लक्षण
लक्षण, लिङ्ग या विशेषता या पहचान। लक्ष्यते ज्ञायते अनेन इति लक्षणम् (इसकी सहायता से देखा और जाना जाता है, अतः यह लक्षण है।) । किसी भी लक्षण में जब तीन दोष (अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव) न हों तभी उसे लक्षण कहा जाता है।
जहाँ लक्षण, लिंगी के अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी घट सके वहाँ 'अतिव्याप्ति' दोष होता है। अर्थात किसी लक्षण या कथन के अंतर्गत लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य वस्तु के आ जाने का दोष । उदाहरण के लिये 'चौपाए सब पिंडज है', इस कथन में मगर और घड़ियाल आदि चार पैरवाले अंडज भी आ जाते है । अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष है ।
विभिन्न वस्तुओं के लक्षण
सम्पादन- लक्षणलक्षणम्
- असाधारण धर्मः लक्षणः --
- असाधारण धर्म को लक्षण कहते हैं।
- परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्। -- राजवार्तिक/2/8/2/119/6
- परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो, वह उसका लक्षण होता है।
- लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्। -- न्यायविनिश्चय/टीका/1/3/85/5
- जिसके द्वारा पदार्थ लक्ष्य किया जाये, उसको लक्षण कहते हैं।
- व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्। -- न्यायदीपिका/1/3/5/9
- मिली हुई वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को (चिह्न को) लक्षण कहते हैं।
- उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्। -- न्यायदर्शन सूत्र/टीका/1/1/2/8/7
- उद्दिष्ट (नाम मात्र से कहे हुए) पदार्थ के अयथार्थ (विपरीत या असत्य) बोध के निवारण करने वाले धर्म को लक्षण कहते हैं।
- तल्लक्षणं द्विविधम्आत्मभूतमनात्मभूतं चेति। तत्र आत्मभूतमग्नेरौष्ण्यम्, अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः। -- राजवार्तिक/2/8/3/119/11
- लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार होता है। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दंडी पुरुष का मेदक दण्ड अनात्मभूत है।
- द्विविधं लक्षणम्, आत्मभूतमनात्ममूतं चेति। तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम्, यथाग्नेरौष्ण्यम्। औष्ण्यं ह्यग्नेः स्वरूपं सदग्निमवादिभ्यो व्यावर्त्तयति। तद्विपरीतमनात्मभूतम्, यथादंडः पुरुषस्य। दंडिनमानयेत्युक्ते हि दंडः पुरुषाननुप्रवष्टिः एव पुरुषं व्यावर्त्तयति। -- न्यायदीपिका/1/4/6/4
- लक्षण के दो भेद हैं − आत्मभूत और अनात्मभूत। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं जैसे अग्नि की उष्णता। यह उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई अग्नि को जलादि पदार्थों से जुदा करती है। इसलिए उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे – दंडीपुरुष का दंड। दंडी को लाओ ऐसा करने पर दंड पुरुष में न मिलता हुआ ही पुरुष को पुरुष भिन्न पदार्थों से पृथक् करता है। इसलिए दंड पुरुष का अनात्मभूत लक्षण है।
- सदोषलक्षणं लक्षणाभासम्। -- न्यायदीपिका/1/5/7/22 की टीका
- मिथ्या अर्थात् सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं।
- त्रयोलक्षणाभासभेदाः अव्याप्तमतिव्याप्तमसंभवि चेति। तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम्, यथा गोः शावलेयत्वम्। लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम् यथा तस्यैव पशुत्वम्। बाधितलक्ष्यवृत्त्यसंभवति, यथा नरस्य विषाणित्वम्। -- न्यायदीपिका/1/5/7/5
- लक्षणाभास के तीन भेद हैं − अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभवि। लक्ष्य के एक देश में लक्षण के रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे - गाय का शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे − गाय का ही पशुत्व लक्षण करना। यह पशुत्व गाय के सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्य में बिलकुल ही न रहे वह असंभवि लक्षणाभास है। जैसे − मनुष्य का लक्षण सींग। सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता। अतः वह असंभवि लक्षणाभास है।
- लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरितः। यथा वर्णादियुक्तत्वमसिद्धं सर्वथात्मनि। -- मोक्ष पंचाशत/17
- लक्ष्य में उत्पन्न न होना सो असंभव दोष का लक्षण है, जैसे आत्मा में वर्णादि की युक्ति असिद्ध है।
- सूत्र के लक्षण
- संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च ।
- अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम् ॥ --
- (व्याकरण के) सूत्रों की 6 श्रेणियां हैं - १-संज्ञासूत्र, २-परिभाषासूत्र, ३-विधिसूत्र, ४-नियमसूत्र, ५-अतिदेशसूत्र, और ६-अधिकारसूत्र।
- भाष्य के लक्षण
- सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदैः सुत्रानुसारिभिः।
- स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥
- जिस ग्रन्थ में सूत्र में आये हुए पदों से सूत्रार्थ का वर्णन किया जाता है, तथा ग्रंथकार अपने द्वारा पद प्रस्तुत कर उनका वर्णन करता है, उस ग्रंथ को भाष्य के जानकार लोग "भाष्य" कहते हैं।
- वार्त्तिक के लक्षण
- उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।
- तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुवर्तिकज्ञा मनीषिणः ॥
- व्याख्यान के लक्षण
- पदच्छेदः पदार्थोक्तिर् विग्रहो वाक्ययोजना।
- आक्षेपेषु समाधानं व्याख्यानं पञ्चलक्षणम् ॥ -- महीधर
- पदच्छेद, प्रतिपाद्य का अभिकथन, व्युत्पत्ति का प्रदर्शन, वाक्य की योजना, आक्षेप और समाधान रूपी छः विधियों का अनुप्रयोग करते हुए किसी शास्त्र के उस ग्रन्थ का व्याख्यान किया जाय जो सूत्रों की संहति में प्रस्तुत हुआ हो तो उस ग्रन्थ का निहितार्थ सम्यक् रूप से उद्घाटित हो जाता है। व्याख्याकार सर्वप्रथम व्याख्येय प्रसंग के वाक्यों को पदों में बांटता है। इसी को पदच्छेद अथवा अन्वय कहते हैं।
- पुराण के लक्षण
- सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
- वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥ -- अमरकोष
- (१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन (२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन (३) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन, देवता व ऋषियों की सूचियाँ (४) मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और (५) वंशानुचरित (सूर्य चंद्रादि वंशीय चरित) ।
- महाकाव्य के लक्षण
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं :
- जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है। इसमें देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं। शृंगार, वीर और शांत में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं। कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है। चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक उसका फल होता है। आरंभ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है। कहीं खलों की निंदा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है। न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छंद में की जाती है और सर्ग के अंत में छंदपरिवर्तन होता है। कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं। सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रात:काल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए (साहित्यदर्पण, परिच्छेद 6,315-324)।
- महापुरुष के लक्षण
- विद्यार्थी के लक्षण
- काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
- अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम्॥
- विद्वान के लक्षण
- सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च विद्वत्प्रणामंच सुशीलता च।
- एतानि योधारयते स विद्वान् न के वलंयः पठते स विद्वान्॥
- सत्य, तप (अपने धर्म से न डिगना) ज्ञान, अहिंसा (किसी का दिल न दुखाना) विद्वानों का सत्कार, शीलता, इनको जो धारण करता है वह विद्वान् है केवल पुस्तक पढ़ने वाला नहीं।
- शास्त्रारायधीत्यपि भवन्तिमूर्खायस्तु क्रियावान् पुरुषः सविद्वान्।
- सुचिन्तितंचौषध मातुराणाँ न नाममात्रेण हरोत्यरोगम्॥
- शास्त्र पढ़ कर भी मूर्ख रहते हैं परन्तु जो शास्त्रोक्त क्रिया को करने वाला है वह विद्वान् है। रोगी को नाम मात्र से ध्यान की हुई औषधि निरोग नहीं कर सकती।
- सन्त के लक्षण
- तितिक्षव: कारुणिका: सुहृदः सर्वदेहिनाम्।
- आजातशत्रवः शान्ता: साधवः साधुभूषणा:॥ -- श्रीमद्भागवत
- जिसमें तितिक्षा, करुणा होती है ; जो प्राणीमात्र का हितैषी है,जो किसी को शत्रु नहीं मानता, शांत है, परमार्थी है और सद्गुणों का भंडार है वह संत है।
- षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
- अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥
- सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥ -- रामचरितमानस
