"श्रीराम शर्मा": अवतरणों में अंतर

रूप ठीक किया।
→‎सूक्ति व कथन: स्थान ठीक किया।
पंक्ति १:
'''[[:hi:w:श्री राम शर्मा|श्रीराम शर्मा]]''' (२० सितम्बर १९११ - ०२ जून १९९०) भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया।
 
==सूक्ति व कथन==
* जिस समाज में लोग एक दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, सुख संपत्ति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुये स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे देव-समाज कहते हैं। जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक सम्बन्ध बनाये रखता है तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियां बनी रहती हैं।
देव-समाज कहते हैं| जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक सम्बन्ध बनाये रखता है तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियां बनी रहती हैं|
 
* पाप, दुराचार, अनीति, छल एवं अपराधों की प्रवृत्तियां जहाँ पनप रही होंगी वहाँ प्रगति का मार्ग रुक जाएगा और पतन की व्यापक परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगेगी|लगेगी। मनुष्य की वास्तविक प्रगति एवं शांति तो पारस्परिक स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग पर निर्भर रहती है, यदि वह प्राप्त न हो सके तो विपुल साधन सामग्री पाकर भी सुख-शान्ति के दुर्लभ ही रहेंगे|रहेंगे।
 
* अच्छे व्यक्तित्व अच्छे समाज में ही जन्मते, पनपे और फलते-फूलते हैं|हैं। जिस समाज का वातावरण दूषित तत्वों से भरा हुआ रहता है, उसकी अगली पीढ़ियाँ क्रमशः अधिक दुर्बल एवं पतित बनती चली जाती है| है। धन कमाने, पद प्राप्त करने या चातुर्य दिखाने में कोई व्यक्ति सफल हो जाये तो भी यदि वह भावना और कर्तृत्व की दृष्टि से गिरा हुआ है तो उसे सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय व्यक्ति ही माना जाएगा। उसकी सफलतायें उसके लिए सुविधाजनक हो सकती हैं, पर उनसे देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति का कुछ भी भला नहीं हो सकता|सकता।
 
* नम्रता, सज्जनता, कृतज्ञता, नागरिकता एवं कर्तव्य परायणता की भावना से ही किसी का मन ओत-प्रोत रहे ऐसे पारस्परिक व्यवहार का प्रचलन हमें करना चाहिए|चाहिए। दूसरों के दु:ख सुख सब लोग अपना दु:ख-सुख समझें और एक दूसरे की सहायता के लिए तत्परता प्रदर्शित करते हुए संतोष अनुभव करें, ऐसा जनमानस निर्माण किया जाना चाहिए| चाहिए। जिस समाज में मनुष्य की महत्ता का मूल्यांकन धन के आधार पर होता है, वह कभी उच्चस्तरीय प्रगति करने कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता|सकता।
 
* समाज के निर्माण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि अपने अपने परिवार के नव-निर्माण कार्य में प्रत्येक ग्रहस्थ पूरी रूचिरुचि लेने लगे। समाज की नवरचना दंपत्ति जीवन को परिष्कृत करने से होगी। इस प्रकार आत्मनिर्माण की प्रक्रिया आरंभ करके परिवार, समाज एवं आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत, समुन्नत बना सकना संभव होगा, यह विचार हमें जन-मानस में भली प्रकार हृदयंगम करा देना चाहिए। समाज के नव=निर्माण का मूल आधार यही है।
 
* समय की पाबंदी, वचन का पालन, पैसे का विवेकपूर्ण सद्व्यय, सज्जनता और सहिष्णुता, श्रम का सम्मान, शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार, ईमानदारी की कमाई, अनैतिकता से घृणा, प्रसन्नतापूर्ण मुखाकृति, आहार और विहार का संयम, समूह के हित में स्वार्थ का परित्याग, न्याय और विवेक का सम्मान, स्वच्छता और सादगी की यह हमारे सामाजिक गुण होने चाहिये।
 
* सभ्य समाज वह है जिसमें हर नागरिक को अपना व्यक्तित्व विकसित करने एवं प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए समान रूप से अवसर मिले। इस मार्ग में जितनी भी बाधायें हो उन्हें हटाया जाना चाहिए। हमें सामाजिक न्याय का ऐसा प्रबंध करना होगा कि हर व्यक्ति निर्बाध गति से प्रगति का समान अवसर प्राप्त कर सके।
 
* जब श्रेष्ठ व्यक्ति घट जाते हैं और सामाजिक वातावरण में उत्कृष्टता बनाये रखने के रचनात्मक प्रयास शिथिल हो जाते हैं तो समाज का स्तर गिर जाता है। समाज गिरेगा तो उस काल के व्यक्ति भी निकृष्ट, अधःपतित और दीन दुर्बल बनते चले जायेंगे। अच्छा समाज- अच्छे व्यक्ति उत्पन्न करता है और अच्छे व्यक्ति अच्छा समाज बनाते हैं। दोनों अन्योन्याश्रित हैं।
 
