनों उठाकर भारत को ले जाते हैं) </big>
------------------------
 
 
'''<big>तीसरा अंक</big>'''
 
 
<big>स्थान-मैदान
 
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! भारतदुर्दैव’ आता है)
 
भारतदु. : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
 
(नाचता और गाता हुआ)
 
अरे!
 
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
 
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
 
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
 
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
 
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
 
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
 
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
 
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
 
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
 
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
 
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
 
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
 
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
 
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
 
(नाचता है)</big>
 
<big>अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें!
 
लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा
 
कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों?
 
मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
 
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
 
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
 
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
 
(नाचता हुआ)</big>
 
<big>सत्या. फौ : हमारा नाम है सत्यानास।
 
धरके हम लाखों ही भेस।
 
बहुत हमने फैलाए धर्म।
 
होके जयचंद हमने इक बार।
 
हलाकू चंगेजो तैमूर।
 
दुरानी अहमद नादिरसाह।
 
हैं हममें तीनों कल बल छल।
 
पिलावैंगे हम खूब शराब।
 
भारतदु. : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।
 
सत्या. फौ. : महाराज ‘इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा।’ जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कर दिया जाय।
 
भारतदु. : किसने किसने क्या क्या किया है?
 
सत्या. फौ. : महाराज! धर्म ने सबके पहिले सेवा की।
 
रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।
 
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए ।।
 
जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो।
 
खान पान संबंध सबन सों बरजिं छुड़ायो ।।
 
जन्मपत्रा विधि मिले ब्याह नहिं होन देत अब।
 
बालकपन में ब्याहि प्रीतिबल नास कियो सब ।।
 
करि कुलान के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो।
 
बिधवा ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचारîो ।।
 
रोकि विलायतगमन कूपमंडूक बनाîो।
 
यौवन को संसर्ग छुड़ाई प्रचार घटायो ।।
 
बहु देवी देवता भूत पे्रतादि पुजाई।
 
ईश्वर सो सब बिमुख किए हिंदू घबराई ।।
 
भारतदु. : आहा! हाहा! शाबाश! शाबाश! हाँ, और भी कुछ धम्र्म ने किया?
 
सत्या. फौ. : हाँ महाराज।
 
अपरस सोल्हा छूत रचि, भोजनप्रीति छुड़ाय।
 
किए तीन तेरह सबै, चैका चैका छाय ।।
 
भारतदु. : और भी कुछ?
 
सत्या. फौ. : हाँ।
 
रचिकै मत वेदांत को, सबको ब्रह्म बनाय।
 
हिंदुन पुरुषोत्तम कियो, तोरि हाथ अरू पाय ।।
 
महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकत्र्तव्यता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए।
 
जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां! बस, जय शंकर की।
 
सत्या. फौ. : हाँ महाराज।
 
भारतदु. : अच्छा, और किसने किसने क्या किया?</big>
 
<big>सत्या. फौ. : महाराज, फिर संतोष ने भी बड़ा काम किया। राजा प्रजा सबको अपना चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही।
 
रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, ‘संतोषं परमं सुखं’ रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं। निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी।
 
इन दोनों को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।
 
भारतदु. : और किसने क्या किया?
 
सत्या. फौ. : फिर महाराज जो धन की सेना बची थी उसको जीतने को भी मैंने बडे़ बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई।
 
अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया।
 
तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि ‘बम बोल गई बाबा की चारों दिसा’ धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँडिया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई,
 
डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धांय धांय गिनी गई1 वर्णमाला कंठ कराई,2 बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
 
भारतदु. : और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?
 
सत्या. फौ. : हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्राुओं की फौज में हिला मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्राु बिना मारे
 
घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक एक योजन पर अलग अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य! देखें आ ही के क्या करते हैं!
 
भारतदु. : भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?
 
सत्या. फौ. : महाराज! उसका बल तो आपकी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नामक फौजों ने बिलकुल तोड़ दिया। लाही, कीड़े, टिड्डी और पाला इत्यादि सिपाहियों ने खूब ही सहायता की। बीच में नील ने भी नील बनकर अच्छा लंकादहन किया।
 
भारतदु. : वाह! वाह! बड़े आनंद की बात सुनाई। तो अच्छा तुम जाओ। कुछ परवाह नहीं, अब ले लिया है। बाकी साकी अभी सपराए डालता हूँ। अब भारत कहाँ जाता है।
 
तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।
 
सत्या. फौ. : जो आज्ञा।
 
ख्जाता है,
 
भारतदु. : अब उसको कहीं शरण न मिलेगी। धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?
 
(जवनिका गिरती है) </big>
 
-------------------
 
 
'''<big>चौथा अंक</big>'''
 
 
 
<big>(कमरा अँगरेजी ढंग से सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)</big>
 
<big>(रोग का प्रवेश)
 
रोग (गाता हुआ) : जगत् सब मानत मेरी आन।
 
मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान ।।
 
मृत्यु कलंक मिटावत मैं ही मोसम और न आन।
 
परम पिता हम हीं वैद्यन के अत्तारन के प्रान ।।
 
मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी, देवता सब मेरे ही नामांतर हैं।
 
मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है,
 
यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चैड़ी होगी उतने ही हम भी ‘जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा’। (भारतदुदैव को देखकर) महाराज! क्या आज्ञा है?
 
भारतदु. : आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।</big>
 
<big>रोग : महाराज! भारत तो अब मेरे प्रवेशमात्रा से मर जायेगा। घेरने को कौन काम है? धन्वंतरि और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है। और न सुश्रुत, वाग्भट्ट, चरक ही हैं। बैदगी अब केवल जीविका के हेतु बची है।
 
काल के बल से औषधों के गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे!
 
हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे?
 
ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता करके पूजेंगे,
 
यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान् इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे बच्चों की जान लेंगे।
 
भारतदु. : तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा।
 
यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)
 
(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)
 
भारतदु. : बस, अब कुछ चिंता नहीं, चारों ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ बच सकता है।</big>
 
<big>(आलस्य का प्रवेश1)
 
आलस्य : हहा! एक पोस्ती ने कहा; पोस्ती ने पी पोस्त नै दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है।
 
एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे ओर उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा "भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।" सवार ने कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो।
 
तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुँह में डालने में यह आलस है!’’ दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।’’
 
सच है किस जिंदगी के वास्ते तकलीफ उठाना; मजे में हालमस्त पड़े रहना। सुख केवल हम में है ‘आलसी पड़े कुएँ में वहीं चैन है।’
 
(गाता है)
 
(गश्जल)
 
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
 
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।।
 
बिस्तर प मिस्ले लोथ पडे़ रहना हमेशा।
 
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।
 
”रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।“
 
छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।।
 
उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।
 
‘‘मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।
 
धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
 
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।
 
सिर भारी चीज है इस तकलीफ हो तो हो।
 
पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा ।।
 
फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
 
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा ।।
 
सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
 
दोजष्ख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।
 
मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
 
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।</big>
 
<big>और क्या। काजी जो दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे ‘कोउ नृप होउ हमें का हानी, चैरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।’ आनंद से जन्म बिताना। ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।’
 
जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?’ भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना,
 
न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर।
 
‘तवंगरी बदिलस्त न बमाल।’ दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त
 
(भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?
 
भारतदु. : तुम्हारे और साथी सब हिंदुस्तान की ओर भेजे गए हैं।, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जोगनिंद्रा से सब को अपने वश में करो।
 
आलस्य : बहुत अच्छा। (आप ही आप) आह रे बप्पा! अब हिंदुस्तान में जाना पड़ा। तब चलो धीरे-धीरे चलें। हुक्म न मानेंगे तो लोग कहेंगे ‘सर सरबसखाई भोग करि नाना समरभूमि भा दुरलभ प्राना।’
 
अरे करने को दैव आप ही करेगा, हमारा कौन काम है, पर चलें।
 
(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)
 
(मदिरा आती है)</big>
 
<big>मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई।
 
स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई।
 
तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन।
 
भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं।
 
फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्रा भूषण हैं।</big>
 
<big>दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
 
वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम ।।
 
जाति सुरा विद्या सुरा, बिनु मद रहै न कोय।
 
सुधरी आजादी सुरा, जगत् सुरामय होय ।।
 
ब्राह्मण क्षत्राी वैश्य अरू, सैयद सेख पठान।
 
दै बताइ मोहि कौन जो, करत न मदिरा पान ।।
 
पियत भट्ट के ठट्ट अरु, गुजरातिन के वृंद।
 
गौतम पियत अनंद सों, पियत अग्र के नंद ।।
 
होटल में मदिरा पिएँ, चोट लगे नहिं लाज।
 
लोट लए ठाढे़ रहत, टोटल दैवे काज ।।
 
कोउ कहत मद नहिं पिएँ, तो कछु लिख्यों न जाय।
 
कोउ कहत हम मद्य बल, करत वकीली आय ।।
 
मद्यहि के परभाव सों, रचन अनेकन ग्रंथ।
 
मद्यहि के परकास सों, लखत धरम को पंथ ।।
 
मद पी विधिजग को करत, पालत हरि करि पान।
 
मद्यहि पी कै नाश सब, करत शंभु भगवान् ।।
 
विष्णु बारूणी, पोर्ट पुरुषोत्तम, मद्य मुरारि।
 
शांपिन शिव गौड़ी गिरिश, ब्रांड़ी ब्रह्म बिचारि ।।
 
मेरी तो धन बुद्धि बल, कुल लज्जा पति गेह।
 
माय बाप सुत धर्म सब, मदिरा ही न सँदेह ।।
 
सोक हरन आनँद करन, उमगावन सब गात।
 
हरि मैं तपबिनु लय करनि, केवल मद्य लखात ।।
 
सरकारहि मंजूर जो मेरा होत उपाय।
 
तो सब सों बढ़ि मद्य पै देती कर बैठाय ।।
 
हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।
 
कीर्ति खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर सति भान ।।
 
राजमहल के चिन्ह नहिं, मिलिहैं जग इत कोय।
 
तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय ।।</big>
 
<big>हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते हैं ‘प्रवृत्तिरेषा भूतानां’ और भागवत में कहा है ‘लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्य यास्ति जंतोः।’ उसपर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्यमूलसूत्रा हूँ।
 
विषयेंद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत साहित्य की तो एकमात्रा जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?
 
(गाती है)</big>
 
<big>(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)
 
मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।
 
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात ।।
 
पी प्याला छक छक आनँद से नितहि साँझ और प्रात।
 
झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात ।।
 
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिए लखात।
 
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात ।।
 
(राजा को देखकर) महाराज! कहिए क्या हुक्म है?
 
भारतदु. : हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान में भेजे हैं। परंतु मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी और किसी से नहीं है। जरा तुम भी हिंदुस्तान की तरफ जाओ और हिंदुओं से समझो तो।
 
मदिरा : हिंदुओं के तो मैं मुद्दत से मुँहलगी हँू, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल फैलाऊँगी और छोटे बडे़ सबके गले का हार बन जाऊँगी। (जाती है)
 
(रंगशाला के दीपों में से अनेक बुझा दिए जायँगे)
 
(अंधकार का प्रवेश)
 
(आँधी आने की भाँति शब्द सुनाई पड़ता है)
 
अंधकार : (गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है)
 
(राग काफी)
 
जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।
 
अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की ।।
 
कलह अविद्या मोह मूढ़ता सवै नास के साज की ।।</big>
 
<big>हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्रा जीवन हैं। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्रा, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है।
 
हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्रा हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध हैं।
 
सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) महाराज की जय हो, कहिए क्या अनुमति है?
 
भारतदु. : आओ मित्र! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारत विजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।
 
अंध. : आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।
 
भारतदु. : नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रोता, द्वापर है।
 
अंध. : नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा? गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायेगी।
 
भारतदु. : हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस ‘बहुत बुझाई तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।’
 
अंध : बहुत अच्छा, मैं चला। बस जाते ही देखिए क्या करता हूँ। (नेपथ्य में बैतालिक गान और गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप)
 
निहचै भारत को अब नास।
 
जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास ।।
 
अब कहुँ सरन तिन्हैं नहिं मिलिहै ह्नै है सब बल चूर।
 
बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहैं धूर ।।
 
अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु व्यास।
 
करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहे अब आस ।।
 
सेवाजी रनजीत सिंह हू अब नहिं बाकी जौन।
 
करिहैं वधू नाम भारत को अब तो नृप मौन ।।
 
वही उदैपुर जैपुर रीवाँ पन्ना आदिक राज।
 
परबस भए न सोच सकहिं कुछ करि निज बल बेकाज ।।
 
अँगरेजहु को राज पाइकै रहे कूढ़ के कूढ़।
 
स्वारथपर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब ह्नै मूढ़ ।।
 
जग के देस बढ़त बदि बदि के सब बाजी जेहि काल।
 
ताहू समय रात इनकी है ऐसे ये बेहाल ।।
 
छोटे चित अति भीरु बुद्धि मन चंचल बिगत उछाह।
 
उदर-भरन-रत, ईसबिमुख सब भए प्रजा नरनाह ।।
 
इनसों कुछ आस नहिं ये तो सब विधि बुधि-बल हीन।
 
बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन ।।
 
बोझ लादि कै पैर छानि कै निज सुख करहु प्रहार।
 
ये रासभ से कुछ नहिं कहिहैं मानहु छमा अगार ।।
 
हित अनहित पशु पक्षी जाना’ पै ये जानहिं नाहिं।
 
भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं ।।
 
जे न सुनहिं हित, भलो करहिं नहिं तिनसों आसा कौन।
 
डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन ।।
 
(जवनिका गिरती है) </big>
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'''<big>पांचवां अंक </big>'''
 
 
<big>स्थान-किताबखाना
 
(सात सभ्यों की एक छोटी सी कमेटी; सभापति चक्करदार टोपी पहने,
 
चश्मा लगाए, छड़ी लिए; छह सभ्यों में एक बंगाली, एक महाराष्ट्र,
 
एक अखबार हाथ में लिए एडिटर, एक कवि और दो देशी महाशय)
 
सभापति : (खड़े होकर) सभ्यगण! आज की कमेटी का मुख्य उदेश्य यह है कि भारतदुर्दैव की, सुुना है कि हम लोगों पर चढ़ाई है। इस हेतु आप लोगों को उचित है कि मिलकर ऐसा उपाय सोचिए कि जिससे हम लोग इस भावी आपत्ति से बचें।
 
जहाँ तक हो सके अपने देश की रक्षा करना ही हम लोगों का मुख्य धर्म है। आशा है कि आप सब लोग अपनी अपनी अनुमति प्रगट करेंगे। (बैठ गए, करतलध्वनि)
 
बंगाली : (खड़े होकर) सभापति साहब जो बात बोला सो बहुत ठीक है। इसका पेशतर कि भारतदुर्दैव हम लोगों का शिर पर आ पड़े कोई उसके परिहार का उपाय सोचना अत्यंत आवश्यक है किंतु प्रश्न एई है जे हम लोग उसका दमन करने
 
शाकता कि हमारा बोज्र्जोबल के बाहर का बात है। क्यों नहीं शाकता? अलबत्त शकैगा, परंतु जो सब लोग एक मत्त होगा। (करतलध्वनि) देखो हमारा बंगाल में इसका अनेक उपाय साधन होते हैं।
 
ब्रिटिश इंडियन ऐसोशिएशन लीग इत्यादि अनेक शभा भ्री होते हैं। कोई थोड़ा बी बात होता हम लोग मिल के बड़ा गोल करते। गवर्नमेंट तो केवल गोलमाल शे भय खाता। और कोई तरह नहीं शोनता।
 
ओ हुँआ आ अखबार वाला सब एक बार ऐसा शोर करता कि गवेर्नमेंट को अलबत्ता शुनने होता। किंतु हेंयाँ, हम देखते हैं कोई कुछ नहीं बोलता। आज शब आप सभ्य लोग एकत्रा हैं, कुछ उपाय इसका अवश्य सोचना चाहिए। (उपवेशन)।
 
प. देशी : (धीरे से) यहीं, मगर जब तक कमेटी में हैं तभी तक। बाहर निकले कि फिर कुछ नहीं।
 
दू. देशी : ख्धीरे से, क्यों भाई साहब; इस कमेटी में आने से कमिश्नर हमारा नाम तो दरबार से खारिज न कर देंगे?
 
