अपना दीपक स्वयं बनो।
  • दीपज्योतिः परंब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते॥
दीपक की ज्योति परम ब्रह्म है, दीपक की ज्योति जनार्दन है। (वह) दीपक मेरे पापों को नष्ट करे। हे दीपाज्योति! आपको नमस्कर करता हूँ।
  • सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्तिः क्षमाशिखा।
अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम ॥
अन्धकार में प्रवेश करने के लिये ऐसा दीपक जलाना चाहिये जिसका आधार (पेंदी) सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो, और लौ की शिखा क्षमा की हो।
  • प्रदोषे दीपकः चन्द्रः प्रभाते दीपकः रविः।
त्रैलोक्ये दीपकः धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः॥
संध्या-काल मे चन्द्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है, तीनों लोकों का दीपक धर्म है और सुपुत्र कुल का दीपक है।
  • गुणवत्तरपात्रेण छाद्यन्ते गुणिनां गुणाः ।
रात्रौ दीपशिखाकान्तिर्न भानावुदिते सति ॥
गुणवान व्यक्तियों के गुण उनसे भी अधिक गुणवान व्यक्तियों की उपस्थिति में उसी प्रकार नहीं दिखाई देते हैं जैसे कि दीपक की लौ से उत्पन्न हुआ प्रकाश रात्रि में ही दिखाई देता है और सूर्य के उदय होने पर प्रभावी नहीं रहता।
  • दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहुणाँ, बहुरि न आवौं हट्ट॥ -- कबीरदास
कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु ने मुझे ज्ञान रूपी दीपक देकर उसमे भक्ति रूपी तेल भर दिया है। इसके प्रकाश में मैंने अपनी सारी आवश्यक वस्तुएं खरीद ली है। अब इस बाजार (मृत्युलोक) में फिर से लौटकर नहीं आउंगा।
  • माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं पडंत ।
कहै कबीर गुर ग्यान तैं, एक आध उबरंत ॥ -- कबीरदास
नर रूपी पतंग (कीट) के लिये माया दीपक के समान है जिस पर वह घूमघूमकर आता है (और इसकी लौ से जल जाता है)। कबीरदास कहते हैं कि गुरु के द्वारा दिये गये सत्यज्ञान से इसमें से एक-आध बच पाते हैं।
  • राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥ -- तुलसीदास
यदि तुम अपने हृदय के अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहते हो तो राम-नाम रूपी मणि के दीपक को जीभ रूपी देहली के द्वार पर धर लो।
  • दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥ -- तुलसीदास, रामचरितमानस में
युवा स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है। हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचन्द्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर॥
  • सुन्दरता कहुँ सुंदर करई। छबि गृह दीप सिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहि पटतरउँ बिदेह कुमारी॥ -- तुलसीदास
(सीता को देख कर लगता है जैसे) सुन्दरता रूपी घर में दिये की लौ जल रही है। सभी उपमाएँ तो कवियों ने पहले से ही दे रखी हैं, मैं कौन सी नई उपमा देकर सीता जी की सुन्दरता का वर्णन करूँ?

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