रमेश चन्द्र मजुमदर

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रमेशचन्द्र मजुमदार (4 दिसम्बर 1888 – 11 फरवरी 1980) एक इतिहासकार एवं भारतीय इतिहास के एक प्राध्यापक थे। वे प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास के अच्छे ज्ञाता थे। भारतीय इतिहास लेखन में उनका योगदान मौलिक एवं तथ्यों पर आधारित हैं। उन्होंने अनुभव किया कि आधुनिक भारतीय इतिहासकार वस्तुनिष्ठता से हटकर राजनैतिक नीतियों और सिद्धान्तों की और उन्मुख हो रहा हैं और सरकार इतिहासकारों को पद और प्रतिष्ठा से आकर्षित कर रही है। उनका इतिहास-लेखन ऐतिहासिक व्याख्या और निष्पक्ष राष्ट्रीयता के विचारों से प्रेरित हैं। उनके इतिहास-लेखन की विशेषताओं को देखकर ही उनको एक राष्ट्रीय इतिहासकार कहा गया हैं।

उनका इतिहास दर्शन उनकी विविध पुस्तकों से प्रतिबिम्बित होता हैं। कारपोरेट इन ऐन्शियन्ट इण्डिया उनकी प्रमुख कृति हैं। बंगाल का इतिहास तथा जावा पर उनके शोधपूर्ण ग्रन्थ अपना स्वतन्त्र महत्व रखते हैं। डा. राय चौधरी के साथ मिलकर उन्होंने ADVANCED HISTORY OF INDIA नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें प्राचीन से आधुनिक समय तक के भारतीय इतिहास का विवरण मिलता हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भारतीय विधा भवन को स्थापित कर भारत का वृहत इतिहास पुनः लिखने के लिए मजूमदार को सम्पादक बनाया जहाँ से मजूमदार ने HISTORY AND CULTURE OF INDIAN PEOPLE सीरीज का किया था। इसमे उन्होंने प्रारम्भिक काल से महमूद गजनवी तक का विवरण दिया हैं, साथ ही भारतीय इतिहास को तीन खण्ड़ों में विभाजित किया प्राचीन काल, प्रारम्भ से 1000 ई. तक मध्यकाल 1000 ई. से 1818 ई. तक और आधुनिक काल 1818 ई. से आगे तक निर्धारित किया गया हैं। इस लेखन कार्य में मजूमदार के रूढ़िवादी विचार स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसमें प्रथम बार लिखा गया हैं कि हिन्दू-मुस्लिम दो पृथक संस्कृतियाँ हैं, जो असत्य नहीं पर दोनों में समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता को रेखांकित करने का प्रयास नहीं किया गया। मूलत: एक यह लेखन कार्य भी राजनीतिक सीरीज बनकर रह गया। इन तीनों खण्ड़ों का अनुवाद पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष डा. योगेन्द्र मिश्र ने 1954 ई., 1958 ई. तथा 1961 ई. में किया। तीसरे खण्ड़ में भारत-पाक विभाजन, रियासतों के विलय और भारत को संविधान के सारांश को परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को नये अर्थ में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से मजूमदार ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम पर अनेक खण्ड़ों में ग्रन्थ की रचना की हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेन्ट में उन्होंने यह बताने का प्रयास किया हैं कि वस्तुतः कौन-कौन सी घटनाएं कब घटित हुई। यह ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में 11 वोल्यूम्स में प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य प्रकाशित रचनाएं- दि वाकाटक, गुप्त, दि क्लासिकल एज: द वैदिक एज, द एज ऑफ इम्पीरियल यूनिटी: क्लासिकल एकाउण्ट्स ऑफ इण्डिया, द स्ट्रगल फॉर एम्पायर, द इज ऑफ इम्पिरियल कन्नौज आदि। उन्होंने हेरास स्मारक भाषण माला में इतिहास लेखन से संबंधित जो व्याख्यान दिया वह बाद में HISTORYGRAPHY IN MODERN INDIA नाम से प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक THE HISTORY AND CULTURE OF INDIAN PEOPLE एक राष्ट्रीय भावना से पूर्ण इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करती हैं।