एडिटर : (खडे़ होकर) हम अपने प्राणपण से भारत दुर्दैव को हटाने को तैयार हैं। हमने पहिले भी इस विषय में एक बार अपने पत्रा में लिखा था परंतु यहां तो कोई सुनता ही नहीं। अब जब सिर पर आफत आई सो आप लोग उपाय सोचने लगे।
 
भला अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है जो कुछ सोचना हो जल्द सोचिए। (उपवेशन)</big>
 
<big>कवि : (खडे़ होकर) मुहम्मदशाह ने भाँड़ों ने दुश्मन को फौज से बचने का एक बहुत उत्तम उपाय कहा था। उन्होंने बतलाया कि नादिरशाह के मुकाबले में फौज न भेजी जाय।
 
जमना किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने लगें, कनात के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ‘‘मुए इधर न आइयो इधर जनाने हैं’’।
 
बस सब दुश्मन हट जायँगे। यही उपाय भारतदुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
 
बंगाली : (खड़े होकर) अलबत, यह भी एक उपाय है किंतु असभ्यगण आकर जो स्त्री लोगों का विचार न करके सहसा कनात को आक्रमण करेगा तो? (उपवेशन)
 
एडि. : (खड़े होकर) हमने एक दूसरा उपाय सोचा है, एडूकेशन की एक सेना बनाई जाय। कमेटी की फौज। अखबारों के शस्त्रा और स्पीचों के गोले मारे जायँ। आप लोग क्या कहते हैं? (उपवेशन)
 
दू. देशी : मगर जो हाकिम लोग इससे नाराज हों तो? (उपवेशन)
 
बंगाली : हाकिम लोग काहे को नाराज होगा। हम लोग शदा चाहता कि अँगरेजों का राज्य उत्पन्न न हो, हम लोग केवल अपना बचाव करता। (उपवेशन)
 
महा. : परंतु इसके पूर्व यह होना अवश्य है कि गुप्त रीति से यह बात जाननी कि हाकिम लोग भारतदुर्दैव की सैन्य से मिल तो नहीं जायँगे।
 
दू. देशी : इस बात पर बहस करना ठीक नहीं। नाहक कहीं लेने के देने न पड़ें, अपना काम देखिए (उपवेशन और आप ही आप) हाँ, नहीं तो अभी कल ही झाड़बाजी होय।
 
महा. : तो सार्वजनिक सभा का स्थापन करना। कपड़ा बीनने की कल मँगानी। हिदुस्तानी कपड़ा पहिनना। यह भी सब उपाय हैं।
 
दू. देशी : (धीरे से)-बनात छोड़कर गंजी पहिरेंगे, हें हें।
 
एडि. : परंतु अब समय थोड़ा है जल्दी उपाय सोचना चाहिए।
 
कवि : अच्छा तो एक उपाय यह सोचो कि सब हिंदू मात्रा अपना फैशन छोड़कर कोट पतलून इत्यादि पहिरें जिसमें सब दुर्दैव की फौज आवे तो हम लोगों को योरोपियन जानकर छोड़ दें।
 
प. देशी : पर रंग गोरा कहाँ से लावेंगे?</big>
 
<big>बंगाली : हमारा देश में भारत उद्धार नामक एक नाटक बना है। उसमें अँगरेजों को निकाल देने का जो उपाय लिखा, सोई हम लोग दुर्दैव का वास्ते काहे न अवलंबन करें। ओ लिखता पाँच जन बंगाली मिल के अँगरेजों को निकाल देगा।
 
उसमें एक तो पिशान लेकर स्वेज का नहर पाट देगा। दूसरा बाँस काट काट के पवरी नामक जलयंत्रा विशेष बनावेगा। तीसरा उस जलयंत्रा से अंगरेजों की आँख में धूर और पानी डालेगा।
 
महा. : नहीं नहीं, इस व्यर्थ की बात से क्या होना है। ऐसा उपाय करना जिससे फल सिद्धि हो।
 
प. देशी : (आप ही आप) हाय! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित हो विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो। क्रमशः सब कुछ हो जायेगा।
 
एडि. : आप लोग नाहक इतना सोच करते हैं, हम ऐसे ऐसे आर्टिकिल लिखेंगे कि उसके देखते ही दुर्दैव भागेगा।
 
कवि : और हम ऐसी ही ऐसी कविता करेंगे।
 
प. देशी : पर उनके पढ़ने का और समझने का अभी संस्कार किसको है?
 
(नेपथ्य में से)
 
भागना मत, अभी मैं आती हूँ।
 
(सब डरके चैकन्ने से होकर इधर उधर देखते हैं)
 
दू. देशी : (बहुत डरकर) बाबा रे, जब हम कमेटी में चले थे तब पहिले ही छींक हुई थी। अब क्या करें। (टेबुल के नीचे छिपने का उद्योग करता है)
 
(डिसलायलटी1 का प्रवेश)
 
सभापति : (आगे से ले आकर बड़े शिष्टाचार से) आप क्यों यहाँ तशरीफ लाई हैं? कुछ हम लोग सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार की सम्मति करने को नहीं एकत्रा हुए हैं। हम लोग अपने देश की भलाई करने को एकत्रा हुए हैं।
 
डिसलायलटी: नहीं, नहीं, तुम सब सरकार के विरुद्ध एकत्रा हुए हो, हम तुमको पकडे़ंगे।
 
बंगाली : (आगे बढ़कर क्रोध से) काहे को पकडे़गा, कानून कोई वस्तु नहीं है। सरकार के विरुद्ध कौन बात हम लोग बाला? व्यर्थ का विभीषिका!
 
डिस. : हम क्या करें, गवर्नमेंट की पालिसी यही है। कवि वचन सुधा नामक पत्रा में गवर्नमेंट के विरुद्ध कौन बात थी? फिर क्यों उसे पकड़ने को हम भेजे गए? हम लाचार हैं।
 
दू. देशी : (टेबुल के नीचे से रोकर) हम नहीं, हम नहीं, तमाशा देखने आए थे।
 
महा. : हाय हाय! यहाँ के लोग बड़े भीरु और कापुरूष हैं। इसमें भय की कौन बात है! कानूनी है।
 
सभा. : तो पकड़ने का आपको किस कानून से अधिकार है?
 
डिस. : इँगलिश पालिसी नामक ऐक्ट के हाकिमेच्छा नामक दफा से।
 
महा. : परंतु तुम?
 
दू. देशी : (रोकर) हाय हाय! भटवा तुम कहता है अब मरे।
 
महा. : पकड़ नही सकतीं, हमको भी दो हाथ दो पैर है। चलो हम लोग तुम्हारे संग चलते हैं, सवाल जवाब करेंगे।
 
बंगाली : हाँ चलो, ओ का बात-पकड़ने नहीं शेकता।
 
सभा. : (स्वगत) चेयरमैन होने से पहिले हमीं को उत्तर देना पडे़गा, इसी से किसी बात में हम अगुआ नहीं होते।
 
डिस : अच्छा चलो। (सब चलने की चेष्टा करते हैं)
 
(जवनिका गिरती है) </big>
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'''<big>छठा अंक</big>'''
 
 
 
<big>स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग
 
(भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है)
 
(भारतभाग्य का प्रवेश)
 
भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी)
 
जागो जागो रे भाई।
 
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।।
 
निसि की कौन कहै दिन बीत्यो काल राति चलि आई।
 
देखि परत नहि हित अनहित कछु परे बैरि बस जाई ।।
 
निज उद्धार पंथ नहिं सूझत सीस धुनत पछिताई।
 
अबहुँ चेति, पकारि राखो किन जो कुछ बची बड़ाई ।।
 
फिर पछिताए कुछ नहिं ह्नै है रहि जैहौ मुँह बाई।
 
जागो जागो रे भाई ।।
 
(भारत को जगाता है और भारत जब नहीं जागता तब अनेक यत्न से फिर जगाता है, अंत में हारकर उदास होकर)
 
हाय! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निःस्संदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है? हाय क्या अब भारत के फिर वे दिन न आवेंगे? हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
 
भारत के भुजबल जग रक्षित।
 
भारतविद्या लहि जग सिच्छित ।।
 
भारततेज जगत बिस्तारा।
 
भारतभय कंपत संसारा ।।
 
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
 
थर थर कंपत नृप डरपाए ।।
 
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
 
गावत सब महि मंगल साथा ।।
 
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
 
भारतजीव जिअत संसारा ।।
 
भारतवेद कथा इतिहासा।
 
भारत वेदप्रथा परकासा ।।
 
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
 
भे पंडित लहि भारत दाना ।।
 
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
 
ज्वलित अनल समान अवनीसा ।।
 
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
 
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं ।।
 
कहा करी तकसीर तिहारी।
 
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी ।।
 
सबै सुखी जग के नर नारी।
 
रे विधना भारत हि दुखारी ।।
 
हाय रोम तू अति बड़भागी।
 
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी ।।
 
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
 
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन ।।
 
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
 
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए ।।
 
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
 
सो बरु मेरे मन अति मानी ।।
 
भारत भाग न जात निहारे।
 
थाप्यो पग ता सीस उधारे ।।
 
तोरîो दुर्गन महल ढहायो।
 
तिनहीं में निज गेह बनायो ।।
 
ते कलंक सब भारत केरे।
 
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे ।।
 
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
 
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी ।।
 
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
 
रही सबै भुव मुँह मसि लाई ।।
 
हाय पंचनद हा पानीपत।
 
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।।
 
हाय चितौर निलज तू भारी।
 
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी ।।
 
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
 
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो ।।
 
रह्यो कलंक न भारत नामा।
 
क्यों रे तू बारानसि धामा ।।
 
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
 
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो ।।
 
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
 
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा ।।
 
पापिनि सरजू नाम धराई।
 
अजहुँ बहत अवधतट जाई ।।
 
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
 
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा ।।
 
धोवहु यह कलंक की रासी।
 
बोरहु किन झट मथुरा कासी ।।
 
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
 
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।।
 
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
 
मिटै करक जिय की तब मेरे ।।
 
अहो भयानक भ्राता सागर।
 
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर ।।
 
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
 
पै बिसरे भारत हित जाना ।।
 
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
 
देहु भारत भुव तुरत डुबाई ।।
 
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
 
करहु सफल भीतर तुम लय ।।
 
धोवहु भारत अपजस पंका।
 
मेटहु भारतभूमि कलंका ।।
 
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
 
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
 
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई ।।
 
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
 
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती ।।
 
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
 
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे ।।
 
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
 
करते अमृतोपम वेद गान ।।
 
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
 
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद ।।
 
जग के सबही जन धारि स्वाद।
 
सुनते इन्हीं को बीन नाद ।।
 
इनके गुन होतो सबहि चैन।
 
इनहीं कुल नारद तानसैन ।।
 
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
 
सब काँपत भूमंडल अकास ।।
 
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
 
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर ।।
 
जब लेत रहे कर में कृपान।
 
इनहीं कहँ हो जग तृन समान ।।
 
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
 
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं ।।
 
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
 
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।।
 
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
 
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।।
 
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
 
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।।
 
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
 
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास ।।
 
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
 
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय ।।
 
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
 
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।।
 
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
 
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान ।।
 
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
 
वही वासना चित वही आसय वही विलास ।।
 
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
 
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर ।।
 
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
 
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय ।।</big>
 
<big>(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)
 
हा! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इसके उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा दैव! तेरे विचित्रा चरित्रा हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका उधार लगवाता है।
 
कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा
 
और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे थे आज उन घरों में तूने दिया बोलनेवाला भी नहीं छोड़ा।
 
हा! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों के नाममात्रा से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा!
 
जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्रा के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा!
 
हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना।
 
विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्राी की विधि!
 
ही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे?
 
उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है!
 
किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा!
 
जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा कृतघ्न हूँ!
 
(रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता।
 
इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सर्वान्तर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।
 
(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)
 
भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या; बस यह लो।
 
'''(कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन)''' </big>
 
 
 
 
 
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===नीलदेवी (१८८१,प्रहसन)===
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=== [[अंधेर नगरी]] (१८८१ ===
 
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'''<big>ग्रन्थ बनने का कारण।</big>'''
 
<big>बनारस में बंगालियों और हिन्दुस्तानियों ने मिलकर एक छोटा सा नाटक समाज दशाश्वमेध घाट पर नियत किया है, जिसका नाम हिंदू नैशनल थिएटर है। दक्षिण में पारसी और महाराष्ट्र नाटक वाले प्रायः अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते हैं, किन्तु उन लोगों की भाषा और प्रक्रिया सब असंबद्ध होती है। ऐसा ही इन थिएटर वालों ने भी खेलना चाहा था और अपने परम सहायक भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से अपना आशय प्रकट किया। बाबू साहब ने यह सोचकर कि बिना किसी काव्य कल्पना के व बिना कोई उत्तम शिक्षा निकले जो नाटक खेला ही गया तो इसका फल क्या, इस कथा को काव्य में बाँध दिया। यह प्रहसन पूर्वोक्त बाबू साहब ने उस नाटक के पात्रों के अवस्थानुसार एक ही दिन में लिख दिया है। आशा है कि परिहासप्रिय रसिक जन इस से परितुष्ट होंगे। इति।
</big>
 
<big>श्री रामदीन सिंह</big>
 
 
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'''<big>समर्पण</big>'''
 
 
<big>मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए।
 
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए ॥
 
 
जे स्वारथ रत धूर्त हंस से काक-चरित-रत।
 
ते औरन हति बंचि प्रभुहि नित होहिं समुन्नत ॥
 
 
जदपि लोक की रीति यही पै अन्त धम्म जय।
 
जौ नाहीं यह लोक तदापि छलियन अति जम भय ॥
 
 
नरसरीर में रत्न वही जो परदुख साथी।
 
खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी ॥
 
 
तासों अब लौं करो, करो सो, पै अब जागिय।
 
गो श्रुति भारत देस समुन्नति मैं नित लागिय ॥
 
 
साँच नाम निज करिय कपट तजि अन्त बनाइय।
 
नृप तारक हरि पद साँच बड़ाई पाइय ॥
</big>
 
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'''<big>ग्रन्थकार</big>'''
 
<big>छेदश्चन्दनचूतचंपकवने रक्षा करीरद्रुमे
 
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः
 
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासियो:
 
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः</big></big>
 
 
 
 
 
 
 
 
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<big>
 
<big>
 
<big>अंधेर नगरी चौपट्ट राजा
 
<big>टके सेर भाजी टके सेर खाजा
 
 
 
'''प्रथम दृश्य'''
 
'''(वाह्य प्रान्त)'''
 
(महन्त जी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)
 
