• मूर्खस्य पञ्चचिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
मूर्ख के पाँच लक्षण हैं - गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर।
  • अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥ -- भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्
अज्ञानी मनुष्य को समझाना सामान्यतः सरल होता है। उससे भी आसान होता है जानकार या विशेषज्ञ अर्थात् चर्चा में निहित विषय को जानने वाले को समझाना । किन्तु जो व्यक्ति अल्पज्ञ होता है, जिसकी जानकारी आधी-अधूरी होती है, उसे समझाना तो स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी वश से बाहर होता है।
  • काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
जो बुद्धिमान (ज्ञानी) मनुष्य होते है उनका ज्यादातर समय काव्य, शास्त्र के ज्ञान को पाने उसके आनन्द को प्राप्त करने में व्यतीत होता है वहीं जो मूर्ख व्यक्ति है उनका अधिकांश समय व्यसन , निद्रा और कलह (झगड़े) करने में नष्ट हो जाता है।
  • शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्छत्रेण सूर्यातपो नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ।
व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥ -- नीतिशतक
जल से आग बुझाई जा सकती है, सूर्य के ताप को छाते से रोका जा सकता है, मतवाले हाथी को तीखे अंकुश से वश में किया जा सकता है, पशुओं को दण्ड से वश में किया जा सकता है, औषधियों से रोग भी शान्त हो सकता है, विष को भी अनेक मन्त्रों के प्रयोगों से शान्त कर सकते हैं - इस तरह सब उपद्रवों की औषधि शास्त्र में है, परन्तु मूर्ख की कोई औषधि नहीं है।

विदुर के अनुसार मूर्ख (मूढ)

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  • स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमुनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते॥
जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है, तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है।
  • अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥
जो न चाहने वालों को चाहता है, और चाहने वालों को त्याग देता है, जो अपने से बलवान के साथ बैर करता है, उसे मूढ़ विचार वाला मनुष्य कहते हैं।
  • अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्॥
जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ चित्तवाला कहते हैं।
  • संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ॥
भरतश्रेष्ठ! जो अपने कर्मों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगता है, वह मूढ है।
  • श्राद्धं पित्रुभ्यो न ददाति दैवतानि नार्चति।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम्॥
जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् नहीं मिलता, उसे मूढ चित्तवाला कहते हैं।
  • अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः॥
मूढ चित्तवाला अधम मनुष्य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्वसनीय मुनुष्य पर भी विश्वास करता है।
  • परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा।
यश्च कृध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः॥
दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी क्रोध सकता है, वह मुष्य महामूर्ख है।
  • आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवरिजितम्।
अलभ्यमिच्छन् नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरहोच्यते॥
जो अपने बल को न समझकर विना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तुकी इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में मूढबुद्धि कहलाता है।
  • अशिष्यं शास्ति यो राजन् यश्च शून्यमुपासते।
कदर्यं भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम्॥
जो अनधिकारी को उपदेश देता है और शून्य की उपासना करता है, तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढचित्तवाला कहते है।

इन्हें भी देखें

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