मनु स्मृति

एक हिंदू धर्मशास्त्र
  • चुगली, साहस कर्म, द्रोह, ईर्ष्या , असूया, अर्थदूषण, कठोर वचन और क्रूरता - ये आठ क्रोधजन्य व्यसन हैं। (7.48)
  • विद्वानों ने दोनों प्रकार के व्यसनों का मूल लोभ कहा है। उस लोभ को प्रयत्न से जीतें। (7.49)
  • काम जन्य व्यसनों में मद्यपान, जुआ, स्त्री सहवास व शिकार यथाक्रम अत्यन्त दुखदायी है। (7.50)
  • मृत्यु और व्यसन में व्यसन ही विशेष कष्टप्रद है क्योकि व्यसनी पुरुष निरन्तर नीचे गिरता जाता है तथा अव्यसनी स्वर्ग प्राप्त करता है। (7.53)
  • सुसाध्य कर्म भी कोई केवल अकेले नहीं कर सकता है फिर महान फल वाले राजकाज को सहायकों से रहित राजा अकेला कैसे चला सकता है। (7.55)
  • राजा को चाहिए की मंत्रियों में जो शूर, दक्ष, श्रेस्ठ कुल वाले सदाचारी हों उन्हें खान एवम अन्न भंडार आदि पर नियुक्त करे तथा भीरु स्वभाव का पुरुषों को अन्तःपुर के सामान्य कार्यों पर लगाए। (7.62)
  • चेष्ठा से मनोभाव समझने वाले पवित्र, चतुर तथा कुलीन पुरुष को दूत नियुक्त करे। (7.64)
  • अकामस्य किया काचिद् दृश्यते नेह कहिंचित्।
यद्यद्धि कुरुते किञ्चितत्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥
इस जगत् में कभी भी बिना इच्छा के कोई भी जया या कर्म सम्पन्न होता दिखाई नहीं देता है, क्योंकि मनुष्य जो जो कर्म करता है, वह कर्म उसकी इच्छा की ही चेष्टा का परिणाम है-ऐसा मानना चाहिये।
  • वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विराम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मस्तुष्टिरेव च ॥
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वेदज्ञाताओं मनु आदि के स्मृति ग्रन्थ तथा उनका शिष्ट व्यवहार, महापुरुषों के सत्याचरण, अपने मन की प्रसन्नता-ये सभी धर्म के प्रमाण रूप में ग्रहण करने चाहिए।
  • यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः।
स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः॥
मनु ने जिन सम्पूर्ण चारों वर्गों के गुणस्वभावादि धर्मों का उल्लेख किया है। वे सब वेदों में कहे गये है, क्योंकि भगवान मनु समस्त वेदों के अर्थ ज्ञाता है।
  • श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिठन् हि मानवः।
इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम॥
मनुष्य वेदों व स्मृतियों में कहे गये धर्म का सेवन करते हुए संसार में निर्मल कीर्ति प्राप्त करता है तथा मृत्यु के पश्चात् परलोक में परमानन्द को अधिगत कर लेता है।
  • योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥
जो कोई विद्वान द्विज धर्म की मूलाधार श्रुतियों एवं स्मृतियों की निन्दा या अपमान करे तो सत्पुरुषों को उस वेद निन्दक अधम व्यक्ति को समस्त श्रेष्ठ कर्मों से अलग कर देना चाहिए।
  • एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्त्रं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
ऋषि संसार के मनुष्यों को सम्बोधित करते हैं कि भूतल के सम्पूर्ण मनुष्यों की ब्रह्मावर्त देश में उत्पन्न ज्ञान साधनारत ब्राह्मण के चरित्र से अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
  • आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः ॥
पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य में जो प्रदेश ( भू-भाग ) विराजमान है, उसे विद्वान् पुरुष ' आर्यावर्त ' नाम से जानते हैं।
  • वैदिकेः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिद्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कार : पावनः प्रेत्य चेह च ॥
भृगु ऋषि निर्देश देते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्गों के पवित्र वैदिक मन्त्रों द्वारा इस लोक में तथा मृत्यु पश्चात् सम्पूर्ण शारीरिक गर्भाधानादि संस्कार अवश्य करने चाहिए।
  • प्राड्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते।
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरभ्यमधुसर्पिषाम ॥