सब : राम भजो राम भजो राम भजो भाई।
 
राम के भजे से गनिका तर गई,
 
राम के भजे से गीध गति पाई।
 
राम के नाम से काम बनै सब,
 
राम के भजन बिनु सबहि नसाई ॥
 
राम के नाम से दोनों नयन बिनु
 
सूरदास भए कबिकुलराई।
 
राम के नाम से घास जंगल की,
 
तुलसी दास भए भजि रघुराई ॥
 
महन्त : बच्चा नारायण दास! यह नगर तो दूर से बड़ा सुन्दर दिखलाई पड़ता है! देख, कुछ भिच्छा उच्छा मिलै तो ठाकुर जी को भोग लगै। और क्या।
 
ना. दा : गुरु जी महाराज! नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो सो, पर भिक्षा सुन्दर मिलै तो बड़ा आनन्द होय।
 
महन्त : बच्चा गोवरधन दास! तू पश्चिम की ओर से जा और नारायण दास पूरब की ओर जायगा। देख, जो कुछ सीधा सामग्री मिलै तो श्री शालग्राम जी का बालभोग सिद्ध हो।
 
गो. दा : गुरु जी! मैं बहुत सी भिच्छा लाता हूँ। यहाँ लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिन्ता मत कीजिए।
 
महंत : बच्चा बहुत लोभ मत करना। देखना, हाँ।-
 
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान।
 
लोभ कभी नहीं कीजिए, यामैं नरक निदान ॥
 
(गाते हुए सब जाते हैं)
 
 
 
'''दूसरा दृश्य'''
 
'''(बाजार)'''
 
 
कबाबवाला : कबाब गरमागरम मसालेदार-चैरासी मसाला बहत्तर आँच का-कबाब गरमागरम मसालेदार-खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै। कबाब लो, कबाब का ढेर-बेचा टके सेर।
 
घासीराम : चने जोर गरम-
 
चने बनावैं घासीराम।
 
चना चुरमुर चुरमुर बौलै।
 
चना खावै तौकी मैना।
 
चना खायं गफूरन मुन्ना।
 
चना खाते सब बंगाली।
 
चना खाते मियाँ- जुलाहे।
 
चना हाकिम सब जो खाते।
 
चने जोर गरम-टके सेर।
 
नरंगीवाली : नरंगी ले नरंगी-सिलहट की नरंगी, बुटबल की नरंगी, रामबाग की नरंगी, आनन्दबाग की नरंगी। भई नीबू से नरंगी। मैं तो पिय के रंग न रंगी। मैं तो भूली लेकर संगी। नरंगी ले नरंगी। कैवला नीबू, मीठा नीबू, रंगतरा संगतरा। दोनों हाथों लो-नहीं पीछे हाथ ही मलते रहोगे। नरंगी ले नरंगी। टके सेर नरंगी।
 
हलवाई : जलेबियां गरमा गरम। ले सेब इमरती लड्डू गुलाबजामुन खुरमा बुंदिया बरफी समोसा पेड़ा कचैड़ी दालमोट पकौड़ी घेवर गुपचुप। हलुआ हलुआ ले हलुआ मोहनभोग। मोयनदार कचैड़ी कचाका हलुआ नरम चभाका। घी में गरक चीनी में तरातर चासनी में चभाचभ। ले भूरे का लड्डू। जो खाय सो भी पछताय जो न खाय सो भी पछताय। रेबडी कड़ाका। पापड़ पड़ाका। ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तिस कौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विलसन मन्दिर के भितरिए, वैसे अंधेर नगरी के हम। सब समान ताजा। खाजा ले खाजा। टके सेर खाजा।
 
कुजड़िन : ले धनिया मेथी सोआ पालक चैराई बथुआ करेमूँ नोनियाँ कुलफा कसारी चना सरसों का साग। मरसा ले मरसा। ले बैगन लौआ कोहड़ा आलू अरूई बण्डा नेनुआँ सूरन रामतरोई तोरई मुरई ले आदी मिरचा लहसुन पियाज टिकोरा। ले फालसा खिरनी आम अमरूद निबुहा मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी। ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर।
 
मुगल : बादाम पिस्ते अखरोट अनार विहीदाना मुनक्का किशमिश अंजीर आबजोश आलूबोखारा चिलगोजा सेब नाशपाती बिही सरदा अंगूर का पिटारी। आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत खट्टा ओ गया। नाहक को रुपया खराब किया। हिन्दोस्तान का आदमी लक लक हमारे यहाँ का आदमी बुंबक बुंबक लो सब मेवा टके सेर।
 
पाचकवाला :
 
चूरन अमल बेद का भारी। जिस को खाते कृष्ण मुरारी ॥
 
मेरा पाचक है पचलोना।
 
चूरन बना मसालेदार।
 
मेरा चूरन जो कोई खाय।
 
हिन्दू चूरन इस का नाम।
 
चूरन जब से हिन्द में आया।
 
चूरन ऐसा हट्टा कट्टा।
 
चूरन चला डाल की मंडी।
 
चूरन अमले सब जो खावैं।
 
चूरन नाटकवाले खाते।
 
चूरन सभी महाजन खाते।
 
चूरन खाते लाला लोग।
 
चूरन खावै एडिटर जात।
 
चूरन साहेब लोग जो खाता।
 
चूरन पूलिसवाले खाते।
 
ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर ॥
 
मछलीवाली : मछली ले मछली।
 
मछरिया एक टके कै बिकाय।
 
लाख टका के वाला जोबन, गांहक सब ललचाय।
 
नैन मछरिया रूप जाल में, देखतही फँसि जाय।
 
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिले बिना अकुलाय।
 
जातवाला : (ब्राह्मण)।-जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहाण से धोबी हो जाँय और धोबी को ब्राह्मण कर दें टके के वास्ते जैसी कही वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचैं, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानै, बेचैं, टके वास्ते नीच को भी पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।
 
बनिया : आटा- दाल लकड़ी नमक घी चीनी मसाला चावल ले टके सेर।
 
(बाबा जी का चेला गोबर्धनदास आता है और सब बेचनेवालों की आवाज सुन सुन कर खाने के आनन्द में बड़ा प्रसन्न होता है।)
 
गो. दा. : क्यों भाई बणिये, आटा कितणे सेर?
 
बनियां : टके सेर।
 
गो. दा. : औ चावल?
 
बनियां : टके सेर।
 
गो. दा. : औ चीनी?
 
बनियां : टके सेर।
 
गो. दा. : औ घी?
 
बनियां : टके सेर।
 
गो. दा. : सब टके सेर। सचमुच।
 
बनियां : हाँ महाराज, क्या झूठ बोलूंगा।
 
गो. दा. : (कुंजड़िन के पास जाकर) क्यों भाई, भाजी क्या भाव?
 
कुंजड़िन : बाबा जी, टके सेर। निबुआ मुरई धनियां मिरचा साग सब टके सेर।
 
गो. दा. : सब भाजी टके सेर। वाह वाह! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीज टके सेर। (हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई हलवाई? मिठाई कितणे सेर?
 
हलवाई : बाबा जी! लडुआ हलुआ जलेबी गुलाबजामुन खाजा सब टके सरे।
 
गो. दा. : वाह! वाह!! बड़ा आनन्द है? क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर?
 
हलवाई : हां बाबा जी, सचमुच सब टके सेर? इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर बिकती है।
 
गो. दा. : क्यों बच्चा! इस नगर का नाम क्या है?
 
हलवाई : अंधेरनगरी।
 
गो. दा. : और राजा का क्या नाम है?
 
हलवाई : चौपट राजा।
 
गौ. दा. : वाह! वाह! अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा (यही गाता है और आनन्द से बिगुल बजाता है)।
 
हलवाई : तो बाबा जी, कुछ लेना देना हो तो लो दो।
 
गो. दो. : बच्चा, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरु चेले सब आनन्दपूर्वक इतने में छक जायेंगे।
 
(हलवाई मिठाई तौलता है-बाबा जी मिठाई लेकर खाते हुए और अंधेर नगरी गाते हुए जाते हैं।)
 
(पटाक्षेप)
 
 
 
'''तीसरा दृश्य'''
 
'''(स्थान जंगल)'''
 
 
(महन्त जी और नारायणदास एक ओर से 'राम भजो इत्यादि गीत गाते हुए आते हैं और एक ओर से गोबवर्धनदास अन्धेरनगरी गाते हुए आते हैं')
 
महन्त : बच्चा गोवर्धन दास! कह क्या भिक्षा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।
 
गो. दा. : बाबा जी महाराज! बड़े माल लाया हँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।
 
महन्त : देखूँ बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रख कर खोल कर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?
 
गो. दा. : गुरूजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।
 
महन्त : बच्चा! नारायण दास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, वह कौन सी नगरी है और इसका कौन सा राजा है, जहां टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है?
 
गो. दा. : अन्धेरनगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
 
महन्त : तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हो।
 
दोहा : सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
 
ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै बास ॥
 
कोकिला बायस एक सम, पंडित मूरख एक।
 
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु ॥
 
बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
 
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥
 
सो बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अन्धेरनगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त की मिलै तो किस काम की? यहाँ एक छन नहीं रहना।
 
गो. दा. : गुरू जी, ऐसा तो संसार भर में कोई देस ही नहीं हैं। दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़ कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मांगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यही रहूँगा।
 
महन्त : देख बच्चा, पीछे पछतायगा।
 
गो. दा. : आपकी कृपा से कोई दुःख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।
 
महन्त : मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूंगा। देख मेरी बात मान नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूं, पर इतना कहे जाता हूं कि कभी संकट पड़ै तो हमारा स्मरण करना।
 
गो. दा. : प्रणाम गुरु जी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूं कि आप भी यहीं रहिए।
 
महन्त जी नारायण दास के साथ जाते हैं; गोवर्धन दास बैठकर मिठाई खाता है।,
 
(पटाक्षेप)
 
 
 
'''चौथा दृश्य'''
 
'''(राजसभा)'''
 
(राजा, मन्त्री और नौकर लोग यथास्थान स्थित हैं)
 
१ सेवक : (चिल्लाकर) पान खाइए महाराज।
 
राजा : (पीनक से चैंक घबड़ाकर उठता है) क्या? सुपनखा आई ए महाराज। (भागता है)।
 
मन्त्री : (राजा का हाथ पकड़कर) नहीं नहीं, यह कहता है कि पान खाइए महाराज।
 
राजा : दुष्ट लुच्चा पाजी! नाहक हमको डरा दिया। मन्त्री इसको सौ कोडे लगैं।
 
मन्त्री : महाराज! इसका क्या दोष है? न तमोली पान लगाकर देता, न यह पुकारता।
 
राजा : अच्छा, तमोली को दो सौ कोड़े लगैं।
 
मन्त्री : पर महाराज, आप पान खाइए सुन कर थोडे ही डरे हैं, आप तो सुपनखा के नाम से डरे हैं, सुपनखा की सजा हो।
 
राजा : (घबड़ाकर) फिर वही नाम? मन्त्री तुम बड़े खराब आदमी हो। हम रानी से कह देंगे कि मन्त्री बेर बेर तुमको सौत बुलाने चाहता है। नौकर! नौकर! शराब।
 
२ नौकर : (एक सुराही में से एक गिलास में शराब उझल कर देता है।) लीजिए महाराज। पीजिए महाराज।
 
राजा : (मुँह बनाकर पीता है) और दे।
 
(नेपथ्य में-दुहाई है दुहाई-का शब्द होता है।)
 
कौन चिल्लाता है-पकड़ लाओ।
 
(दो नौकर एक फरियादी को पकड़ लाते हैं)
 
फ. : दोहाई है महाराज दोहाई है। हमारा न्याव होय।
 
राजा : चुप रहो। तुम्हारा न्याव यहाँ ऐसा होगा कि जैसा जम के यहाँ भी न होगा। बोलो क्या हुआ?
 
फ. : महाराजा कल्लू बनिया की दीवार गिर पड़ी सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। दोहाई है महाराज न्याय हो।
 
राजा : (नौकर से) कल्लू बनिया की दीवार को अभी पकड़ लाओ।
 
मन्त्राी : महाराज, दीवार नहीं लाई जा सकती।
 
राजा : अच्छा, उसका भाई, लड़का, दोस्त, आशना जो हो उसको पकड़ लाओ।
 
मन्त्राी : महाराज! दीवार ईंट चूने की होती है, उसको भाई बेटा नहीं होता।
 
राजा : अच्छा कल्लू बनिये को पकड़ लाओ।
 
(नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाते हैं) क्यों बे बनिए! इसकी लरकी, नहीं बरकी क्यों दबकर मर गई?
 
मन्त्री : बरकी नहीं महाराज, बकरी।
 
राजा : हाँ हाँ, बकरी क्यों मर गई-बोल, नहीं अभी फाँसी देता हूँ।
 
कल्लू : महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाया कि गिर पड़ी।
 
राजा : अच्छा, इस मल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ। (कल्लू जाता है, लोग कारीगर को पकड़ लाते हैं) क्यों बे कारीगर! इसकी बकरी किस तरह मर गई?
 
कारीगर : महाराज, मेरा कुछ कसूर नहीं, चूनेवाले ने ऐसा बोदा बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
 
राजा : अच्छा, इस कारीगर को बुलाओ, नहीं नहीं निकालो, उस चूनेवाले को बुलाओ।
 
(कारीगर निकाला जाता है, चूनेवाला पकड़कर लाया जाता है) क्यों बे खैर सुपाड़ी चूनेवाले! इसकी कुबरी कैसे मर गई?
 
चूनेवाला : महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं, भिश्ती ने चूने में पानी ढेर दे दिया, इसी से चूना कमजोर हो गया होगा।
 
राजा : अच्छा चुन्नीलाल को निकालो, भिश्ती को पकड़ो। (चूनेवाला निकाला जाता है भिश्ती, भिश्ती लाया जाता है) क्यों वे भिश्ती! गंगा जमुना की किश्ती! इतना पानी क्यों दिया कि इसकी बकरी गिर पड़ी और दीवार दब गई।
 
भिश्ती : महाराज! गुलाम का कोई कसूर नहीं, कस्साई ने मसक इतनी बड़ी बना दिया कि उसमें पानी जादे आ गया।
 
राजा : अच्छा, कस्साई को लाओ, भिश्ती निकालो।
 
(लोग भिश्ती को निकालते हैं और कस्साई को लाते हैं)
 
क्यौं बे कस्साई मशक ऐसी क्यौं बनाई कि दीवार लगाई बकरी दबाई?
 
कस्साई : महाराज! गड़ेरिया ने टके पर ऐसी बड़ी भेंड़ मेरे हाथ बेंची की उसकी मशक बड़ी बन गई।
 
राजा : अच्छा कस्साई को निकालो, गड़ेरिये को लाओ।
 
(कस्साई निकाला जाता है गंडे़रिया आता है)
 
क्यों बे ऊखपौड़े के गंडेरिया। ऐसी बड़ी भेड़ क्यौं बेचा कि बकरी मर गई?
 
गड़ेरिया : महाराज! उधर से कोतवाल साहब की सवारी आई, सो उस के देखने में मैंने छोटी बड़ी भेड़ का ख्याल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं।
 
राजा : अच्छा, इस को निकालो, कोतवाल को अभी सरबमुहर पकड़ लाओ।
 
(गंड़ेरिया निकाला जाता है, कोतवाल पकड़ा जाता है) क्यौं बे कोतवाल! तैंने सवारी ऐसी धूम से क्यों निकाली कि गड़ेरिये ने घबड़ा कर बड़ी भेड़ बेचा, जिस से बकरी गिर कर कल्लू बनियाँ दब गया?
 
कोतवाल : महाराज महाराज! मैंने तो कोई कसूर नहीं किया, मैं तो शहर के इन्तजाम के वास्ते जाता था।
 
मंत्री : (आप ही आप) यह तो बड़ा गजब हुआ, ऐसा न हो कि बेवकूफ इस बात पर सारे नगर को फूँक दे या फाँसी दे। (कोतवाल से) यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यौं निकाली?
 