* अच्छे व्यक्तियों की आवश्यकता हो तो अच्छा समाज बनाने के लिए जुटना चाहिये । च्छाअच्छा समाज बनाने पर ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व की आवश्यकता पूरी होगी। सुख साधनों का अभिवर्धन और समुन्नत लोक-व्यवहार का प्रचलन ही सर्वतोमुखी सुख-शान्ति की आवश्यकता पूरी करता है और इस प्रकार का उत्पादन प्रखर प्रतिभासंपन्न सुसंस्कृत व्यक्ति ही कर सकने में समर्थ होते हैं।
 
* समाज में यदि अनैतिक, अवांछनीय, आपराधिक तत्व भरे पड़े हैं तो उन की हलचलें, हरकतें- किसी संत, सज्जन की उत्कृष्टता को सुरक्षित नहीं रहने दे सकती। विकृत समाज में असीम विकृतियाँ उत्पन्न होती है और अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न करती है। उनकी लपेट में आये बिना कोई नीतिवान व्यक्ति भी रह नहीं सकता।
 
* व्यक्ति-निर्माण और परिवार-निर्माण की तरह ही समाज-निर्माण भी हमारे अत्यंत आवश्यक दैनिक कार्यक्रमों का अंग माना जाना चाहिए। अपने लिए हम जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च करते हैं, उतना ही समाज को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए लगाना चाहिए। यह परोपकार परमार्थ की दृष्टि से ही नहीं विशुद्ध स्वार्थ-साधन और सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है। भारतीय संस्कृति की सुनिश्चित परंपरा है कि वैयक्तिक और पारिवारिक प्रयोजनों के लिए किसी को भी आधे से अधिक समय एवं मनोयोग नहीं लगाना चाहिये।
 
*राष्ट्रीय दृष्टि से स्वार्थपरता, व्यक्तिवाद, असहयोग, संकीर्णता हमारा एक प्रमुख दोष है। सारी दुनिया परस्पर सहयोग के आधार पर आगे बढ़ रही है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह परस्पर सहयोग के आधार पर ही बढ़ा और समुन्नत हुआ है। जहाँ प्रेम, ममता, एकता, आत्मीयता, सहयोग और उदारता है वहीँ स्वर्ग रहेगा।
 
* धर्म और आध्यात्मअध्यात्म की शिक्षा भी यही है कि व्यक्ति अपने लिये धन,वैभव जमा न करके अपनी प्रतिभा, बुद्धि, क्षमता और संपदा को जीवन निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकता के लिए ही उपयोग करें और शेष जो कुछ बचता हो सबको सामूहिक उत्थान में लगा दें। जिस समाज में ऐसे परमार्थी लोग होंगे वही फलेगा, फूलेगा और वही सुखी रहेगा।
*राष्ट्रीय दृष्टि से स्वार्थपरता, व्यक्तिवाद, असहयोग, संकीर्णता हमारा एक प्रमुख दोष है। सारी दुनिया परस्पर सहयोग के आधार पर आगे बढ़ रही है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह परस्पर सहयोग के आधार पर ही बढ़ा और समुन्नत हुआ है। जहाँ प्रेम, ममता, एकता, आत्मीयता, सहयोग और उदारता है वहीँ स्वर्ग रहेगा।
 
* विचार-क्रांति किए बिना समाज-निर्माण की आधारशिला नहीं रखी जा सकेगी। ज्ञान-यज्ञ के बिना सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वतोमुखी संभावनायें प्रस्तुत कर सकने वाले नवयुग का अवतरण नहीं हो सकेगा। हमें हनुमान आदि की तरह- पांडवों की तरह-धर्म की स्थापना कर सकने वाले अधर्म-विरोधी अभियान में अपने आप को झोकना चाहिए। सभ्य समाज की रचना के लिए कुरीतियों और अनैतिकताओं के दोहरे मोर्चे पर लड़ा जाना आवश्यक है।
*धर्म और आध्यात्म की शिक्षा भी यही है कि व्यक्ति अपने लिये धन,वैभव जमा न करके अपनी प्रतिभा, बुद्धि, क्षमता और संपदा को जीवन निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकता के लिए ही उपयोग करें और शेष जो कुछ बचता हो सबको सामूहिक उत्थान में लगा दें। जिस समाज में ऐसे परमार्थी लोग होंगे वही फलेगा, फूलेगा और वही सुखी रहेगा।
 
* अनाचार प्रायः हर क्षेत्र में अपनी जड़ें गहरी करता चला जा रहा है। इसके खतरों से जन-साधारण को सचेत किया जाना चाहिए। लोकमानस में अवांछनीयता के प्रति विरोध, असहयोग एवं विद्रोह की भावनायें जगाई जानी चाहिए। कुड़कुड़ाते रहने की अपेक्षा अनीति से जूझने की संघर्षात्मक चेतना उभारी जानी चाहिये और उसका सजीव मार्गदर्शन हमें आगे बढ़कर करना चाहिए।
*विचार-क्रांति किए बिना समाज-निर्माण की आधारशिला नहीं रखी जा सकेगी। ज्ञान-यज्ञ के बिना सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वतोमुखी संभावनायें प्रस्तुत कर सकने वाले नवयुग का अवतरण नहीं हो सकेगा। हमें हनुमान आदि की तरह- पांडवों की तरह-धर्म की स्थापना कर सकने वाले अधर्म-विरोधी अभियान में अपने आप को झोकना चाहिए। सभ्य समाज की रचना के लिए कुरीतियों और अनैतिकताओं के दोहरे मोर्चे पर लड़ा जाना आवश्यक है।
 
