नये जमाने की मुकरी भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित् एक काव्य रचना है ।



नये जमाने की मुकरी



जब सभाविलास संगृहित हुई थी, तब वैसा ही काल था कि (क्यौं सखि सज्जन ना सखि पंखा) इस चाल की मुकरी लोग पढ़ते-पढ़ाते थे किन्तु अब काल बदल गया तो उसके साथ मुकरियाँ भी बदल गईं । बानगी दस पाँच देखिए--



सब गुरुजन को बुरो बतावै ।

अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।।

भीतर तत्व न झूठी तेजी ।

क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।।


तीन बुलाए तेरह आवैं ।

निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।।

आँखौ फूटे भरा न पेट ।

क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।।


सुंदर बानी कहि समुझावै ।

बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।।

दयानिधान परम गुन-आगर ।

सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।।


सीटी देकर पास बुलावै ।

रुपया ले तो निकट बिठावै ।।

ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।।


धन लेकर कछु काम न आव ।

ऊँची नीची राह दिखाव ।।

समय पड़े पर सीधै गुंगी ।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।।


मतलब ही की बोलै बात ।

राखै सदा काम की घात ।।

डोले पहिने सुंदर समला ।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि अमला ।।


रूप दिखावत सरबस लूटै ।

फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।।

कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।।


भीतर भीतर सब रस चूसै ।

हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।।

जाहिर बातन मैं अति तेज ।

क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।।


सतएँ अठएँ मों घर आवै ।

तरह तरह की बात सुनाव ।।

घर बैठा ही जोड़ै तार ।

क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।।


एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।

जनमावै ऐसा मजबूत ।।

करै खटाखट काम सयाना ।

सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।।


नई नई नित तान सुनावै ।

अपने जाल मैं जगत फँसावै ।।

नित नित हमैं करै बल-सून ।

क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।।


इनकी उनकी खिदमत करो ।

रुपया देते देते मरो ।।

तब आवै मोहिं करन खराब ।

क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।।


लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।

उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।।

देस देस डोलै सजि साज ।

क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।।


मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।

जाति मान धन सब कुछ लूटै ।।

पागल करि मोहिं करे खराब ।

क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।।



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