राजा : हाँ हाँ, यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी कयों निकाली कि उस की बकरी दबी।
 
कोतवाल : महाराज महाराज
 
राजा : कुछ नहीं, महाराज महाराज ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दो। दरबार बरखास्त।
 
(लोग एक तरफ से कोतवाल को पकड़ कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मंत्री को पकड़ कर राजा जाते हैं)
 
(पटाक्षेप)
 
 
 
'''पांचवां दृश्य'''
 
'''(अरण्य)'''
 
 
(गोवर्धन दास गाते हुए आते हैं)
 
(राग काफी)
 
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
 
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
 
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
 
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
 
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
 
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥
 
प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
 
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥
 
छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहिं लागे ॥
 
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिये बाहर रंग चटकारो ॥
 
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
 
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥
 
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
 
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥
 
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
 
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥
 
 
गुरु जी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है। पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम-भजन करना।
 
(मिठाई खाता है)
 
(चार प्यादे चार ओर से आ कर उस को पकड़ लेते हैं)
 
१. प्या. : चल बे चल, बहुत मिठाई खा कर मुटाया है। आज पूरी हो गई।
 
२. प्या. : बाबा जी चलिए, नमोनारायण कीजिए।
 
गो. दा. : (घबड़ा कर) हैं! यह आफत कहाँ से आई! अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हौ।
 
१. प्या. : आप ने बिगाड़ा है या बनाया है इस से क्या मतलब, अब चलिए। फाँसी चढ़िए।
 
गो. दा. : फाँसी। अरे बाप रे बाप फाँसी!! मैंने किस की जमा लूटी है कि मुझ को फाँसी! मैंने किस के प्राण मारे कि मुझ को फाँसी!
 
२. प्या. : आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फाँसी होती है।
 
गो. दा. : मोटे होने से फाँसी? यह कहां का न्याय है! अरे, हंसी फकीरों से नहीं करनी होती।
 
१. प्या. : जब सूली चढ़ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हंसी है कि सच। सीधी राह से चलते हौ कि घसीट कर ले चलें?
 
गो. दा. : अरे बाबा, क्यों बेकसूर का प्राण मारते हौ? भगवान के यहाँ क्या जवाब दोगे?
 
१. प्या. : भगवान् को जवाब राजा देगा। हम को क्या मतलब। हम तो हुक्मी बन्दे हैं।
 
गो. दा. : तब भी बाबा बात क्या है कि हम फकीर आदमी को नाहक फाँसी देते हौ?
 
१. प्या. : बात है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुकुम हुआ था। जब फाँसी देने को उस को ले गए, तो फाँसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी की सजा होनी जरूर है, नहीं तो न्याव न होगा। इसी वास्ते तुम को ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें।
 
गो. दा. : तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता जो मुझ अनाथ फकीर को फाँसी देते हैं!
 
१. प्या. : इस में दो बात है-एक तो नगर भर में राजा के न्याव के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ैं तो वह न जानैं क्या बात बनावै कि हमी लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की तो दुर्दशा है, इस से तुम्हीं को फाँसी देंगे।
 
गो. दा. : दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ! अरे यहाँ बड़ा ही अन्धेर है, अरे गुरु जी महाराज का कहा मैंने न माना उस का फल मुझ को भोगना पड़ा। गुरु जी कहां हौ! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरु जी गुरु जी-
 
(गोबर्धन दास चिल्लाता है,
 
प्यादे लोग उस को पकड़ कर ले जाते हैं)
 
(पटाक्षेप)
 
 
 
'''छठा दृश्य'''
 
'''(स्थान श्मशान)'''
 
 
(गोबर्धन दास को पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)
 
गो. दा. : हाय बाप रे! मुझे बेकसूर ही फाँसी देते हैं। अरे भाइयो, कुछ तो धरम विचारो! अरे मुझ गरीब को फाँसी देकर तुम लोगों को क्या लाभ होगा? अरे मुझे छोड़ दो। हाय! हाय! (रोता है और छुड़ाने का यत्न करता है)
 
१ सिपाही : अबे, चुप रह-राजा का हुकुम भला नहीं टल सकता है? यह तेरा आखिरी दम है, राम का नाम ले-बेफाइदा क्यों शोर करता है? चुप रह-
 
गो. दा. : हाय! मैं ने गुरु जी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरु जी ने कहा था कि ऐसे-नगर में न रहना चाहिए, यह मैंने न सुना! अरे! इस नगर का नाम ही अंधेरनगरी और राजा का नाम चौपट्ट है, तब बचने की कौन आशा है। अरे! इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है जो फकीर को बचावै। गुरु जी! कहाँ हौ? बचाओ-गुरुजी-गुरुजी-(रोता है, सिपाही लोग उसे घसीटते हुए ले चलते हैं)
 
(गुरु जी और नारायण दास आरोह)
 
गुरु. : अरे बच्चा गोबर्धन दास! तेरी यह क्या दशा है?
 
गो. दा. : (गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी! दीवार के नीचे बकरी दब गई, सो इस के लिये मुझे फाँसी देते हैं, गुरु जी बचाओ।
 
गुरु. : अरे बच्चा! मैंने तो पहिले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, तैंने मेरा कहना नहीं सुना।
 
गो. दा. : मैंने आप का कहा नहीं माना, उसी का यह फल मिला। आप के सिवा अब ऐसा कोई नहीं है जो रक्षा करै। मैं आप ही का हूँ, आप के सिवा और कोई नहीं (पैर पकड़ कर रोता है)।
 
महन्त : कोई चिन्ता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (भौं चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझ को अपने शिष्य को अन्तिम उपदेश देने दो, तुम लोग तनिक किनारे हो जाओ, देखो मेरा कहना न मानोगे तो तुम्हारा भला न होगा।
 
सिपाही : नहीं महाराज, हम लोग हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश कीजिए।
 
(सिपाही हट जाते हैं। गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं)
 
गो. दा. : (प्रगट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
 
महन्त : नहीं बच्चा, मुझको चढ़ने दे।
 
गो. दा. : नहीं गुरु जी, हम फाँसी पड़ेंगे।
 
महन्त : नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।
 
गो. दा. : स्वर्ग जाने में बूढ़ा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या? मैं फाँसी चढूँगा।
 
(इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं-सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)
 
१ सिपाही : भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ में नहीं पड़ता।
 
२ सिपाही : हम भी नहीं समझ सकते हैं कि यह कैसा गबड़ा है।
 
(राजा, मंत्री कोतवाल आते हैं)
 
राजा : यह क्या गोलमाल है?
 
१ सिपाही : महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी पड़ूंगा, गुरु कहता है मैं पड़ूंगा; कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?
 
राजा : (गुरु से) बाबा जी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?
 
महन्त : राजा! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जाएगा।
 
मंत्री : तब तो हमी फाँसी चढ़ेंगे।
 
गो. दा. : हम हम। हम को तो हुकुम है।
 
कोतवाल : हम लटकैंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।
 
राजा : चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी जल्दी।
 
महन्त :
 
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
 
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
 
(राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)
 
 
'''(पटाक्षेप)'''
 
'''॥ इति ॥'''
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=== [[ प्रेमजोगिनी ]] (१८७५,प्रथम अंक में केवल चार अंक या गर्भांक,नाटिका)===
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<big>[[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] द्वारा रचित् प्रेम्जोगिनी का '''काशी के छायाचित्र''' या '''दो भले बुरे फोटोग्राफ''' नाम से प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। '''हरश्चिंद्र चंद्रिका''' नामक पत्रिका में इसका प्रकाशन 1874 ई. से आरम्भ हुआ था। प्रस्तुत पाठ ‘चंद्रिका’ के अनुसार है।</big>
 
 
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<big>बैठ कर सैर मुल्क की करना
 
यह तमाशा किताब में देखा ।।</big>
 
 
 
 
<big>प्रेमजोगिनीं ।। नाटिका ।।</big>
 
 
<big>श्रीहरिश्चन्द्रलिखित</big>
 
 
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<big>नान्दी मंगलपाठ करता है-</big>
 
 
<big>भरित नेह नवनीर नित बरसत सुरस अथोर।
 
जयति अपूरब धन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।।</big>
 
 
<big> और भी-
 
जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत जंजाल।
 
जयतु सदा सो ग्रंथ कवि प्रेमजोगिनी बाल ।।
 
(मलिन मुख किए सूत्राधार और पारिपाश्र्वक आते हैं)
 
सू: (नेत्रा से आँसू पोंछ और ठंडी साँस भरकर) हा! कैसे ईश्वर पर विश्वास आवै।
 
पा: मित्र आज तुह्मैं1 क्या हो गया है और क्या बकते हो और इतने उदास क्यों हो।
 
(नेत्रा से जल की धारा बहती है और रोकने से भी नहीं रुकती)
 
पा: (अपने गले में सूत्राधार को लगाकर और आँसू पोंछकर) मित्र आज तुह्मै1 हो क्या गया है? यह क्या सूझी है? क्या आज लोगों को यही तमाशा दिखाओगे।
 
सू: हो क्या गया है क्या मैं झूठ कहता हूँ-इस्से बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कत्र्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे यदि कोई हो तब न उठे हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिन्धु उसको नहीं कहते? क्या माता पिता के सामने पुत्र की स्त्री के सामने पति की और बन्धुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है। क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसके इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं, केवल प्राण मात्रा नहीं त्याग करते पर उनकी सब गति हो जाती है, क्या इस कमलवनरूप भारत भूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर चंगेज खाँ जैसे ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भारतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गए? हा! (आँसू बहते हैं लोग कहते हैं कि ये यह उसके खेल हैं। छिः ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?)
 
पा: इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो दुःख रूप आप ही है इसमें सुख का तो केवल आभास मात्रा है।
 
सू: आभासमात्रा है तो-फिर किसने यह बखेड़ा बनाने कहा था और पचड़ा फैलाने कहा था, उस पर भी न्याव करने और कृपालु बनने का दावा (आँख भर आती है)।
 
पा: आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हौ कि नाटक खेलने आए हौ?
 
सू: क्या नाटक खेलैं क्या न खेलैं ले इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बन्धु पिता मित्र पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्रा मूर्ति, सत्य का एक मात्रा आश्रय, सौजन्य का एकमात्रा पात्रा, भारत का एकमात्रा हित, हिन्दी का एकमात्रा जनक, भाषा नाटकों का एकमात्रा जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो (नेत्रा में जल भर कर) हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही भी ‘दुख हो उसे सुख ही मानना’ लोभ के परित्याग के समय नाम और कीत्र्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रख कर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है। तुझे इनसे क्या, प्रेमी लोग जो-तैरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेंगे (नेत्रों से आँसू गिरते हैं) मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार, और अपना उपकार दोनों भूल जाते हौ तुम्हैं इनकी निन्दा से क्या इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हौ स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहैंगे और तुम लोक बहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रख के बिहार करोगे, क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए-”कहैंगे सबैं ही नैन नीर भरिभरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी“ मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ है; हा! बड़ा विपरीत समय है (नेत्रा से आँसू बहते हैं)।
 
पा: मित्र, जो तुम कहते हौ सो सब सत्य है पर काल भी तो बड़ा प्रबल है। कालानुसार कम्र्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता।
 
सू: हाँ न चलै तो हम लोग काल के अनुसार चलैंगे,-कुछ वह लोकोत्तर चरित्रा थोड़े ही काल के अनुसार चलैगा।
 
पा: पर उसका परिणाम क्या होगा?
 
सू: क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।
 
पा: तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं?
 
सू: तो ये सब सभासद तो उसके मित्र वर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं है उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है ये क्यौं न इन बातों को आनन्दपूव्र्वक सुनैंगे।
 
पा: परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलैगा न। देखो ये हिंदी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं इन्हें कोई खेल दिखाओ।
 
सू: आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्रा में मगन है आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।
 
पा: तो उनके चरित्रा के अनुरूप ही कोई नाटक करो।
 
सू: ऐसा कौन नाटक है यों तो सभी नायकों के चरित्रा किसी किसी विषय में उससे मिलते हैं पर आनुपूव्र्वी चरित्रा कैसे मिलैगा।
 
पा: मित्र मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो क्योंकि! उसके नायक चारुदत्त का चरित्रामात्रा इनसे सब मिलता है केवल बसन्तसेना और राजा की हानि है।
 
स: तो फिर भी आनुपूव्र्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने इनका जी भी न लगैगा कोई नया खेलैं।
 
पा: (स्मरण करके) हाँ हाँ वह नाटक खेलौ जो तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे,-वह उनके और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है उसके खेलने से लोगों का वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई पुरानी, दोनों रीति मिलके बना है।
 
सू: हाँ हाँ प्रेमजोगिनी-अच्छी सुरत पड़ी-तो चलो यों ही सही इसी बहाने उसका स्मरण करैं।
 
पा: चलो ।। (दोनों जाते हैं)
 
अर्द्ध जवनिका पतन
 
।। इति प्रस्तावना ।।
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<big>प्रथम अंक</big>
 
<big>पहला गर्भांक</big>
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<big>पहिले गर्भांक के पात्र
 
टेकचंद: एक महाजन बनिये
 
छक्कूजी: ऐ
 
माखनदास: वैष्णव बनियाँ
 
धनदास
 
बनितादास
 
मिश्र: कीर्तन करने वाला
 
झापटिया: कोड़ा मारकर मंदिर की भीड़ हटाने वाला
 
जलघरिया: पानी भरने वाला
 
बालमुकुन्द
 
मलजी
 
रामचन्द्र: नायक
 
दो गुजराती
 
पहिला गर्भांक
 
स्थान - मंदिर का चौक
 
(झपटिया इधर उधर घूम रहा है)
 
झ: आज अभी कोई दरसनी परसनी नाहीं आयें और कहाँ तक अभहिंन तक मिसरो नहीं आयें अभहीं तक नींद न खुली होइहै। खुलै कहाँ से आधी रात तक बाबू किहाँ बैठ के ही ही ठी ठी करा चाहैं फिर सबेरे नींद कैसे खुलै।
 
(दोहर माथे में लपेटे आँखें मलते मिश्र आते हैं-देखकर)
 
झ: का हो मिसिरजी तोरी नींद नहीं खुलती देखो शंखनाद होय गवा मुखिया जी खोजत रहे।
 
मि: चले त्तो आई थे; अधियै रात के शंखनाद होय तो हम का करै तोरे तरह से हमहू के घर में से निकस के मंदिर में घुस आवना होता तो हमहू जल्दी अउते। हियाँ तो दारानगर से आवना पड़त है। अबहीं सुरजौ नाहीं उगे।
 
झ: भाई सेवा बड़ी कठिन है, लोहे का चना चबाए के पड़थै, फोकटै थोरे होथी।
 
मि: भवा चलो अपना काम देखो। (बैठ गया)
 
(स्नान किये तिलक लगाये दो गुजराती आते हैं)
 
पहिला: मिसिरजी जय श्रीकृष्ण कहो का समय है।
 
मि: अच्छी समय है मंगला की आधी समय है बैठो।
 
प: अच्छा मथुरादास जी वैसी जाओ। (बैठते हैं)
 
(धोती पहिने १ धोती ओढ़े छक्कूजी आते हैं और उसी बेस से माखनदास भी आये)
 
छ: (माखनदास की ओर देखकर) काहो माखनदास एहर आवो।
 
मा: (आगे बढ़कर हाथ जोड़कर) जै सी किष्ण साहब।
 
छ: जै श्रीकृष्ण बैठो कहो आलकल बाबू रामचंद का क्या हाल है।
 
मा: हाल जौन है, तौन आप जनतै हौ, दिन दूना रात चौ गूना। अभईं कल्हौ हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा। बस रात दिन हा हा ठी ठी बहुत भवा दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन बस होय चुका।
 
छ: अरे कवित्त तो इनके बापौ बनावत रहे कवित्त बनावै से का होथै और कवित्त बनावना कुछ अपने लोगन का काम थोरै हय ई भाँटन का काम है।
 
मा: ई तो हुई है पर उन्हैं तो अैसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है और मैं पंडित थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।
 
छ: पढ़िन का है पढ़ा वढ़ा कुछ भी नहिनी, एहर ओहर की दुइ चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कर्तें अबहीं कल के लड़का हैं।
 
मा: और का।
 
(बालमुकुन्द औ मलजी आते हैं)
 
दोनों: (छक्कू की ओर देखकर) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब।
 
छ: जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो कहो नहाय आयो।
 
बा: जी भय्या जी का तो नेम है कि बडे़ सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आज कल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ तिस पर भी देर हो जाती है रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रक्खा है इससे बिध बिध मिलाते देर हो जाती है फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू बालू कुर्ते बारह कभी एक बजते हैं।
 
छ: अच्छी है जो निबही जाय कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं!
 
