प्रवीर हो जयी बनो, बढे चलो बढे चलो ! -- चन्द्रगुप्त नाटक
( भावार्थ : तक्षशिला की राजकुमारी अलका अपने सैनिकों को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हिमालय के ऊँचे शिखर से ज्ञानवान और पवित्र माँ भरती तुम्हे पुकार रही है। तुम अमर वीरों की सन्तान हो। तुम्हारा पथ प्रशस्त है। दृढ प्रतिज्ञा करो और आगे बढ़ते जाओ। जो मातृभूमि की सन्तान हैं और देश प्रेम के लिये मर मिटने को तैयार हैं, उनकी दिव्यगाथा असंख्य किरणों की तरह युग-युग तक बनी रहती है। हे मातृभूमि के सपूतों, तुम महान वीर और साहसी हो। इसलिये स्वतन्त्रता के पथ पर रुको नहीं, बढ़ते चलो। शत्रु की समुद्र के समान बढी सेना में तुम बड़वाग्नि (समुद्र में लगने वाली आग) के समान जलो और उसे नष्ट कर दो। तुम महान वीर हो, निश्चित ही तुम्हारी जीत होगी।)
अत्याचार के श्मशान में ही मंगल का, शिव का, सत्य-सुन्दर संगीत का शुभारम्भ होता है।
अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि हैं, लेकिन भारत मानवता की जन्मभूमि है।
अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़वा, परन्तु परिणाम में मधुर होता है।
अर्थ देकर विजय खरीदना देश की वीरता के प्रतिकूल है।
असम्भव कहकर किसी काम को करने से पहले, कर्मक्षेत्र में कांपकर लड़खडाओ मत।
आतंक का दमन करना प्रत्येक राजपुरुष का कर्म है।
आत्म सम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य जीवन है।
इस भीषण संसार में एक प्रेम करनेवाले ह्रदय को दबा देना सबसे बड़ी हानि है।
उत्पीडन की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अंचल में छिपाए रखता है।
ऐसा जीवन तो विडम्बना है, जिसके लिए रात-दिन लड़ना पड़े।
कभी कभी मौन रह जान बुरी बात नहीं है।
कविता करना अत्यन्त पुण्य का फल है।
किसी के उजड़ने से ही कोई दूसरा बसता है।
क्षणिक संसार! इस महाशून्य में तेरा इंद्रजाल किसे भ्रांत नहीं करता?
क्षमा पर केवल मनुष्य का अधिकार है, वह हमें पशु के पास नहीं मिलती।
जागृत राष्ट्र में ही विलास और कलाओं का आदर होता है।
जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा से बढ़कर दूसरा दंभ नहीं।
जिसकी भुजाओं में दम न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना ही चाहिए।
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है प्रसन्नता। यह जिसने हासिल कर ली, उसका जीवन सार्थक हो गया।
जीवन विश्व की संपत्ति है।
जो अपने कर्मों को इश्वर का कर्म समझकर करता है, वही ईश्वर का अवतार है।
जो आज गुलाम है, वही कल सुलतान हो सकता है।
दो प्यार करनेवाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास होता है।
पढाई सभी कामों में सुधार लाना सिखाती है।
पथिक प्रेम की राह अनोखी भूल भुलैया में चलने की तरह है। जब जिन्दगी की कड़ी धूप में उसे घनी छाँव की तरह पाकर मनुष्य आगे बढ़ता है, तब पाँव में कांटे ही कांटे चुभते हैं।
पराधीनता से बढ़कर विडम्बना और क्या है?
पुरुष क्रूरता है तो स्त्री करुणा है।
प्रत्येक स्थान और समय बोलने योग्य नहीं रहते।
प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं कर सकता।
प्रश्न स्वयं कभी किसी के सामने नहीं आते।
व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता।
बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है।
भारत समस्त विश्व का है और सम्पूर्ण वसुंधरा इसके प्रेम पाश में आबद्ध है।
मनुष्यों के मुंह में भी तो साँपों की तरह दो जीभ होते हैं।
मानव के अंतरतम में कल्याण के देवता का निवास है। उसकी संवर्धना ही उत्तम पूजा है।
मानव स्वभाव दुर्बलताओं का संकलन है।
मुझे विश्वास है कि दुराचारी सदाचार के जरिये शुद्ध हो सकता है।
राजसत्ता सुव्यवस्था से बढे तो बढ़ सकती है, केवल विजयों से नहीं।
राजा अपने राज्य की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राज्य की रक्षा होनी ही चाहिए।
विधान की स्याही का एक बिंदु गिरकर भाग्यलिपि पर कालिमा चढ़ा देता है।
वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छलछद्म की धुल उड़ती है।
संदेह के गर्त में गिरने से पहले विवेक का अवलंबन ले लो।
समय बदलने पर लोगों की आँखें भी बदल जाती है।
सम्पूर्ण संसार कर्मण्य वीरों की चित्रशाला है।
संसार में छल, प्रवंचना और हत्याओं को देखकर कभी कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है।
संसार ही युद्ध क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ?
सहनशील होना अच्छी बात है, पर अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है।
सेवा सबसे कठिन व्रत है।
सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने ह्रदय में डुबा नहीं सकता।
सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को सींचता है।
स्त्रियों का हृदय, अभिलाषाओं का, संसार के सुखों का क्रीडा स्थल है।
स्त्री की मंत्रणा बड़ी अनुकूल और उपयोगी होती है।
स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसी पर सर्वस्व वार देने को प्रस्तुत हो जाती है।