"श्रीराम शर्मा": अवतरणों में अंतर

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==विविध विषयों पर==
* अच्छे विचार ही मनुष्य को सफलता और जीवन देते हैं ।
 
* किसी का भी अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है ।
 
* जूठन छोड़ कर अन्न भगवान का तिरस्कार ना करें ।
 
* अपनी प्रशंसा पर गर्वित होना ही चापलूसी को प्रोत्साहन देना है ।
 
* बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है ।
 
* बाज़ार में वस्तुओं की कीमत दूसरे लोग निर्धारित करते हैं, पर मनुष्य अपना मूल्यांकन स्वयं करता है और वह अपना जितना मूल्यांकन करता है उससे अधिक सफलता उसे कदपित नहीं मिल पाती ।
 
* अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कारित एवं चरित्र को परिष्कृत बनाने वाले साधक को गायत्री महाशक्ति मातृवत् संरक्षण प्रदान करती है ।
 
* ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री पाठ करने से चित शुद्ध होता है, हृदय में निर्मलता आती है और शरीर निरोग रहता है ।
 
* डरना केवल दो से चाहिए, एक ईश्वर के न्याय से और दूसरे पाप अनाचार से ।
 
* दूसरों की परिस्तिथि में हम अपने को रखें, अपनी परिस्थिति में दूसरों को रखें और फिर विचार करें की इस स्तिथि में क्या सोचना और करना उचित है? ।
 
* प्रत्येक व्यक्ति जो आगे बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं , उन्हें यह मानकर चलना चाहिए परमात्मा ने उसे मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर भेजते समय उसकी चेतना में समस्त संभावनाओं के बीज डाल दिये हैं ।
 
* बुद्धि को निर्मल, पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने का महामंत्र है – गायत्री मंत्र ।
 
* अपनी रोटी मिल- बाँटकर खाओ, ताकि तुम्हारे सभी भाई सुखी रह सकें ।
 
* आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाई ही खोजता है ।
 
* व्यभिचार के, चोरी के, अनीति बरतने के, क्रोध एवं प्रतिशोध के, ठगने एवं दंभ, पाखंड बनाने के कुविचार यदि मन में भरे रहें तो मानसिक स्वास्थ्य का नाश ही होने वाला है ।
 
* अपनी गलतियों को ढूँढना, अपनी बुरी आदतों को समझना, अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को अनुभव करना और उन्हें सुधारने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहना यही जीवन संग्राम है ।
 
* अपनी छोटी – मोटी भूलों के बारे में हम यही आशा करते हैं कि लोग उन पर बहुत ध्यान न देंगे, ‘क्षमा करो और भूल जाओ’ की नीति अपनावे तो फिर हमे भी उतनी ही उदारता मन में क्यों नहीं रखनी चाहिये ।
 
* गायत्री को इष्ट मानने का अर्थ है – सत्प्रवृति की सर्वोत्कृष्टता पर आस्था ।
 
* सच्चा ज्ञान वह है, जो हमारे गुण , कर्म, स्वभाव की त्रुटियाँ सुझाने, अच्छाईयाँ बढ़ाने एवं आत्म – निर्माण की प्रेरणा प्रस्तुत करता है ।
 
* बाहरी शत्रु उतनी हानि नहीं कर सकते, जितनी अंतः शत्रु करते हैं ।
 
* आत्मिक समाधान के लिए कुछ क्षड़ ही पर्याप्त होते हैं ।
 
* जल्दी सोना , जल्दी उठना शरीर और मन की स्वस्थता को बढ़ाता है ।
 
* तृष्णा नष्ट होने के साथ ही विपत्तियाँ भी नष्ट होती हैं”
 
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* चरित्र के उत्थान एवं आत्मिक शक्तियों के उत्थान के लिए इन तीनों सद्गुणों-होशियारी, सज्जनता और सहनशीलता का विकास अनिवार्य है।