बा: क्यों जाते क्यों नहीं अब की दोनों भाई जाते हैं कभी दोनों साथ कभी आगे पीछे कभी इनके साथ मसाल कभी उनके मुझको अकशर करके जब मैं जाता हूँ तब वह नहाकर आते रहते हैं।
 
छ: मसाल काहे ले जाथै मेहरारुन का मुँह देखै के?
 
बा: (हँसकर) यह मैं नहीं कह सकता।
 
छ: कहो मलजी आज फूलघर में नाहीं गयो हिंअई बैठ गयो?
 
म: आज देर हो गई दर्शन करके जाऊँगा।
 
छ: तोरे हियाँ ठाकुर जी जागे होहिहैं कि नाहीं?
 
म: जागे तो न होंगे पर अब तैयारी होगी मेरे हियाँ तो स्त्रिाये जगाकर मंगल भोग धर देती है। फिर जब मैं दर्शन करके जाता हूँ तो भोग सरासर आरती कत्र्ता हूँ।
 
छ: कहो तोसे रामचंद्र से बोलाचाली है कि नाहीं?
 
म: बोलचाल तो मैं पर अब यह बात नहीं है आगे तो दर्शन करने का सब उत्सवों पर बुलावा आता था अब नहीं आता तिस्में बड़े साहब तो ठीक ठीक, छोटे चित्त के बड़े खोटे हैं।
 
(नेपथ्य में)
 
गरम जल की गागर लाओ।
 
झ: (गली की ओर देखकर जोर से) अरे कौन जलघरिया है एतनी देर भई अभहीं तोरे गागर लिआवै को बखत नाहीं भई?
 
(सड़सी से गरम जल की गगरी उठाये सनिया लपेटे जलघरिया आता है।)
 
झ: कहो जगेसर ई नाहीं कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।
 
ज: अरे चल्ले तो आवथई का भहराय पड़ीं का सुत्तल थोड़े रहली हमहूँ के झापट कंधे पर रख के एहर ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)
 
(मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए)
 
टे: (मथुरादास की ओर देखकर) कहो मथुरादास जी रूडा छो?
 
म: हाँ साहब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए। हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत्त से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छपन भोग में बडे़ आनंद हुए।
 
टे: भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। येक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दूसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक ओका सब इन्तजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब है और कौन सुख तो भाई साहब श्री गिरिराज जी महाराज के आगे जो देखा है सो अब सपने में भी नहीं है। अहा! वह श्री गोविंदराय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।
 
(धनदास और बनितादास आते हैं)
 
ध: कहो यार का तिगथौ?
 
व: भाई साहेब, थोड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंच्छी नजर नाहीं आया।
 
ध: भाई साहेब, अपने तो ऊ पच्छी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।
 
ब: तोहरे सिद्धांत से भाई साहेब काम तो नहीं चलता।
 
ध: तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाए हौ जे में पलक बाजी खूब चले, हाँ एक पलक एहरो।
 
ब: (हँसकर) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।
 
ध: तो भला महाराज के कबौं समर्पन किए हौ कि नाहीं?
 
ब: कौन चीज?
 
ध: अरे कोई चौकाली ठुल्ली मावड़ी पामरी ठोली अपने घरवाली।
 
ब: अरे भाई गोसाँइयन पर तो ससुरी सब आपै भइराई पड़ थीं पवित्र होवै के वास्ते, हमका पहुँचौबे।
 
ध: गुरु इन सबन का भाग बड़ा तेज है, मालो लूटै मेहररुवो लूटैं।
 
ब: भाई साहब, बड़ेन का नाम बेचथैं और इन सबन में कौन लच्छन हैं, न पढ़ना जानैं न लिखना, रात दिन हा हा ठी ठी यै है कि और कुछ?
 
ध: और गुरु इनके बदौलत चार जीवन के और चौन है एक तो भट दूसरे इनके सरबस खबा तिसरे बिरकत और चौथी बाई।
 
ब: कुछ कहै की बात नाहीं है। भाई मंदिर में रहै से स्वर्ग में रहै। खाए के अच्छा पहिरै के परसादी से महाराज कव्वौ गाढ़ा तो पहिरबै न करियैं, मलमल नागपुरी ढाँकै पहिरियैं, अतरै फुलेल केसर परसादी बीड़ा चाभो सब से सेवकी ल्यौ, ऊपर से ऊ बात का सुख अलगै है।
 
ध: क्या कहैं भाई साहब हमरो जनम हियँई होता।
 
ब: अरे गुरु गली गली तो मेहरारू मारी फिरथीं तौहें एहू पर रोनै बना है। अब तो मेहरारू टके सेर हैं। अच्छे अच्छे अमीरनौ के घर की तो पैसा के वास्ते हाथ फैलावत फिरथीं।
 
ध: तो गुरु हम तो ऊ तार चाही थै जहाँ से उलटा हमैं कुछ मिलै।
 
ब: भाग होय तो ऐसिसो मिल जायँ। देखो लाड़लीप्रसाद के और बच्चू के ऊ नागरानी और बम्हनिया मिली हैं कि नाहीं!
 
ध: गुरु, हियों तो चाहे मूड़ मुड़ाये हो चाहे मुँह में एक्को दाँत न होय पताली खोल होय, पर जो हथफेर दे सो काम की।
 
ब: तोहरी हमारी राय ई बात में न मिलिये।
 
(रामचन्द्र ठीक इन दोनों के पीछे का किवाड़ खोलकर आता है)
 
छ: (धीरे से मुँह बना के) ई आएँ। (सब लोगों से जय श्री कृष्ण होती है)।
 
बा: (रामचंद्र को अपने पास बैठाकर) कहिए बाबू साहब आजकल तो आप मिलते ही नहीं क्या खबगी रहती है?
 
रा: भला आप ऐसे मित्र से कोई खफा हो सकता है? यह आप कैसी बात करते हैं?
 
बा: कार्तिक नहाना होता है न?
 
रा: (हँसकर) इसमें भी कोई सन्देह है!
 
बा: हँहँहँ फिर आप तो जो काम करैंगे एक तजबीज के साथ ऐं।
 
(रामचन्द्र का हाथ पकड़ के हँसता है)
 
रा: भाई ये दोनों (धनदास और बनितादास को दिखाकर) बड़े दुष्ट हैं। मैं किवाड़ी के पीछे खड़ा सुनता था। घंटों से ये स्त्रियों ही की बात करते थे।
 
बा: यह भवसागर है। इसमें कोई कुछ बात करता है, कोई कुछ बात करता है। आप इन बातों का कहाँ तक खयाल कीजिएगा ऐं! कहिए कचहरी जाते हैं कि नहीं?
 
रा: जाते हैं कभी कभी-जी नहीं लगता, मुफत की बेगार और फिर हमारा हरिदास बाबू का साथ कुकुर झौंझो, हुज्जते-बंगाल माथा खाली कर डालते हैं। खांव खांव करके, थूँथ थूँथ के, बीभत्स रस के आलंबन, सूर्यनंदन-
 
बा: (हँसकर) उपमा आप ने बहुत अच्छी दिया और कहिए और अंधरी मजिसटरों1 का क्या हाल है?
 
रा: हाल क्या है सब अपने अपने रंग में मस्त हैं। काशी परसाद अपना कोठीवाली ही में लिखते हैं सहजादे साहब तीन घंटे में इक सतर लिखते हैं उसमें भी सैंकड़ों गलती। लक्ष्मीसिंह और शिवसिंह अच्छा काम करते हैं और अच्छा प्रयागलाल भी करते हैं, पर वह पुलिस के शत्राु हैं। और विष्णुदास बड़े बवददपदह बींच हैं। दीवानराम हुई नहीं, बाकी रहे फिजिशियन सो वे तो अँगरेज ही हैं, पर भाई कई मूर्खों को बड़ा अभिमान हो गया है, बात बात में तपाक दिखाते और छः महीने को भेज दूँगा कहते हैं।
 
बा: मैं कनम चाप नहीं समझा।
 
रा: कनिंग चौप माने कुटीचर!
 
(नेपथ्य में)
 
श्री गोविंदराय जी की श्री मंगला खुली (सब दौड़ते हैं)
 
(परदा गिरता है)
 
 
इति मंदिरादर्श नामक प्रथम गर्भांक
 
 
 
 
 
<big>दूसरा गर्भांक</big>
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<big>दूसरे गर्भांक के पात्रा
 
दलाल
 
गंगापुत्र तीर्थस्थ ब्राह्मण
 
भंडेरिया लिंगिया
 
दुकानदार
 
सुधाकर रामचंद (नाटक के नायक) का मुसाहब
 
झूरी सिंह बदमाश
 
परदेसी
 
स्थान-गैबी, पेड़, कुआं, पास बावली
 
(दलाल, गंगापुत्र, दुकानदार, भंडेरिया और झुरीसिंह बैठे हैं)
 
द: कहो गहन यह कैसा बीता? ठहरा भोग बिलासी-
 
माल वाल कुछ मिला, या हुआ कोरा सत्यानाशी?
 
कोई चूतिया फँसा या नहीं? कोरे रहे उपासी?
 
ग: मिलै न काहे भैया, गंगा मैया दौलत दासी ।।
 
हम से पूत कपूत की दाता मनकनिका सुखरासी।
 
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
 
दू: परदेसियौ बहुत रहे आए?
 
ग: और साल से बढ़कर।
 
भ: पितर सौंदनी रही न अमसिया,
 
झू: रंग है पुराने झंझर ।।
 
खूब बचा ताड़ो, का कहना,
 
तूँ हौ चूतिया हंटर।
 
भ: हम न तड़वै तो के तड़िये? यही तो किया जनम भर ।।
 
द: जो हो, अब की भली हुई यह अमावसी पुनवासी।
 
ग: भूखे पेट कोई नहिं, सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
 
झू: यार लोग तो रोजै कड़ाका करथैं ऐ पैजामा।
 
ग: ई तो झूठ कहौ, सिंहा,
 
झू: तू सच बोल्यो, मामा ।।
 
ग: तोहैं का, तू मार पीट के करथौ अपना कामा।
 
कोई का खाना, कोई की रंडी, कोई का पगड़ी जामा ।।
 
झू: ऊ दिन खीपट दूर गए अब सोरहो दंड एकासी।
 
ग: भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
 
झू: जब से आए नए मजिस्टर तब से आफत आई।
 
जान छिपावत फिरीथै खटमल-
 
दू: ई तो सच है भाई ।।
 
झू: ई है ऐसा तेज गुरू बरसन के लिए देथै लदाई।
 
गोविन पालक मेकलौडो से एकी जबर दोहाई ।।
 
जान बचावत छिपत फिरीथै घुस गई सब बदमासी।
 
ग: भूखे पेट तो कोइ नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
 
झू: तोरे आँख में चरबी छाई माल न पाया गोजर।
 
कैसी दून की सूझ रही है आसमानों के उप्पर ।।
 
तर न भए हौ पैदा करके, धर के माल चुतरे तर।
 
बछिया के बाबा, पँडिया के ताऊ, घुसनि के घुसघुस झरझर ।।
 
कहाँ की ई तूँ बात निकास्यो खासी सत्यानासी।
 
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
 
(गाता हुआ एक परदेसी आता है)
 
प: देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
 
जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी ।।
 
आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
 
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी ।।
 
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
 
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी ।।
 
आप काम कुछ कभी करैं नहिं कोरे रहैं उपासी।
 
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी ।।
 
अमीर सब झूठे और निंदक करें घात विश्वासी।
 
सिपारसी डरपुकने सिट्टई बोलैं बात अकासी ।।
 
मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारिन पासी।
 
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी ।।
 
कुत्ते भूँकत काटन दौड़ैं सड़क साँड़ सों नासी।
 
दौड़ैं बंदर बने मुछंदर कूदैं चढ़े अगासी ।।
 
घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचैं दै गल फाँसी।
 
करैं घाटिया बस्तर-मोचन दे देके सब झाँसी ।।
 
राह चलत भिखमंगे नोचैं बात करैं दाता सी।
 
मंदिर बीच भँड़ेरिया नोचैं करैं धरम की गाँसी ।।
 
सौदा लेत दलालो नोचैं देकर लासालासी।
 
माल लिये पर दुकनदार नोचैं कपड़ा दे रासी ।।
 
चोरी भए पर पूलिस नोचैं हाथ गले बिच ढांसी।
 
गए कचहरी अमला नोचैं मोचि बनावैं घासी ।।
 
फिरैं उचक्का दे दे धक्का लूटैं माल मवासी।
 
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी ।।
 
साहेब के घर दौड़े जावैं चंदा देहि निकासी।
 
चढ़ैं बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होंय उदासी ।।
 
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
 
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी ।।
 
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरहिं कागाबासी।
 
बाप के तिथि दिन बाम्हन आगे धरैं सड़ा औ बासी ।।
 
करि बेवहार साक बांधैं बस पूरी दौलत दासी।
 
घालि रुपैया काढ़ि दिवाला माल डेकारैं ठांसी ।।
 
काम कथा अमृत सी पीयैं समुझैं ताहि विलासी।
 
रामनाम मुंह से नहिं निकसै सुनतहि आवै खांसी ।।
 
देखी तुमरी कासी भैया, देखी तुमरी कासी।
 
झू: कहो ई सरवा अपने शहर की एतनी निन्दा कर गवा तूं लोग कुछ बोलत्यौ नाहीं?
 
गं: भैया, अपना तो जिजमान है अपने न बोलैंगे चाहे दस गारी भी दे ले।
 
भं: अपनो जिजमानै ठहरा।
 
द: और अपना भी गाहकै है।
 
दू: आर भाई हमहूँ चार पैसा एके बदौलत पावा है।
 
झू: तूं सब का बोलबो तूं सब निरे दब्बू चप्पू हौ, हम बौलबै। (परदेसी से) ए चिड़ियावाली के परदेसी फरदेसी। कासी की बहुत निन्दा मत करो मुँह बस्सैये का कहैं के साहिब मजिस्टर हैं नाहीं तो निन्दा करना निकास देते।
 
प: निकास क्यों देते? तुमने क्या किसी का ठीका लिया है?
 
झू: हाँ हाँ, ठीका लिया है मटियाबुर्ज।
 
प: तो क्या हम झूठ कहते हैं?
 