- भावार्थ - वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर)- इन छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी, सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण।
- निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
- सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥
- भावार्थ : सन्तजन कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, नीति को कभी नहीं त्यागते, सरल स्वभाव और सभी के साथ प्रीति रखते हैं।
- बुद्धि के लक्षण
- शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
- ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥
- शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं ।
- ज्ञान के लक्षण
- अक्रोधो वैराग्यो जितेन्द्रियश्च क्षमा दया सर्वजनप्रियश्च।
- निर्लोभो मदभयशोकरहितो ज्ञानस्य एतत् दश लक्षणानि॥
- ज्ञान के ये दश लक्षण हैं- क्रोध न करना, वैराग्य, इन्द्रियों पर विजय, क्षमा, दया, सभी जनों को प्रिय, लोभ रहित, मद से रहित, भयरहित, शोकरहित।
- धर्म के लक्षण
- धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
- धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्॥ -- मनुस्मृति
- धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध )
- धूर्त के लक्षण
- मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला।
- हृदयं कर्तरितुल्यं त्रिविधं धूर्तलक्षणम्॥ -- समयोचितपद्यमालिका
- कमलपत्र के आकार का मुख, चन्दन के समान शीतल वाणी और छुरीसमान तेज धार वाला मन - ये धूर्त व्यक्ति के तीन लक्षण हैं।
- मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला ।
- हृदयं क्रोधसंयुक़्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ॥
- मुख पद्मदल के आकार का, वाणी चंदन जैसी शीतल, और ह्रदय क्रोध से भरा हुआ – ये तीन धूर्त के लक्षण हैं ।
- मूर्ख के लक्षण
- मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
- क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
- मूर्ख के पाँच लक्षण हैं: गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों-विचारों का अनादर।
- मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं मुखे।
- हठी चैव विषादी च परोक्तं नैव मन्यते॥
- मूर्खों के पांच लक्षण होते हैं- अहंकारी होना, सदैव कड़वी बात करना, अत्यंत जिद्दी होना, हर समय विषादग्रस्त रहना, और दूसरों की बात न मानना।
- सुख-दुःख के लक्षण
- सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
- एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥ -- मनुस्मृति ४/१६०
- किसी भी प्रकार से परवश (दूसरे के अधीन) होना दुःख है, और स्वाधीन रहना ही सुख है। यही संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जानो ।
- आरोग्य के लक्षण
- अन्नाभिलाषो भुक्तस्य परिपाकः सुखेन च ।
- सृष्टविण्मूत्रवातत्वं शरीरस्य च लाघवम् ॥
- सुप्रसन्नेन्द्रियत्वं च सुखस्वप्न प्रबोधनम् ।
- बलवर्णायुषां लाभः सौमनस्यं समाग्निता ॥
- विद्यात् आरोग्यलिंङ्गानि विपरीते विपर्ययम् । –- काश्यपसंहिता, खिलस्थान, पञ्चमोध्यायः
- भोजन करने की इच्छा, अर्थात भूख समय पर लगती हो, भोजन ठीक से पचता हो, मलमूत्र और वायु के निष्कासन उचित रूप से होते हों, शरीर में हलकापन एवं स्फूर्ति रहती हो, इन्द्रियाँ प्रसन्न रहतीं हों, मन की सदा प्रसन्न स्थिति हो, सुखपूर्वक रात्रि में शयन करता हो, सुखपूर्वक ब्रह्ममुहूर्त में जागता हो; बल, वर्ण एवं आयु का लाभ मिलता हो, जिसकी पाचक-अग्नि न अधिक हो न कम, उक्त लक्षण हो तो व्यक्ति निरोगी है अन्यथा रोगी है।
- मित्र के लक्षण
- पापान्निवारयति योजयते हिताय,
- गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटी करोति।
- आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
- सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ -- भर्तृहरि के नीतिशतकम् से
- महात्मा लोग एक अच्छे मित्र के ये लक्षण बताते हैं- श्रेष्ठ मित्र अपने मित्र को बुरे कर्मों से बचाता है और उसे अच्छे कार्यों में लगाता है। अपने मित्र की कमियों को छुपाता है अर्थात् दूसरों के समक्ष उसके दोषों को प्रकट नहीं करता है और सदैव मित्र के गुणों को ही प्रकट करता है। श्रेष्ठ मित्र विपत्ति में पड़े अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता और समय पड़ने पर उसकी धन आदि से उसकी सहायता भी करता है।
- माया के लक्षण
- अनादिभावरूपं यद्विज्ञानेन प्रलीयते ।
