"भारतेंदु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ६:
== मौलिक नाटक ==
 
===<big>[[वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति]]</big>===
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===<big>[[वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति]]</big>===
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<big><big>'''प्रहसन'''</big>
 
 
Line ४२ ⟶ ३७:
 
 
<big>'''प्रथम अंक'''</big>
 
 
Line २०८ ⟶ २०३:
 
 
<big>'''द्वितीय अंक'''</big>
 
 
Line ३७३ ⟶ ३६८:
 
 
<big>'''तृतीय अंक'''</big>
 
 
Line ६४८ ⟶ ६४३:
 
 
<big>'''चतुर्थ अंक'''</big>
 
 
Line ८२० ⟶ ८१५:
इति चतुर्थो।
 
समाप्तं प्रहसनं।</big></big>
 
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===[[सत्य हरिश्चन्द्र]] (१८७५)===
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''' सत्य हरिश्चंद्र ''' भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित चार अंकों का नाटक है। काशी पत्रिका नामक पाक्षिक हिन्दी पत्र में प्रकाशित यह नाटक पहली बार १८७६ ई. में बनारस न्यु मेडिकल हाल प्रेस में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।
 
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'''<big>कथानक</big>'''
 
<big>
इस में सूर्य कुल के राजा हरिश्चन्द्र की कथा है।
 
 
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'''<big>अंक विभाजन</big>'''
<big>
* प्रथम अंक- इन्द्रसभा
* द्वितीय अंक- हरिश्चन्द्र की सभा
Line ८५२ ⟶ ८३२:
 
 
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'''<big>अथ सत्यहरिश्चन्द्र</big>'''
 
<big><big>(मंगलाचरण)</big>
 
 
Line ९०५ ⟶ ८८४:
 
इतिप्रस्तावना
<big><big>
 
 
 
'''<big>प्रथम अंक</big>'''
 
<big><big>
 
 
जवनिका उठती है
 
Line १,०५३ ⟶ १,०२६:
 
।। इति प्रथम अंक ।।
<big><big>
 
 
 
 
'''<big>दूसरा अंक</big>'''
 
<big><big>
 
 
स्थान राजा हरिश्चन्द्र का राजभवन।
 
Line १,०९३ ⟶ १,०५९:
रा. : (हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है)
 
ब्रा. : महाराज गुरूजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है। इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा लें और फिर थोड़ा स पान भी कर लें और यह रक्षाबंधन भेजा है। इसे कुमार रोहिताश्व की दहनी भुजा पर बांध दें फिर इस जल से मैं मार्जन करूंगा।करूँगा।
 
रा. : (नेत्रा में जल लगाकर और कुछ मंुह फेर कर आचमन करके) मालती, यह रक्षाबन्धन तू सम्हाल के अपने पास रख। जब राोहितास्व मिले उस के दहने हाथ पर बाँध दीजियो।
Line १,३१६ ⟶ १,२८२:
 
'''<big>तीसरा अंक</big>'''
<big>(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क)</big>
 
<big>(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क)
 
 
 
Line १,४४१ ⟶ १,४०५:
वि. : (आप ही आप) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण फिर बहक गई कुछ इन्द्र के कहने ही पर नहीं हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है पर क्या करें इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूंगा तब तक मेरा संतोष न होगा (आगे देखकर) अरे यही दुरात्मा (कुछ रुककर) वा महात्मा हरिश्चंद्र है। (प्रगट) क्यों रे आज महीने में कै दिन बाकी है। बोल कब दक्षिणा देगा?
 
ह. : (घबड़ाकर) अहा! महात्मा कौशिक। भगवान् प्रणाम करता हूं। (दंडवतदंडवत् करता है)।
 
वि. : हुई प्रणाम, बोल तैं ने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ अब मैं एक क्षण भर भी न मानूंगा। दे अभी नहीं तो-(शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं।)
Line १,५१९ ⟶ १,४८३:
शै. : (राजा के कपड़े में सोना बांधती हुई) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होंगे। (रोती हुई उपाध्याय से) आर्य आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का भली भांति दर्शन कर लूं। फिर यह मुख कहाँ और मैं कहाँ।
 
उ. : हाँ हाँ मैं जाता हूं।हूँ। कौडिन्य यहाँ है,, तुम उसके साथ आना। (जाता है)
 
शै. : (रोकर) नाथ मेरे अपराधों को क्षमा करना।
Line ४,६६६ ⟶ ४,६३०:
 
 
(इति) घिस्सधिसद्विज कृत्य विकर्तनी नाम चतुर्थ गर्भाकं </big>
 
(इति) घिस्सधिसद्विज कृत्य विकर्तनी नाम चतुर्थ गर्भाकं </big>
 
 
 
<big>।। प्रथम अंक समाप्त हुआ ।। </big>
 
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===सती प्रताप(१८८३,केवल चार अंक,गीतिरूपक)===
 
 
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==काव्यकृतियाँ==