झू: राम राम तू भला कबौं झूठ बोलबो तू तो निरे पोथी के बेठन हौ।
 
प: बेठन क्या।
 
झू: बे ते मत करो गप्पों के, नाहीं तो तोरी अरबी फारसीं घुसेड़ देवै।
 
प: तुम तो भाई अजब लड़ाके हो, लड़ाई मोल लेते फिरते हौ। वे ते किसने किया है? यह तो अपनी अपनी राय है कोई किसी को अच्छा कहता है कोई बुरा कहता है। इससे बुरा क्या मानना।
 
झू: सच है पनचोरा, तू कहै सो सच्च, बुढ्ढी तू कहे सो सच्च।
 
प: भाई अजब शहर है, लोग बिना बात ही लडे़ पड़ते हैं।
 
(सुधाकर आता है)
 
(सब लोग आशीर्वाद, दंडवत, आओ आओ शिष्टाचार करते हैं)
 
गं: भैया इनके दम के चौन है। ई अमीरन के खेलउना हैं।
 
झू: खेलउना का हैं टाल खजानची खिदमतगार सबै कुछू हैं।
 
सु: तुम्हैं साहब चर्रिये बूकना आता है।
 
झू: चर्री का, हमहन झूठ बोलील; अरे बखत पड़े पर तूँ रंडी ले आव; मंगल के मुजरा मिले ओेमें दस्तूरी काट; पैर दाबः रुपया पैसा अपने पास रक्खः यारन के दूरे से झाँसा बतावः। ऐ! ले गुरु तोहीं कहः हम झूठ कहथई।
 
गं: अरे भैया बिचारे ब्राह्मण कोई तरह से अपना कालच्छेप करथै ब्राह्मण अच्छे हैं।
 
भं: हाँ भाई न कोई के बुरे में न भले में और इनमें एक बड़ी बात है कि इनकी चाल एक रंगै हमेसा से देखी थै।
 
गं: और साहेब एक अमीर के पास रहै से इनकी चार जगह जान पहिचान होय गई। अपनी बात अच्छी बनाय लिहिन हैं।
 
दू: हाँ भाई बाजार में भी इनकी साक बँधी है।
 
सु: भया भया यह पचड़ा जाने दो, हो यह नई मूरत कौन है?
 
झू: गुरु साहब हम हियाँ भाँग का रगड़ा लगावत रहें बीच में गहन के मारे-पीटे ई धूआँकस आय गिरे।
 
आके पिंजडे़ में फँसा अब तो पुराना चंडूल।
 
लगी गुलसन की हवा दुम का हिलाना गया भूल ।।
 
(परदेशी के मुँह के पास चुटकी बजाता है और नाक के पास से उँगली लेकर दूसरे हाथ की उँगली पर घुमाता है)
 
प: भाई तुम्हारे शहर सा तुम्हारा ही शहर है, यहाँ की लीला ही अपरंपार है।
 
झू: तोहूँ लीला करथौ।
 
प: क्या?
 
झू: नहीं ई जे तोहूँ रामलीला में जाथौ कि नाहीं?
 
(सब हँसते हैं)
 
प: (हाथ जोड़कर) भाई तुम जीते हम हारे, माफ करो।
 
झू: (गाता है) तुम जीते हम हारे साधो तुम जीते हम हारे।
 
सु: (आप ही आप) हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहाँ आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें। केवल इस मूर्खता छोड़ इन्हें कुछ आता ही नहीं! निष्कारण किसी को बुरा भला कहना। बोली ही बोलने में इनका परम पुरुषार्थ! अनाब शनाब जो मुँह से आया बक उठे न पढ़ना न लिखना! हाय! भगवान् इनका कब उद्धार करैगा!!
 
झू: गुरु, का गुड़बुड़-गुड़बुड़ जपथौ?
 
सु: कुछ नाहीं भाई यही भगवान का नाम।
 
झू: हाँ भाई, भई एह बेरा टें टें न किया चाहिए रामराम की बखत भई तो चलो न गुरू।
 
सब: चलो भाई।
 
(जवनिका गिरती है)
 
 
(इति गैबी ऐबी नामक दूसरा गर्भ अंक)</big>
 
 
 
 
<big>तीसरा गर्भांक</big>
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<big> स्थान-मुगलसराय का स्टेशन
 
(मिठाई वाले, खिलौने वाले, कुली और चपरासी इधर उधर फिरते हैं।
 
सुधाकर एक विदेशी पंडित और दलाल बैठे हैं)
 
द: (बैठ के पान लगाता है) या दाता राम! कोई भगवान से भेंट कराना।
 
वि. पं.: (सुधाकर से)-आप कौन हैं। कहाँ से आते हैं।
 
सु: मैं ब्राह्मण हूँ, काशी में रहता हूँ और लाहोर से आता हूँ।
 
वि. पं: क्या आपका घर काशी ही जी में है?
 
सु: जी हाँ।
 
वि. पं: भला काशी कैसा नगर है?
 
सु: वाह! आप काशी का वृत्तान्त अब तक नहीं जानते भला त्रौलोक्य में और दूसरा ऐसा कौन नगर है जिसको काशी की समता दी जाय।
 
वि. पं.: भला कुछ वहाँ की शोभा हम भी सुनैं?
 
सु: सुनिए, काशी का नामांतर वाराणसी है जहाँ भगवती जद्द नंदिनी उत्तरवाहिनी होकर धनुषाकार तीन ओर से ऐसी लपटी हैं मानो इसको शिव की प्यारी जानकर गोद में लेकर आलिंगन कर रही हैं, और अपने पवित्र जलकण के स्पर्श से तापत्राय दूर करती हुई मनुष्यमात्रा को पवित्र करती हैं। उसी गंगा के तट पर पुण्यात्माओं के बनाए बड़े-बड़े घाटों के ऊपर दोमंजिले, चौमंजिले, पँचमंजिले और सतमंजिले ऊँचे ऊँचे घर आकाश से बातें कर रहे हैं मानो हिमालय के श्वेत शृंग सब गंगा सेवन करने को एकत्रा हुए हैं। उसमें भी माधोराय के दोनों धरहरे तो ऐसे दूर से दिखाई देते हैं मानों बाहर के पथिकों को काशी अपने दोनों हाथ ऊँचे करके बुलाती है। साँझ सबेरे घाटों पर असंख्य स्त्री पुरुष नहाते हुए ब्राह्मण लोग संध्या का शास्त्रार्थ करते हुए, ऐसे दिखाई देते हैं मानो कुबेरपुरी की अलकनंदा में किन्नरगण और ऋषिगण अवगाहन करते हैं, और नगाड़ा नफीरी शंख घंटा झांझस्तव और जय का तुमुल शब्द ऐसा गूंजता है मानों पहाड़ों की तराई में मयूरों की प्रतिध्वनि हो रही है, उसमें भी जब कभी दूर से साँझ को वा बड़े सबेरे नौबत की सुहानी धुन कान में आती है तो कुछ ऐसी भली मालूम पड़ती है कि एक प्रकर की झपकी सी आने लगती है। और घाटों पर सबेरे धूप की झलक और साँझ को जल में घाटों की परछाहीं की शोभा भी देखते ही बन आती है।
 
जहाँ ब्रज ललना ललित चरण युगल पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंद घन बासुदेव आप ही श्री गोपाललाल रूप धारण करके प्रेमियों को दर्शन मात्रा से कृतकृत्य करते हैं, और भी बिंदुमाधवादि अनेक रूप से अपने नाम धाम के स्मरण दर्शन, चिन्तनादि से पतितों को पावन करते हुए विराजमान हैं।
 
जिन मंदिरों में प्रातःकाल संध्या समय दर्शनीकों की भीड़ जमी हुई है, कहीं कथा, कहीं हरिकीर्तन, कहीं नामकीर्तन कहीं ललित कहीं नाटक कहीं भगवत लीला अनुकरण इत्यादि अनेक कौतुकों के मिस से भी भगवान के नाम गुण में लोग मग्न हो रहे हैं।
 
जहाँ तारकेश्वर विश्वेश्वरादि नामधारी भगवान भवानीपति तारकब्रह्म का उपदेश करके तनत्याग मात्रा से ज्ञानियों को भी दुर्लभ अपुनर्भव परम मोक्षपद-मनुष्य पशु कीट पतंगादि आपामर जीवनमात्रा को देकर उसी क्षण अनेक कल्पसंचित महापापपुंज भस्म कर देते हैं।
 
जहाँ अंधे, लँगड़े, लूले, बहरे, मूर्ख और निरुद्यम आलसी जीवों को भी भगवती अन्नपूर्णा अन्न वस्त्रादि देकर माता की भाँति पालन करती हैं।
 
जहाँ तक देव, दानव, गंधर्व, सिद्ध चारण, विद्याधर देवर्षि, राजर्षिगण और सब उत्तम उत्तम तीर्थ-कोई मूर्तिमान, कोई छिपकर और कोई रूपांतर करके नित्य निवास करते हैं।
 
जहाँ मूर्तिमान सदाशिव प्रसन्न वदन आशुतोष सकलसद्गुणैकरत्नाकर, विनयैकनिकेतन, निखिल विद्याविशारद, प्रशांतहृदय, गुणिजनसमाश्रय, धार्मिकप्रवर, काशीनरेश महाराजाधिराज श्रीमदीश्वरीप्रसादनारायणसिंह बहादुर और उनके कुमारोपम कुमार श्री प्रभुनारायणसिंह बहादुर दान धम्र्मसभा रामलीलादि के मिस धर्मोन्नति करते हुए और असत् कम्र्म नीहार को सूर्य की भाँति नाशते हुए पुत्र की तरह अपनी प्रजा का पालन करते हैं।
 
जहाँ श्रीमती चक्रवर्तिनिचयपूजितपादपीठा श्रीमती महारानी विक्टोरिया के शासनानुवर्ती अनेक कमिश्नर जज कलेक्टरादि अपने अपने काम में सावधान प्रजा को हाथ पर लिए रहते हैं और प्रजा उनके विकट दंड के सर्वदा जागने के भरोसे नित्य सुख से सोती है।
 
जहाँ राजा शंभूनारायणसिंह बाबू फतहनारायणसिंह बाबू गुरुदास बाबू माधवदास विश्वेश्वरदास राय नारायणदास इत्यादि बड़े बड़े प्रतिष्ठित और धनिक तथा श्री बापूदेव शास्त्री, श्रीबाल शास्त्री से प्रसिद्ध पंडित, श्रीराजा शिवप्रसाद, सैयद अहमद खाँ बहादुर ऐसे योग्य पुरुष, मानिकचंद्र मिस्तरी से शिल्पविद्या निपुण, वाजपेयी जी से तन्त्राीकार, श्री पंडित बेचनजी, शीतलजी, श्रीताराचरण से संस्कृत के और सेवक हरिचंद्र से भाषा के कवि बाबू अमृतलाल, मुंशी गन्नूलाल, मुंशी श्यामसुंदरलाल से शस्त्राव्यसनी और एकांतसेवी, श्रीस्वामि विश्वरूपानंद से यति, श्रीस्वामि विशुद्धानंद से धम्र्मोपदेष्टा, दातृगणैकाग्रगण्य श्रीमहाराजाधिराज विजयनगराधिपति से विदेशी सर्वदा निवास करके नगर की शोभा दिन दूनी रात चौगुनी करते रहते हैं।
 
जहाँ क्वींस कालिज (जिसके भीतर बाहर चारों ओर श्लोक और दोहे खुदे हैं), जयनारायण कालिज से बड़े बंगाली टोला, नार्मल और लंडन मिशन से मध्यम तथा हरिश्चंद्र स्कूल से छोटे अनेक विद्यामंदिर हैं, जिनमें संस्कृत, अँगरेजी, हिन्दी, फारसी, बँगला, महाराष्ट्री की शिक्षा पाकर प्रति वर्ष अनेक विद्यार्थी विद्योत्तीर्ण होकर प्रतिष्ठालाभ करते हैं; इनके अतिरिक्त पंडितों के घर में तथा हिंदी फारसी पाठकों की निज शाला में अलग ही लोग शिक्षा पाते हैं, और राय शंकटाप्रसाद के परिश्रमोत्पन्न पबलिक लाइब्रेरी, मुनशी शीतलप्रसाद का सरस्वती-भवन, हरिश्चंद्र का सरस्वती भंडार इत्यादि अनेक पुस्तक-मंदिर हैं, जिनमें साधारण लोग सब विद्या की पुस्तकें देखने पाते हैं।
 
जहाँ मानमंदिर ऐसे यंत्राभवन, सारनाथ की धंमेक से प्राचीनावशेष चिद्द, विश्वनाथ के मंदिर का वृषभ और स्वर्ण-शिखर, राजा चेतसिंह के गंगा पार के मंदिर, कश्मीरीमल की हवेली और क्वींस कालिज की शिल्पविद्या और माधोराय के धरहरे की ऊँचाई देखकर विदेशी जन सर्वदा रहते हैं।
 
जहाँ महाराज विजयनगर के तथा सरकार के स्थापित स्त्री-विद्यामंदिर, औषधालय, अंधभवन, उन्मत्तागा इत्यादिक लाकद्वयसाधक अनेक कीर्तिकर कार्य हैं वैसे ही चूड़वाले इत्यादि महाजनों का सदावत्र्त और श्री महाराजाधिराज सेंधिया आदि के अटल सत्रा से ऐसे अनेक दीनों के आश्रयभूत स्थान हैं जिनमें उनको अनायास भी भोजनाच्छादन मिलता है।
 
अहोबल शास्त्री, जगन्नाथ शास्त्री, पंडित काकाराम, पंडित मायादत्त, पंडित हीरानंद चौबे, काशीनाथ शास्त्री, पंडित भवदेव, पंडित सुखलाल ऐसे धुरंधर पंडित और भी जिनका नाम इस समय मुझे स्मरण नहीं आता अनेक ऐसे ऐसे हुए हैं, जिनकी विद्या मानों मंडन मिश्र की परंपरा पूरी करती थी।
 
जहाँ विदेशी अनेक तत्ववेत्ता धार्मिक धनीजन घरबार कुटुंब देश विदेश छोड़कर निवास करते हुए तत्वचिंता में मग्न सुख दुःख भुलाए संसार की यथारूप में देखते सुख से निवास करते हैं।
 
जहाँ पंडित लोग विद्यार्थियों को ऋक्, यजुः साम, अथर्व, महाभारत, रामायण, पुराण, उपपुराण, स्मृति, न्याय, व्याकरण, सांख्य, पातंजल, वैशषिक, मीमांसा, वेदांत, शैव, वैष्णव, अलंकार, साहित्य, ज्योतिष इत्यादि शास्त्रा सहज पढ़ाते हुए मूर्तिमान गुरु और व्यास से शोभित काशी की विद्यापीठता सत्य करते हैं।
 
जहाँ भिन्न देशनिवासी आस्तिक विद्यार्थीगण परस्पर देव-मंदिरों में, घाटों पर, अध्यापकों के घर में, पंडित सभाओं में वा मार्ग में मिलाकर शास्त्रार्थ करते हुए अनर्गल धारा प्रवाह संस्कृत भाषण से सुनने वालों का चित्त हरण करते हैं।
 
जहाँ स्वर लय छंद मात्रा, हस्तकंपादि से शुद्ध वेदपाठ की ध्वनि से जो मार्ग में चलते वा घर बैठे सुन पड़ती है, तपोवन की शोभा का अनुभव होता है।
 
जहाँ द्रविड़, मगध, कान्यकुब्ज, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, गुजरात इत्याादि अनेक देश के लोग परस्पर मिले हुए अपना-अपना काम करते दिखाते हैं और वे एक एक जाति के लोग जिन मुहल्लों में बसे हैं वहाँ जाने से ऐसा ज्ञान होता है मानों उसी देश में आए हैं, जैसे बंगाली टोले में ढाके का, लहौरी टोले में अमृतसर का और ब्रह्माघाट में पूने का भ्रम होता है।
 