  • प्राचीन भारतीय राज्य के विस्तार, धन के अधिग्रहण और व्यापार, उद्योग और वाणिज्य के विकास के प्रति उत्सुक थे। इन विभिन्न तरीकों से उन्होंने जो भौतिक समृद्धि प्राप्त की, वह उस विलासिता और लालित्य में परिलक्षित होती थी जो समाज की विशेषता थी।... भारतीयों की साहसिक भावना उन्हें उत्तरी सागर तक भी ले गई, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करते थे। -- रमेशचन्द्र मजूमदार, प्राचीन भारत, 1977, पृ. 210-216.
  • ...यह एक अशुभ संकेत है कि सरकारी हलकों में भारतीय इतिहास को हालिया राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन का आधिकारिक इतिहास इस आधार पर शुरू होता है कि भारत ने अठारहवीं शताब्दी में अपनी स्वतंत्रता खो दी थी और इस प्रकार उसे केवल दो शताब्दियों तक विदेशी शक्ति के अधीन रहना पड़ा। दूसरी ओर, वास्तविक इतिहास हमें सिखाता है कि अठारहवीं शताब्दी में केवल स्वामी बदल गए थे और भारत के बड़े भूभाग की स्वतंत्रता उससे भी ने लगभग पांच शताब्दी पहले छीन ली गयी थी। -- 1962 में प्रकाशित भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का निश्चित इतिहास (Definitive History of the Freedom movement in India) के तीन खंडों के पहले खंड की प्रस्तावना में
  • इतिहास ठोस सबूत और तर्क के आधार पर लिखा जाना चाहिए, न कि प्रसिद्ध हस्तियों पर केंद्रित होना चाहिए।
  • इस अवधि के पहले पंद्रह वर्षों के दौरान गांधी भारतीय राजनीति में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे और पूरे आन्दोलन के एकमात्र मार्गदर्शक थे। उस अवधि के बाद भी, वह एक प्रमुख शक्ति थे और यद्यपि हमेशा शीर्ष पर नहीं थे, फिर भी... सिंहासन के पीछे की शक्ति थे...
गांधीजी ने अपने आप में एक संत और एक सक्रिय राजनीतिज्ञ की दोहरी भूमिका निभाई। कुछ लोगों ने उन्हें 'राजनेताओं में सबसे बड़ा संत'...और 'सबसे राजनीतिक संत' कहा है। यह उनके व्यक्तित्व की विरोधाभासी प्रकृति को दर्शाता है...[यह] इतिहासकार के लिए एक गंभीर समस्या है। किसी संत के प्रति किसी का दृष्टिकोण या उसके व्यक्तिगत आचरण के बारे में दृष्टिकोण...भक्ति और व्यक्तिगत राय का विषय है। लेकिन किसी राजनीतिक नेता के सार्वजनिक करियर पर किसी का निर्णय उसके द्वारा अपनाए जाने वाले आचरण के मानदंडों की कुछ मान्यताओं और अपेक्षाओं पर निर्भर करता है...[इसके लिए] किसी भी व्यक्तिगत भावना या विश्वास से अछूते ठोस तर्क की आवश्यकता होती है। इतिहासकार का पहले वाले और से कोई लेना-देना नहीं है, और वह केवल दूसरे पहलू से चिंतित है। दुर्भाग्य से, गांधी के अनुयायियों ने यह भेद नहीं किया और राजनीतिक नेता को वह दे दिया जो वास्तव में सन्त को देना था। कांग्रेस के सभी वर्गों में व्याप्त इस भ्रम ने 1920 के बाद से भारतीय राजनीति के बारे में सार्वजनिक दृष्टिकोण को इतना विकृत कर दिया है कि अब राजनीतिक घटनाओं के पाठ्यक्रम का एक तर्कसंगत ऐतिहासिक सर्वेक्षण करना लगभग असंभव हो गया है, बिना पहले उस जिज्ञासु मानसिकता को स्पष्ट रूप से उजागर किए गांधीजी को आध्यात्मिक और राजनीतिक नेतृत्व का एक प्रकार का अविभाज्य सम्मिश्रण बना दिया। (महात्मा गांधी के बारे में, सन १९१९ के सन्दर्भ में)
  • यह गांधी के प्रति अंतर्निहित आस्था और उनके प्रति निर्विवाद आज्ञाकारिता से सबसे अच्छी तरह से चित्रित होता है... यहां तक ​​कि बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा भी दिखाया गया है। वे अधिकतर दो श्रेणियों के थे। पहले में वे लोग शामिल थे जिन्होंने स्वेच्छा से अपनी अंतरात्मा और निर्णय को राजनीतिक गुरु की सुरक्षा के लिए समर्पित कर दिया था...
दूसरी श्रेणी में वे लोग शामिल थे जो गांधी के जादुई आकर्षण का शिकार हो गए, भले ही वे उनके...अकथनीय या तर्कहीन हठधर्मिता से क्रोधित और परेशान थे, जो उनके स्वयं के स्वतंत्र निर्णय के लिए घृणित थे। अपने अनुयायियों पर गांधी के इस तरह के अजीब प्रभाव को उनमें से सबसे प्रतिष्ठित...पंडित जवाहरलाल नेहरू... द्वारा बहुत स्पष्ट और स्पष्ट रूप से समझाया गया है।
ऐसी भावनाओं का अपरिहार्य प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस के महान राजनीतिक नेता गांधी को एक ऐसे महामानव के रूप में देखने लगे, जो अचूक थे और तर्क से नहीं, बल्कि सहज ज्ञान से कार्य करते थे, और इसलिए उन्हें उन सामान्य मानकों के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए, जिन्हें हम अन्य राजनीतिक नेताओं के लिए लागू करते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि छोटे लोग गांधी को लगभग एक दिव्य प्राणी के रूप में देखते थे, जिनके शब्दों की सच्चाई पर किसी भी तरह से सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए...
लेकिन गांधी को कांग्रेस के महान नेता के रूप में व्यवहार करते समय, शांत इतिहास को गांधी के सार्वजनिक जीवन को बिना किसी जुनून या पूर्वाग्रह के आलोचनात्मक और तर्कसंगत समीक्षा के अधीन करना चाहिए ... ऐसे इतिहास को उनके अर्ध-दिव्यता के प्रभामंडल को नजरअंदाज करके शुरू करना चाहिए। ...राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उनके नाम का फायदा उठाने के लिये गांधी के जीवन के दौरान उनके आसपास एक प्रभामण्डल बनाकर रखा गया था जो अब भी जारी है।

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