• यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥ -- सुभाषित मञ्जरी
जो मनुष्य विभिन्न देशों में घूमता है और जो पंडितो के संग रहता है उनकी की सेवा करता है, उस मनुष्य की बुद्धि वैसे ही विस्तारित होती है जैसे जल में तेल की एक बूंद गिरते ही तेल फैलता है।
  • एकमपि सतां सुकृतं विकसति तैलं यथा जले न्यस्तम् ।
असतामुपकारशतं संकुचति सुशीतले जले घृतवत् ॥ -- महासुभषितसङ्ग्रह
सहृदय और सज्जन व्यक्तियों के प्रति किये हुए एक अकेले ही शुभ कार्य का समाज में ऐसा व्यापक शुभ प्रभाव होता है जैसे कि जल में तेल डालने से वह उसकी पूरी सतह में फैल जाता है। परन्तु यदि दुष्ट और दुर्जन व्यक्तियों के प्रति चाहे एक सौ उपकार भी क्यों न कर दिये जायें, वे उनका आदर नहीं करते। ये ऐसा ही है जैसा अत्यन्त शीतल जल में घी डालने पर घी जम कर ठोस हो कर फैलने के बजाय संकुचित हो जाता है।
  • न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥
दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए। भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है?
  • जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः॥ -- चाणक्यनीति
पानी पर गिरा हुआ तेल, शरारती व्यक्ति को बताया हुआ राज, योग्य व्यक्ति को दिया हुआ दान और बुद्धिमान व्यक्ति को दिया गया आध्यात्मिक ज्ञान भले ही कम मात्रा में क्यों न हों, उन वस्तुओं के विशिष्ट गुणों के कारण तेजी से फैलते हैं।
  • तेल तिली सौ उपज, सदा तेल को दूर ।
संगत को बेरो भायो, ते नाम फुलेल ॥ -- कबीरदास
  • आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल॥ -- कबीरदास
घी का दर्शन मात्र भी अच्छा होता है (खाना तो अच्छा होता ही है), किन्तु तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं होता। ठीक इसी तऱह साधु जनों से झगड़ा अच्छा हो सकता है किन्तु बुद्धिहीन से मिलाप करना उचित नहीं है।
  • जैसे तेल समाप्त हो जाने से पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है।
  • दूसरे के लिए कितना ही मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना ही मिले, फिर भी अलग ही रहेगा। -- मुंशी प्रेमचन्द