* कम से कम इतना तो संघर्ष हर मोर्चे पर हममेंहम में से हर किसी को करना चाहिये कि अनीति एवं अनौचित्य के साथ कोई संबंध न रखें- समर्थन न करें- सहयोग न दें। उससे पूरी तरह अलग रहें और समय-समय पर अपने असहयोग एवं विरोध को व्यक्त करते रहें। जहाँ, जो संभव हो अनीति के विरुद्ध मोर्चा बनाया ही जाना चाहिए। ताकि आततायी, अनाचारियों को निर्भय होकर कुछ भी करते रहने की छूट न मिले।
*अनाचार प्रायः हर क्षेत्र में अपनी जड़ें गहरी करता चला जा रहा है। इसके खतरों से जन-साधारण को सचेत किया जाना चाहिए। लोकमानस में अवांछनीयता के प्रति विरोध, असहयोग एवं विद्रोह की भावनायें जगाई जानी चाहिए। कुड़कुड़ाते रहने की अपेक्षा अनीति से जूझने की संघर्षात्मक चेतना उभारी जानी चाहिये और उसका सजीव मार्गदर्शन हमें आगे बढ़कर करना चाहिए।
 
* समाज में पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना, केवल सरकार का ही काम नहीं है वरन उसका पूरा उत्तरदायित्व सभ्य नागरिकों पर है। प्रबुद्ध और मनस्वी लोग जिस बुराई के विरुद्ध आवाज उठाते हैं वह आज नहीं तो कल मिटकर रहती है।
*कम से कम इतना तो संघर्ष हर मोर्चे पर हममें से हर किसी को करना चाहिये कि अनीति एवं अनौचित्य के साथ कोई संबंध न रखें- समर्थन न करें- सहयोग न दें। उससे पूरी तरह अलग रहें और समय-समय पर अपने असहयोग एवं विरोध को व्यक्त करते रहें। जहाँ, जो संभव हो अनीति के विरुद्ध मोर्चा बनाया ही जाना चाहिए। ताकि आततायी, अनाचारियों को निर्भय होकर कुछ भी करते रहने की छूट न मिले।
 
* सामाजिक कुरीतियों और सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का कायम रहना सज्जनों के भीविपत्ति का कारण ही रहेगा। व्यक्ति कितनी ही उन्नति कर ले, पतित वातावरण में यह उन्नति भी बालू की दिवार की तरह अस्थिर रहेगी। जैसे हमें जितनी व्यक्तिगत उन्नति की चिंता है उतना ही सामाजिक उन्नति का भी ध्यान रखना होगा और इसके लिए हर सम्भव प्रयत्न करना होगा। इस दिशा में की हुई उपेक्षा हमारे अपने लिये ही घातक होगी।
*समाज में पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना, केवल सरकार का ही काम नहीं है वरन उसका पूरा उत्तरदायित्व सभ्य नागरिकों पर है। प्रबुद्ध और मनस्वी लोग जिस बुराई के विरुद्ध आवाज उठाते हैं वह आज नहीं तो कल मिटकर रहती है।
 
* हमारी सामाजिक क्रांति का अर्थ देश में प्रचलित कुरीतियों को हटा देने मात्र तक सीमित नहीं रहना चाहिए, वरन एक सभ्य, सुरक्षित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना होनी चाहिये। सज्जनता को जन-मानस का सहज स्वभाव बनाया जा सका तो आज की भयंकर दिखाई देने वाली कुरीतियाँ अनायास ही नष्ट हो जायेगी।
*सामाजिक कुरीतियों और सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का कायम रहना सज्जनों के भीविपत्ति का कारण ही रहेगा। व्यक्ति कितनी ही उन्नति कर ले, पतित वातावरण में यह उन्नति भी बालू की दिवार की तरह अस्थिर रहेगी। जैसे हमें जितनी व्यक्तिगत उन्नति की चिंता है उतना ही सामाजिक उन्नति का भी ध्यान रखना होगा और इसके लिए हर सम्भव प्रयत्न करना होगा। इस दिशा में की हुई उपेक्षा हमारे अपने लिये ही घातक होगी।
 
*हमारी सामाजिक क्रांति का अर्थ देश में प्रचलित कुरीतियों को हटा देने मात्र तक सीमित नहीं रहना चाहिए, वरन एक सभ्य, सुरक्षित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना होनी चाहिये। सज्जनता को जन-मानस का सहज स्वभाव बनाया जा सका तो आज की भयंकर दिखाई देने वाली कुरीतियाँ अनायास ही नष्ट हो जायेगी।
 
==बाह्य सूत्र==