इस श्लोक में नवजात बालकों का जातकर्म संस्कार का विधान बताया जाता है। यथा नाल काटने से पूर्व नवजात शिशु का जातकर्म संस्कार सम्पन्न होता है। इस समय स्वर्ण को सलाई से घृत, मधुमिश्रित प्राशन किया जाता है। अर्थात् बालक का पिता मन्त्र-उच्चारण पूर्वक बच्चे को मधु और घी चटाता है और बच्चे की जीभ पर ' ओउम् ' लिखता है।
  • माडुल्य ब्राह्मणस्य त्र्याक्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥
ब्राह्मण शिशु का नाम मांगलिक, क्षत्रिय शिशु का नाम बल युक्त, वैश्य के बालक का नाम समृद्धि सूचक तथा शुद्ध के बच्चे का नाम निन्दनीय होना चाहिये।
  • चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्कमणं गृहात्।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मलं कुले ॥
चतुर्थ मास में बालकों को घर से बाहर निकालना चाहिये। छठेमास में दाल-भात आदि सुपाच्य आहार देना चाहिये। अथवा कुल के अनुसार मांगलिक सभी आचार सम्पादित करने चाहिये।
  • गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वोत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तुं द्वादशे विशः ॥
ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य के शिशु का गर्भ से बारहवें वर्ष में सम्पन्न कराना चाहिये।
  • अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।
सावित्रीपतिताः व्रत्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ॥
पूर्वोक्त समय के बाद ये तीनों ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य वर्ण समुचित समय में जिनका उपनयन संस्कार सम्पादित नहीं हुआ है गायत्री मन्त्र के अधिकार से वंचित अतः पतित एवं शिष्टों द्वारा निन्दनीय शूद्रत्व के प्राप्त कर लेते हैं।
  • कार्ष्णंरौरववास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः।
वसीरन्नानुपूर्वेण शाणक्षौमाविकानि च ॥
यहाँ भृगुऋषि तीनों वर्गों के ब्रह्मचारियों के लिए धारणा करने योग्य वस्त्रों का विधान बतलाते हैं। ब्राह्मण आदि वर्गों के ब्रह्मचारी क्रमशः कृष्णमृग, रूरूमृग तथा बकरे के चमड़े की धोती एवं कौपीन के स्थान पर धारण करें, और सन, रेशम और भेड़ के बाल अर्थात् ऊन से बने हुए वस्त्रों को धारण करें।
  • केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणत।
ललाटसम्मितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः ॥
अब ऋषि ब्रहाचारियों के धारण योग्य दण्ड का मान बताते हैं। धर्मशास्त्र के प्रमाणानुसार ब्राहाण अपने सिर के केशों तक, क्षत्रिय मस्तक पर्यन्त और वैश्य नाक पर्यन्त परिमाण अनुवाद ( लम्बाई ) वाले दण्ड को धारण करे।
  • प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्।
प्रदक्षिणं परीत्याग्नि चरेद् भैक्षं यथाविधि ॥
ब्राह्मणादि वर्गों के ब्रह्मचारियों को शास्त्र के नियमानुसार अपने इष्ट दण्ड को ग्रहण कर सूर्य का उपस्थान कर, अग्नि को प्रदक्षिणा कर भिक्षाचरण करना चाहिए।
  • मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनी निजाम्।
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ॥
ब्रह्मचारी को सबसे पहले अपनी माता, अपनी बहिन, तथा मौसी से भिक्षा की याचना करनी चाहिए और उन्हें भी किसी प्रकार ब्रह्मचारी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
  • उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः।
भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत ॥
ब्रह्मचारी तथा गृहस्थद्विज भी एकाग्रचित हो आचमन कर जल से आचमन करे तथा इन्द्रियों, आँख, नाक तथा कानों के छिन्द्रो को भी जल स्पर्श करे।
  • नोच्छिप्टं कस्यचिद्दद्यान्नद्याच्चैव तथाऽन्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिप्टः क्वचित् व्रजेत् ॥
किसी को जूठा भोजन नहीं देना चाहिए। प्रातः और सायंकाल के भोजन के अतिरिक्त बीच में भोजन नहीं करना चाहिए अत्यधिक भोजन नहीं लेना चाहिए। कहीं भी जूठे मुँह नहीं जाना चाहिए।
  • ब्राह्मण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्।
कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥
विप्र को सदा ब्राह्म नामक तीर्थ से अथवा प्राजापत्य और दैवतीर्थों से आचमन करना चाहिए, पितृतीर्थ द्वारा तो कभी भी आजमन नहीं करना चाहिए।
  • अष्ठमूलस्य तले बाह्य तीर्थ प्रचक्षते।
कायम लिमूलेऽगे दैवं पियं तयोरधः ॥
हाथ के अंगूठे के पास ब्राह्म तीर्थ, कनिष्ठिका अंगुली के मूल के पास 'प्रजापति' तीर्थ, अंगुलियों के आगे 'दैवतीर्थ' और अंगूठे तथा प्रदेशिनी ( तर्जनी ) अंगुली के मध्य पितृतीर्थ होता है।
  • मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत् ॥
ब्रह्मचारी के यदि मेखला, मृग चर्म, पालाशादि से बना हुआ दण्ड, यज्ञोपवीत, कमण्डलु-ये नष्ट हो गये हों तो इन्हें जल में फेंककर अन्य नवीन मन्त्रपाठपूर्वक ग्रहण कर लेने चाहिए।
  • वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृत।
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥
नारियों का पाणि-ग्रहण संस्कार ही गृहम सूत्रों में कहा गया संस्कार है। निष्ठापूर्वक पतिसेवा ही गुरूकूल में निवास है। गृहकार्य को कुशलता से करना ही यज्ञ का अनुष्ठान है।
  • अध्येष्यमाणस्त्वाचान्तो यथाशास्त्रमुदङ्मुखः।
ब्रह्माञ्जलिकृतोऽध्याप्यो लधुवासा जितेन्द्रियः ॥
विद्याध्यन के लिये उद्यत, आचमन किया हुआ, ब्रह्मान्जलि से युक्त, अल्प और हलके वस्त्र धारण करने वाला, इन्द्रियजयी शिष्य ही शास्त्रानुसार अध्यापन के योग्य है।
  • ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्रवत्यनोड्कृतं पूर्वं पुरस्ताच्चविशीर्यति ॥
वेद-विधा के अध्ययन की विधि बतलाई जाती है। ब्रह्मचारी को सदा अपने गुरूचरणों में वेदाध्ययन के पूर्व और अवसान में ' ओमकार ' का उच्चारण करना चाहिए क्योंकि ' ओऽम ' इस मंत्र के उच्चारण से विहीन वेदाध्ययन शनैः शनैः नष्ट हो जाता है विस्मृत हो जाता है।
  • एतयर्चा विसंयुक्तः काले न कियया स्वया।
ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां जाति साधुषु ॥
इस गायत्री महामन्त्र के जप से और अपने सदाचारादि कर्तव्यों से विरहित हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सज्जनों में निन्दा को प्राप्त करता है।
  • योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत खमूर्तिमान् ॥
जो द्विज आलस्य छोड़कर प्रतिदिन प्रणय और व्यहतियों के साथ गायत्री-महामन्त्र का तीन वर्षपर्यन्त जप करता है, वह इस मन्त्र के प्रभाव से अपना गायत्री मन्त्रमय परमात्मा के अनुग्रह से आकाशरूप होकर सच्चिदानन्दस्वरूप पर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
  • एकादशं मनोज्ञयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मिजिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥
मन अपने गुणों के प्रभाव से ग्यारहवीं उभयात्मक ( दोनों ही ) अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भी है। इसीलिए मन के जीत लेने पर ये दोनों ज्ञान व कर्मेन्द्रियाँ स्वमेव विजित हो जाती है।
  • वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कहिंचित्॥
दूषित हृदय वाले व्यक्ति का वेदाध्ययन, त्याग, यज्ञादि का अनुष्ठान, यम-नियमों का पालन, अभ्यास ये कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करते हैं।
  • आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः।
आप्त : शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मत ॥
कौन-कौन शिक्षा देने योग्य हैं? इस सम्बन्ध में कहते हैं कि आचार्य का पुत्रः सेवापरायण, अन्य विषय की शिक्षा या गुरू को व्यवहार के सम्बन्ध में परामर्श देने वाला, धर्मतत्पर, पवित्र मन वाला, श्रेष्ठ, सत्यवादी, पाठ को धारण करने में समर्थ, धन देने वाला, सज्जन और स्वजातीय में दश ही गुरू के द्वारा धर्मानुसार अध्यापन योग्य हैं।
  • नापृष्टः कस्यचिद् ब्रू यान्न चान्यायेन पृच्छतः।
जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥
बुद्धिमान मनुष्य को यह उचित है कि वह श्रद्धापूवक प्रश्न न करने वाले को अथवा अन्याय के साथ पूछने वाले को उत्तर न दे। वह जानकार होते हुए भी जड़ या मूर्ख की भाँति आचरण करें।