- तदज्ञानमिति प्राज्ञा लक्षणं सम्प्रचक्षते ॥ -- चित्सुखाचार्य, तत्त्वप्रदीपिका
- अनादिभावरूपत्वे सति ज्ञाननिवर्त्यत्वम् -- मधुसूनसरस्वती, अद्वैतसिद्धि में
- जो अनादिभावरूपत्व होने पर ज्ञान का निवर्त्य करवाती है, वह अविद्या है।
- गुसाई तुलसीदास जी सन्मित्र के लक्षण इस प्रकार कथन करते हैं :—
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिनहिं विलोकत पातक भारी॥
- जिन दुख गिरिसम रज करजाना। मित्र के दुख रज मेरु समाना॥
- जिनके असमति सहज न आई। ते शठ कत हठि करत मिताई॥
- देत लेत मन संक न धरईं। बल अनुमान सदा हित करईं॥
- कुपथ निवारि सुपथ चलावा। गुण प्रगटइ अवगुणहिं दुरावा॥
- विपत्ति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
योग सिद्धि के लक्षण
सम्पादन- लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च ।
- गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ॥ -- शेताश्वर उपनिषद्, अध्याय-१३
- शरीर का हलकापन, किसी प्रकार के रोग का नहीं होना, विषयासक्ति की निवृत्ति, शारीरिक वर्ण की उज्ज्वलता, स्वर की मधुरता, शरीर में सुगंध और मलमूत्र कम हो जाना। योग की पहली सिद्धि के लक्षण हैं।
हठसिद्धि के लक्षण
सम्पादन- वपुःकृशत्व वदने प्रसन्नता
- नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले।
- अरोगता बिन्दुजयोऽग्निदीपनम्
- नाडीविशुद्धिहंठसिद्धिलक्षणम्॥ – हठप्रदीपिका 2/28
- शरीर में हलकापन, मुख पर प्रसन्नता, स्वर में सौ ठव, नयनों में तेजस्विता, रोग का अभाव, बिंद पर नियंत्रण, जठराग्नि की प्रदीप्ति तथा नाड़ियों की विशुद्धता - ये सब हठसिद्धि के लक्षण हैं।
मन्त्र-सिद्धि के लक्षण
सम्पादनऋषियों ने मंत्रसिद्धि के और बहुत से लक्षण बताए हैं।
- स्वप्न में दही-चावल खाना, सफेद वस्त्र पहनना, शरीर में सफेद चंदन का लेप करना, खून से अपने आपको नहाते देखना, सिंहासन रथ, ध्वजा और गहना देखना, अपना या किसी दूसरे का राज्याभिषेक देखना, गुरु, देवता, ब्राह्मण, कन्या, हाथी, घोड़ा, सिंह, दर्पण, शंख और वाद्ययंत्र देखना, पकवान, मिठाई या पान खाना, मोतियों की माला पहनना, तेज तपता हुआ सूर्य देखना, पानी, दूध या शराब से भरा घड़ा देखना, मछली, घी या गोरोचन देखना। वेदमंत्र या मंगल गान सुनना, घोड़ी, भैंस, शेरनी, गाय या हथिनी का दूध दुहते देखना, अपना सिर कटते हुए देखना, पितर, गाय, ब्राह्मण या राजा को देखना। सोने-चांदी के बर्तन में खुद को भोजन करते देखना- यह सब सिद्ध मंत्र सिद्धि के लक्षण हैं।
हेतु और हेत्वाभास के लक्षण
सम्पादन- पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, अवाधितत्व और असत् प्रतिपक्षत्व - ये हेतु के पाँच लक्षण हैं। हेतु का आभास (हेत्वाभास) तब होता है जब हेतु के पाँचों लक्षणों का अभाव हो।
- सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीताः हेत्वाभासाः ॥
- सूत्र का अर्थ -- सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, कालातीत (ये पाँच तरह के) हेत्वाभास (कहे गये) हैं।
विविध
सम्पादन- रूप, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और वाक्पटुता ये दस लक्षण स्वर्ग के कारण हैं।
- बल, वर्ण एवं आयु का लाभ मिलता हो, जिसकी पाचक-अग्नि न अधिक हो न कम, उक्त लक्षण हो तो व्यक्ति निरोगी है अन्यथा रोगी है।
- शत दद्यान्न विवदेदिति विज्ञस्य संमतम् ।
- विना हेतुमपि द्वन्द्वमेतन्मूर्खस्य लक्षणम् ॥ -- हितोपदेश
- सैकड़ों की हानि करके भी विवाद न करे, यह ज्ञानी का लक्षण है। बिना कारण के कलह कर बैठना मूर्ख का लक्षण है।
- चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः । -- पूर्वमीमांसा
- ईश्वर ने वेदों में मनुष्यों के लिये जिसके करने की आज्ञा दी है वही धर्म है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका)
- तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके ।
- भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि ॥
- तर्कविहीन वैद्य, लक्षणविहीन पंडित, और भावरहित धर्म – ये अवश्य ही जगत में हंसी के पात्र बनते हैं।
- अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्कः -- न्यायसूत्र 1.1.42
- जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले "ऊह" ज्ञान का नाम है "तर्क"।
- ब्राह्मण वाले लक्षण न हों तो वह ब्राह्मण नहीं होता। अभिप्राय यह है कि लक्षणों और कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति उस वर्ण का होता है जिसके लक्षण या कर्म वह ग्रहण...
- आत्म-प्रशंसा ओछेपन का लक्षण है। -- वैस्कल