जहाँ निराहार, पयाहार, यताहार, भिक्षाहार, रक्तांबर, श्वेतांबर, नीलांबर, चम्र्माम्बर, दिगंबर, दंडी, संन्यासी, ब्रह्मचारी, योगी, यती, सेवड़ा, फकीर, सुथरेसाई, कनफटे, ऊध्र्ववाहु, गिरि, पुरी, भारती, वन, पर्वत, सरस्वती, किनारामी, कबीरी, दादूपंथी, नान्हकसही, उदासी, रामानंदी, कौल, अघोरी, शैव, वैष्णव, शाक्त गणपत्य, सौर, इत्यादि हिंदू और ऐसे ही अनेक भाँति के मुसलमान फकीर नित्य इधर से उधर भिक्षा उपार्जन करते फिरते हैं और इसी भाँति सब अंधे लँगड़े, लूले, दीन, पंगु, असमर्थ लोग भी शिक्षा पाते हैं, यहाँ तक कि आधी काशी केवल दाता लोग के भरोसे नित्य अन्न खाती है।
 
जहाँ हीरा, मोती, रुपया, पैसा, कपड़ा, अन्न घी, तेल, अतर, फुलेलक, पुस्त खिलौने इत्यादि की दुकानों पर हजारों लोग काम करते हुए मोल लेते बेचते दलाली करते दिखाई पड़ते हैं।
 
जहाँ की बनी कमखाब बाफता, हमरू, समरू; गुलबदन, पोत, बनारसी, साड़ी, दुपट्टे, पीताम्बर, उपरने, चोलखंड, गोंटा, पट्ठा इत्यादि अनेक उत्तम वस्तुएँ देशविदेश जाती हैं और जहाँ की मिठाई, खिलौने, चित्रा टिकुली, बीड़ा इत्यादि और भी अनेक सामग्री ऐसी उत्तम होती हैं कि दूसरे नगर में कदापि स्वप्न में भी नहीं बन सकतीं।
 
जहाँ प्रसादी तुलसी माला फूल से पवित्र और स्नायी स्त्री पुरुषों के अंग के विविध चंदन, कस्तूरी, अतर इत्यादि सुगंधित द्रव्य के मादक आमोद संयुक्त परम शीतलकण तापत्राय विमोचक गंगाजी के स्पर्श मात्रा से अनेक लौकिक अलौकिक ताप से तापित मनुष्यों का चित सर्वदा शीतल करते हैं।
 
जहाँ अनेक रंगों के कपड़े पहने सोरहो सिंगार बत्तीसो अभरन सजे पान खाए मिस्सी की धड़ी जमाए जोबन मदमाती झलझमाती हुई बारबिलासिनी देवदर्शन वैद्य ज्योतिषी गुणी-गृहगमन जार मिलन गानश्रावण उपवनभ्रमण इत्यादि अनेक बहानों से राजपथ में इधर-उधर झूमती घूमती नैनों के पटे फेरती बिचारे दीन पुरुषों को ठगती फिरती हैं और कहाँ तक कहैं काशी काशी ही है। काशी सी नगरी त्रौलोक्य में दूसरी नहीं है। आप देखिएगा तभी जानिएगा बहुत कहना व्यर्थ है।
 
वि.पं: वाह वाह! आपके वर्णन से मेरे चित्त का काशी दर्शन का उत्साह चतुर्गुण हो गया। यों तो मैं सीधा कलकत्ते जाता पर अब काशी बिन देखे कहीं न जाऊँगा। आपने तो ऐसा वर्णन किया मानो चित्रा सामने खड़ा कर दिया। कहिए वहाँ और कौन-कौन गुणी और दाता लोग हैं जिनसे मिलूं।
 
सु: मैं तो पूर्व ही कह चुका हूँ कि काशी गुणी और धनियों की खान है यद्यपि यहाँ के बडे़-बड़े पंडित जो स्वर्गवासी हुए उनसे अब होने कठिन हैं, तथापि अब भी जो लोग हैं दर्शनीय ओर स्मरणीय हैं। फिर इन व्यक्तियों के दर्शन भी दुर्लभ हो जायेंगे और यहाँ के दाताओं का तो कुछ पूछना ही नहीं। चूड़ की कोठी वालों ने पंडित काकाराम जी के ऋण के हेतु एक साथ बीस सहस्र मुद्रा दीं। राजा पटनीमल के बाँधे धम्र्मचिन्ह कम्र्मनाशा का पुल और अनेक धम्र्मशाला, कुएँ, तालाब, पुल इत्यादि भारतवर्ष के प्रायः सब तीर्थों पर विद्यमान हैं। साह गोपालदास के भाई साह भवानीदास की भी ऐसी उज्ज्वल कीत्र्ति है और भी दीवान केवलकृष्ण, चम्पतराय अमीन इत्यादि बडे़-बड़े दानी इसी सौ वर्ष के भीतर हुए हैं। बाबू राजेंद्र मित्र की बाँधी देवी पूजा बाबू गुरु दास मित्र के यहाँ अब भी बड़े धूम से प्रतिवर्ष होती है। अभी राजा देवनारायणसिंह ही ऐसे गुणज्ञ हो गए हैं कि उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं फिरा। अब भी बाबू हरिश्चंद्र इत्यादि गुणग्राहक इस नगर की शोभा की भाँति विद्यमान हैं। अभी लाला बिहारीलाल और मुंशी रामप्रताप जी ने कायस्थ जाति का उद्धार करके कैसा उत्तम कार्य किया। आप मेरे मित्र रामचंद्र ही को देखिएगा। उसने बाल्यावस्था ही में लक्षावधि मुद्रा व्यय कर दी है। अभी बाबू हरखचंद मरे हैं तो एक गोदान नित्य करके जलपान करते थे। कोई भी फकीर यहाँ से खाली नहीं गया। दस पंद्रह रामलीला इन्हीं काशीवालों के व्यय से प्रति वर्ष होती है और भी हजारों पुण्यकार्य यहाँ हुआ ही करते हैं। आपको सबसे मिलाऊँगा आप काशी चलें तो सही।
 
वि. पं: आप लाहोर क्यों गए थे।
 
सु: (लंबी साँस लेकर) कुछ न पूछिए योंही सैर को गया था।
 
द: (सुधाकर से) का गुरु। कुछ पंडितजी से बोहनीवांड़े का तार होय तो हम भी साथै चलूँचैं।
 
सु: तार तो पंडितवाड़ा है कुछ विशेष नहीं जान पड़ता।
 
द.: तब भी फोंक सऊडे़ का मालवाड़ा। कहाँ तक न लेऊचियै।
 
सु.: अब तो पलते पलते पलै।
 
वि.: यह इन्होंने किस भाषा में बात की?
 
सु.: यह काशी ही की बोली है, ये दलाल हैं, सो पूछते थे कि पंडितजी कहाँ उतरेंगे।
 
वि.: तो हम तो अपने एक सम्बन्धी के यहाँ नीलकंठ पर उतरेंगे।
 
सु.: ठीक है, पर मैं आपको अपने घर अवश्य ले जाऊँगा।
 
वि.: हाँ हाँ इस्में कोई संदेह है? मैं अवश्य चलूँगा।
 
(स्टेशन का घंटा बजता है और जवनिका गिरती है)
 
इति प्रतिच्छवि-वाराणसी नाम तीसरा गर्भाकं
 
समाप्त हुआ </big>
 
 
 
<big>चतुर्थ गर्भांक।। प्रथम अंक ।।</big>
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<big>स्थान-बुभुक्षित दीक्षित की बैठक
 
(बुभुक्षित दीक्षित, गप्प पंडित, रामभट्ट, गोपालशास्त्री, चंबूभट्ट, माधव शास्त्री आदि लोग पान बीड़ा खाते और भाँग बूटी की तजबीज करते बैठे हैं;
 
इतने में महाश कोतवाल अर्थात् निमंत्राण करने वाला आकर चौक
 
में से दीक्षित को पुकारता है)
 
महाश: काहो, बुभुक्षित दीक्षित आहेत?
 
बुभुक्षित: (इतना सुनते ही हाथ का पान रखकर) कोण आहे? (महाश आगे बढ़ता है) वाह, महाश तु आहेश काय? आय बाबा आज किति ब्राह्मण आमच्या तड़ांत देतो? सरदारनी किती सांगीतलेत! (थोड़ा ठहरकर) कायर ठोक्याच्या कमरान्त सहस्रभोजन कुणाच्या यजमानाचे चाल्ले आहे?२
 
महाश: दीक्षित जी! आज ब्राह्मणाची अशी मारामार झाली कि मी माँहीं सांगूँ शकत नाहीं-कोण तो पचड़ा!!१
 
बु.भु.: खरें, काय मारामार झाली? अच्छा ये तर बैठकेंत पण आखेरीस आमचे तड़ाची काय व्यवस्था? ब्राह्मण आणलेस की नाहीं? काँ हात हलवीतच आलास?२
 
महाश: (बैठक में बैठकर जल माँगता है) दीक्षित जी थोडे़ से पाणी द्या, तहान बहुत लागली आहे।३
 
बुभु.: अच्छा भाई, थोड़ा सा ठहर अत्ता उनातून आजा आहेस, बूटी ही बनतेच आहे। पाहिजे तर बूटीचच पाणी पी। अच्छा साँग तर कसे काय ब्राह्मण किती मिलाले?४
 
महाश: गुरु, ब्राह्मण तो आज २५ निकाले, यार लोग आपके शागिर्द हैं कि और किसके?
 
चंबूभट्ट: (बडे़ आनंद से) क्या भाई सच कहो-२५ ब्राह्मण मिलाले?
 
महाश: हो गुरु! २५ ब्राह्मण तर नुसते सहस्रभोजनाचे, परंतु आजचे वसंतपूजतेचे तर शिवाय च-आणखी सभेकरतां तर पेष लावलाच आहे पण-५
 
गोपाल, माधव शास्त्री: (घबड़ाकर) काय महाश पण काँ? सभेचें काम कुणाकड़े आहे? अणखी सभा कधीं होणार? आँ?६
 
महाश: पण इतवें$च कीं हा यजमान पाप नगरांत रहतो, आणि याला एक कन्या आहे ती गतभर्तृका असून सकेशा आहे आणि तीर्थ-स्थलीं तर क्षौर करणें अवश्य पण क्षौरेकरून कनयेंची शोभा जाईल या करितां जर कोणी असा शास्त्रीय आधार दाखवील तर एक हजार रुपयांची सभाकरण्याचा त्यांचा विचार आहे व या कामांत धनतुंदिल शास्त्रीनी हात घातला आहे।1
 
गप्प पंडित: अं: , तो ऐसी झुल्लक बात के हेतु शास्त्राधार का क्या काम है? इसमें तो बहुत से आधार मिलेंगे।
 
माधव शास्त्री: हाँ पंडित जी आप ठीक कहते हैं, क्योंकि हम लोगों का वाक्य और ईश्वर का वाक्य समान ही समझना चाहिए ”विप्रवाक्ये जनार्दनः“ ”ब्राह्मणो मम दैवतं“ इत्यादि।
 
गोपाल: ठीकच आहे, आणि जरि कदाचित् असल्या दुर्घट कामानी आम्ही लोकदृष्टया निन्द्य झालों तथापि वन्द्यच आहों, कारण श्री मभागवतांत ही लिहलें आहे ”विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्येत कश्चनेत्यादि।“2
 
गप्प पंडित: हाँ जी, और इसमें निंद्य होने का भी क्या कारण? इसमें शास्त्रा के प्रमाण बहुत से हैं और युक्ति तो हई है। पहिले यही देखिए कि इस क्षौर कर्म से दो मनुष्यों को अर्थात् वह कन्या और उसके स्वजन इनको बहुत ही दुःख होगा ओर उसके प्रतिबंध से सबको परम आनंद होगा। तब यहाँ इस वचन को देखिए-
 
”येन केनाप्युपायेन यस्य कस्यापि देहिनः।
 
संतोष जनयेत् प्राज्ञस्तदेवेश्वर पूजनं ।।“
 
बुभु.: और ऐेसे बहुत से उदाहरण भी इसी काशी में होते आए हैं। दूसरा काशीखंड ही में कहा है ‘येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसीगतिः।’
 
चंबूभट्ट: मूर्खतागार का भी यह वाक्य है ‘अधवा वाललवनं जीव- नाद्र्दनवद्भवेत्’। संतोषसिंधु में भी ‘सकेशैव हि संस्थाप्या यदि स्यात्तोषदा नृणां’।
 
महाश: दीक्षित जी! बूटी झाली-अब छने जल्दी कारण बहुत प्यासा जीव होऊन गेला अणखी अझून पुष्कल ब्राह्मण सांगायचे आहेत।१
 
बुभु.: (भांग की गोली और जल, बरतन, कटोरा, साफी लेकर) शास्त्री जी! थोड़े से बढ़ा तर।२
 
माधव शास्त्री: दीक्षित जी! हें माँझ काम नह्नं, कारण मी अपला खाली पीण्याचा मालिक आहे, मला छानतां येत नाहीं।३ (गोपाल शास्त्री की ओर दिखलाकर) ये इसमें परम प्रवीण हैं।
 
गोपाल शास्त्री: अच्छा दीक्षित जी, मीच आलों सही।४
 
चंबूभट्ट: (इन सबों को अपने काम में निमग्न देखकर) बरें मग महाश अखेरीस तड़ाचे किसी ब्राह्मण सहस्रभोजनावे व बसंत पूजेचे किती?५
 
महाश!: दीक्षिताचे तड़ांत आज एकंदर २५ ब्राह्मण; पैंकीं १५ सहस्र भोजनाकड़े आणि १० वसंतपूजेकड़े-६
 
माधव शास्त्री: आणि सभेचे?१
 
महाश: सभेचे तर भी सांगीतलेंच कीं धनतुंदिल शास्त्रीचे अधिकारांत आहे, आणि दोन तीन दिवसांत ते बंदोबस्त करणार आहेत।२
 
गप्प पंडित: क्यों महाश! इस सभा में कोई गौड़ पंडित भी हैं वा नहीं?
 
महाश: हाँ पंडित जी, वह बात छोड़ दीजिए, इसमें तो केवल दाक्षिणात्य, द्राविण और क्वचित् तैलंग भी होंगे, परंतु सुना है कि जो इसमें अनुमति करेंगे वे भी अवश्य सभासद होंगे।
 
गप्प पंडित: इतना ही न, तब तो मैंने पहिले ही कहा है, माधव शास्त्री! अब भाई यह सभा दिलवाना आपके हाथ में है।
 
माधव: हाँ पंडित जी, मैं तो अपने शक्त्यनुसार प्रयत्न करता हूँ, क्योंकि प्रायः काका धनतुंदिल शास्त्री जो कुछ करते हैं उसका सब प्रबंध मुझे ही सौंप देते हैं। (कुछ ठहर कर) हाँ, पर पंडित जी, अच्छा स्मरण हुआ, आपसे और न्यू फांड ;छमू विदकद्ध शास्त्री से बहुत परिचय है, उन्हीं से आप प्रवेश कीजिए, क्योंकि उनसे और काका जी से गहरी मित्रता है।
 
गप्प पंडित: क्या क्या शास्त्री जी? न्यू-क्या? मैंने यह कहीं सुना नहीं।
 
गोपाल: कभी सुना नहीं इसी हेतु न्यू फांड।
 
गप्प पंडित: मित्र! मेरा ठट्टा मत करो। मैं यह तुम्हारी बोली नहीं समझता। क्या यह किसी का नाम है? मुझे मालूम होता है कि कदाचित् यह द्रविड़ त्रिलिंग आदि देश के मनुष्य का नाम होगा। क्योंकि उधर की बोली मैंने सुनी है उसमें मूर्द्धन्य वर्ण प्रायः बहुत रहते हैं।
 
माधव शास्त्री: ठीक पंडित जी, अब आप का तर्कशास्त्रा पढ़ना आधा सफल हुआ। अस्तु ये इधर ही के हैं जो आप के साथ रामनगर गए थे, जिन्होंने घर में तमाशे वाले की बैठक की थी-
 
गप्प पंडित: हाँ, हाँ, अब स्मरण हुआ, परंतु उनका नाम परोपकारी शास्त्री है और तुम क्या भांड कहते हो?
 
गोपाल शास्त्री: वह पंडित जी, भांड नहीं कहा फांड कहा-न्यू फांड अर्थात् नये शौखीन। सारांश प्राचीन शौखीन लोगों ने जो जो कुछ पदार्थ उत्पन्न किए, उपभुक्त किए उन ही उनके उच्छिष्ट पदार्थ का अवलंबन करके वा प्राचीन रसिकों की चाल चलन को अच्छी समझ हमको भी लोक वैसा ही कहे आदि से खींच खींच के रसिकता लाना, क्या शास्त्री जी ऐसा न इसका अर्थ?
 
माधव शास्त्री: भाई, मुझे क्यों नाहक इसमें डालते हो-
 
गप्प पंडित: अच्छा, जो होय मुझे उसके नाम से क्या काम। व्यक्ति मैंने जानी परंतु माधव जी आप कहते हैं और मुझसे उनसे भी पूर्ण परिचय है और उनको उनका नाम सच शोभता है, परंतु भाई वे तो बड़े आढ्य मान्य हैं और कंजूस भी हैं-और क्या तुमसे उनसे मित्रता मुझसे अधिक नहीं है। यहाँ तक शयनासन तक वे तुमको परकीय नहीं समझते।
 
माधव शास्त्री: पंडित जी! वह सर्व ठीक है, परंतु अब वह भूतकालीन हुई। कारण ‘अति सर्वत्रा वर्जयेत्’-
 
बुभु.: हाँ पंडित जी! अब क्षण भर इधर बूटी को देखिए, लीजिए। (एक कटोरा देकर पुनः दूसरा देते हैं)
 
गप्प पंडित: वाह दीक्षित जी, बहुत ही बढ़िया हुई।
 
चंबूभट्ट: (सब को बूटी देकर अपनी पारी आई देखकर) हाँ-हाँ दीक्षित जी, तिकड़ेच खतम करा भी आज कल पीत नाहीं।१
 
गोपाल माधव: काँ भट जो! पुरे आतां, हे नखरे कुठे शिकलात, या-प्या-हवेने व्यर्थ थंडी होते।२
 
चंबूभट्ट: नाहीं भाई भी सत्य साँगतों, भला सोसत नाहीं। तुम्हाला माझे नखरे वाटतात पण हे प्रायः इथले काशीतलेच आहेत, व अपल्या सारख्यांच्या परम प्रियतम सफेत खड़खड़ीत उपर्णा पाँघरणार अनाथा बालानींच शिकविलेंन बरें।१
 
(सब आग्रह करके उसको पिलाते हैं)
 
महाश: कां गुरु दीक्षित जी अब पलेती जमविली पाहिजे।२
 
बुभु.: हाँ भाई, घे तो बंटा आणि लाव तर एक दोन चार।३
 
महाश: (इतने में अपना पान लगाकर खाता है और दीक्षित जी से)
 
दीक्षित जी, १५ ब्राह्मण ठोक्याच्या कमर्यांत पाटावा, दाहा बाजतां पानें माँडलो जातील, आणि आज रात्राी बसंतपूजेस १० ब्राह्मण लवकर पाठवा कारण मग दूसरे तड़ाचे ब्राह्मण येतील (ऐसा कहता हुआ चला जाता है)४
 
बुभु.: (उसको पुकारते हुए जाते हैं) महाश! दक्षिणा कितनी?
 
(महाश वहीं से चार अंगुली दिखाकर गडा कहकर गया)
 
माधव: दीक्षित जी! क्या कहीं बहरी ओर चलिएगा?
 
गोपाल: (दीक्षित से) हाँ गुरु, चलिए आज बड़ी वहाँ लहरा है।
 
बुभु.: भाई बहरीवर मी जाऊन इकडचा बन्दोबस्त कोण करील?५
 
गोपाल: अं: गुरू इतके १५ ब्राह्मण्यांत घबड़ावता। सर्वभक्षास साँगीतले ब्राह्मण जे झाले। न्यू फांड की पत्ती है।६
 
गप्प पंडित: क्या परोपकारी की पत्ती है? खाली पत्ती दी है कि और भी कुछ है? नाहीं तो मैं भी चलूँ।
 
माधव शास्त्री: पत्ती क्या बड़ी-बड़ी लहरा है, एक तो बड़ा भारी प्रदर्शन होगा और नाना रीति के नाच, नए नए रंग देख पड़ेंगे।
 
गप्प पंडित: क्यों शास्त्री जी, मुझे यह बड़ा आश्चर्य ज्ञात होता है और इससे परिहासोक्ति सी देख पड़ती है। क्योंकि उसके यहाँ नाच रंग होना सूर्य का पश्चिमाभिमुख उगना है।
 
गोपाल: पंडित जी! इसी कारण इनका नाम न्यू फांड है। और तिस पर यह एक गुह्य कारण से होता है। वह मैं और कभी आप से निवेदन करूँगा, वा मार्ग में-
 
बु.भु.: (सर्वभक्ष नाम अपने लड़के को सब व्यवस्था कहकर आप पान पलेती और रस्सी लोटा और एक पंखी लेकर) हाँ भाई, मेरी सब तैयारी है।
 
माधव गोपाल: चलिए पंडित जी वैसे ही धनतुंदिल शास्त्री जी के यहाँ पहुँचेंगे। (सब उठर बाहर आते हैं।)
 
चंबूभट्ट: मैं तो भाई जाता हूँ क्योंकि संध्या समय हुआ।
 
(चला जाता है)
 
गप्प पंडित: किधर जाना पड़ेगा?
 
माधव शास्त्री: शंखोध्यारा क्योंकि आजकल श्रावण मास में और कहाँ लहरा? धराऊ कजरी, श्लोक, लावनी, ठुमरी, कटौवल, बोली ठोली सब उधर ही।
 
गप्प पंडित: ठीक है शास्त्री जी, अब मेरे ध्यान में पहुँचा, आजकाल शंखोध्यारा का बड़ा माहात्म्य है। भला घर पर यह अब कहाँ सुनने में आवेगा? क्योंकि इसमें धराऊ विशेषण दिया है।
 
गोपाल: आः हमारा माधव शास्त्री जहाँ है वहाँ सब कुछ ठीक ही होगा, इसका परम आश्रय प्राणप्रिय रामचंद्र बाबू आपको विदित है कि नहीं? उसे यहाँ ये सब नित्य कृत्य हैं।
 
गप्प पंडित: रामचंद्र हम ही को क्या परंतु मेरे जान प्रायः यह जिसको विदित नहीं ऐसा स्वल्प ही निकलेगा। विशेष करके रसिकों को; उसको तो मैं खूब जानता हूँ।
 
गोपाल: कुछ रोज हमारे शास्त्री जी भी थे, परंतु हमारा क्या उनका कहिए ऐसा दुर्भाग्य हुआ कि अब वर्ष वर्ष दर्शन नहीं होने पाता। रामचंद्र जी तो इनको अपने भ्राते के समान पालन करते थे और इनसे बड़ा प्रेम रखते थे। अस्तु सारांश पंडित वहाँ रामचंद्र जी के बगीचे में जाएँगे। वहाँ सब लहरा देख पड़ेगी और इस मिस से तौ भी उनका दर्शन होगा।
 
बुभु.: अरे पहिले नवे शौखिनाचे इथे जाउँ तिथे काय आहे हें पाहूँ आणि नंतर रामचंदाकड़े झुकूं।१
 
माधव शास्त्री: अच्छा तसेच होय आजकल न्यू फांड शास्त्री यानी ही बहुत उदारता धरली आहे बहुत सी पाखरें ही चारती आहेत तो सर्वदृष्ट्रीस पड़तील पण भाई भी आँत यायचा नाहीं। कारण मला पाहून त्यांना त्रास होतो।२
 
गोपाल.: अच्छा तिथ वर तर चलशील आगे देखा जायगा।३
 
(सब जाते हैं और जवनिका गिरती है)
 
 
(इति) घिस्सधिसद्विज कृत्य विकर्तनी नाम चतुर्थ गर्भाकं
 
 
 
<big>।। प्रथम अंक समाप्त हुआ ।। </big>
 
==काव्यकृतियाँ==
 
=== [[ नये ज़माने की मुकरी ]] ===
नये जमाने की मुकरी
 
जब सभाविलास संगृहित हुई थी, तब वैसा ही काल था कि (क्यौं सखि सज्जन ना सखि पंखा) इस चाल की मुकरी लोग पढ़ते-पढ़ाते थे किन्तु अब काल बदल गया तो उसके साथ मुकरियाँ भी बदल गईं । बानगी दस पाँच देखिए
 
 
 
 
सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
 
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।।
 
भीतर तत्व न झूठी तेजी ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।।
 
 
 
तीन बुलाए तेरह आवैं ।
 
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।।
 
आँखौ फूटे भरा न पेट ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।।
 
 
 
<big>सुंदर बानी कहि समुझावै ।
 
बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।।
 
दयानिधान परम गुन-आगर ।
 
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।। </big>
 
 
 
<big>सीटी देकर पास बुलावै ।
 
रुपया ले तो निकट बिठावै ।।
 
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।। </big>
 
 
 
<big>धन लेकर कछु काम न आव ।
 
ऊँची नीची राह दिखाव ।।
 
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।। </big>
 
 
 
<big>मतलब ही की बोलै बात ।
 
राखै सदा काम की घात ।।
 
डोले पहिने सुंदर समला ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि अमला ।।</big>
 
 
 
<big>रूप दिखावत सरबस लूटै ।
 
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।।
 
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।। </big>
 
 
 
<big>भीतर भीतर सब रस चूसै ।
 
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।।
 
जाहिर बातन मैं अति तेज ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।। </big>
 
 
 
<big>सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
 
तरह तरह की बात सुनाव ।।
 
घर बैठा ही जोड़ै तार ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।। </big>
 
 
 
<big>एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
 
जनमावै ऐसा मजबूत ।।
 
करै खटाखट काम सयाना ।
 
सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।।</big>
 
 
 
<big>नई नई नित तान सुनावै ।
 
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।।
 
नित नित हमैं करै बल-सून ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।।</big>
 
 
 
<big>इनकी उनकी खिदमत करो ।
 
रुपया देते देते मरो ।।
 
तब आवै मोहिं करन खराब ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।। </big>
 
 
 
<big>लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
 
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।।
 
देस देस डोलै सजि साज ।
 
क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।।</big>
 
 
 
<big>मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
 
जाति मान धन सब कुछ लूटै ।।
 
पागल करि मोहिं करे खराब ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।। </big>
 
 
 
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=== [[ बन्दर सभा ]] (हास्य व्यंग) ===
 
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<big>आना राजा बन्दर का बीच सभा के,
 
सभा में दोस्तो बन्दर की आमद आमद है।
 
गधे औ फूलों के अफसर जी आमद आमद है।
 
मरे जो घोड़े तो गदहा य बादशाह बना।
 
उसी मसीह के पैकर की आमद आमद है।
 
व मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख
 
व मोटे ओठ मुछन्दर की आमद आमद है ।।
 
हैं खर्च खर्च तो आमद नहीं खर-मुहरे की
 
उसी बिचारे नए खर की आमद आमद है ।। १</big>
 
 
 
<big>बोले जवानी राजा बन्दर के बीच अहवाल अपने के,
 
पाजी हूँ मं कौम का बन्दर मेरा नाम।
 
बिन फुजूल कूदे फिरे मुझे नहीं आराम ।।
 
सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार।
 
जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार ।।
 
लाओ जहाँ को मेरे जल्दी जाकर ह्याँ।
 
सिर मूड़ैं गारत करैं मुजरा करैं यहाँ ।। २</big>
 
 
 
<big>आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा में,
 
आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।
 
गोया गहमिल से व लैली उतरी आती है ।।
 
तेल और पानी से पट्टी है सँवारी सिर पर।
 
मुँह पै मांझा दिये लल्लादो जरी आती है ।।
 
झूठे पट्ठे की है मुबाफ पड़ी चोटी में।
 
देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है ।।
 
पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी।
 
हाथ में पायँचा लेकर निखरी आती है ।।
 
मार सकते हैं परिन्दे भी नहीं पर जिस तक।
 
चिड़िया-वाले के यहाँ अब व परी आती है ।।
 
जाते ही लूट लूँ क्या चीज खसोटूँ क्या शै।
 
बस इसी फिक्र में यह सोच भरी आती है ।। ३</big>
 
 
 
<big>गजल जवानी शुतुरमुर्ग परी हसन हाल अपने के,
 
गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा।
 
ऐ लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा ।।
 
फन्दे से मेरे कोई निकले नहीं पाता।
 
इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा ।।
 
दो चार टके ही पै कभी रात गँवा दूँ।
 
कारूँ का खजाना कभी इनआम है मेरा ।।
 
पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना।
 
बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा ।।
 
शुरफा व रुजला एक हैं दरबार में मेरे।
 
कुछ सास नहीं फैज तो इक आम है मेरा ।।
 
बन जाएँ जुगत् तब तौ उन्हें मूड़ हा लेना।
 
खली हों तो कर देना धता काम है मेरा ।।
 
जर मजहबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं जर की।
 
जर ही मेरा अल्लाह है जर राम है मेरा ।। ४</big>
 
 
 
<big>(छन्द जबानी शुतुरमुर्ग परी)
 
राजा बन्दर देस मैं रहें इलाही शाद।
 
जो मुझ सी नाचीज को किया सभा में याद ।।
 
किया सभा में याद मुझे राजा ने आज।
 
दौलत माल खजाने की मैं हूँ मुँहताज ।।
 
रूपया मिलना चाहिये तख्त न मुझको ताज।
 
जग में बात उस्ताद की बनी रहे महराज ।। ५</big>
 
 
 
<big>ठुमरी जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
 
आई हूँ मैं सभा में छोड़ के घर।
 
लेना है मुझे इनआम में जर ।।
 
दुनिया में है जो कुछ सब जर है।
 
बिन जर के आदमी बन्दर है ।।
 
बन्दर जर हो तो इन्दर है।
 
जर ही के लिये कसबो हुनर है ।। ६</big>
 
 
 
<big>गजल शुतुरमुर्ग परी की बहार के मौसिम में,
 
आमद से बसंतों के है गुलजार बसंती।
 
है फर्श बसंती दरो-दीवार बसंती ।।
 
आँखों में हिमाकत का कँवल जब से खिला है।
 
आते हैं नजर कूचओ बाजार बसंती ।।
 
अफयूँ मदक चरस के व चंडू के बदौलत।
 
यारों के सदा रहते हैं रुखसार बसंती ।।
 
दे जाम मये गुल के मये जाफरान के।
 
दो चार गुलाबी हां तो दो चार बसंती ।।
 
तहवील जो खाली हो तो कुछ कर्ज मँगा लो।
 
जोड़ा हो परी जान का तैयार बसंती ।। ७<big>
 
 
 
<big>होली जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
 
पा लागों कर जोरी भली कीनी तुम होरी।
 
फाग खेलि बहुरंग उड़ायो ओर धूर भरि झोरी ।।
 
धूँधर करो भली हिलि मिलि कै अधाधुंध मचोरी।
 
न सूझत कहु चहुँ ओरी।
 
बने दीवारी के बबुआ पर लाइ भली विधि होरी।
 
लगी सलोनो हाथ चरहु अब दसमी चैन करो री ।।
 
सबै तेहवार भयो री ।। ८</big>
 
 
 
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[[श्रेणी:भारतीय]]