रामभद्राचार्य
हिंदू धार्मिक नेता
(जगद्गुरु रामभद्राचार्य से अनुप्रेषित)
जगद्गुरु रामभद्राचार्य (संस्कृत: जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र (संस्कृत: गिरिधरमिश्रः), चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं।
उद्धरण
सम्पादन- मेरे गिरिधारी जी से काहे लरी ॥
तुम तरुणी मेरो गिरिधर बालक काहे भुजा पकरी ॥
सुसुकि सुसुकि मेरो गिरिधर रोवत तू मुसुकात खरी ॥
तू अहिरिन अतिसय झगराऊ बरबस आय खरी ॥
गिरिधर कर गहि कहत जसोदा आँचर ओट करी ॥
- महाघोरशोकाग्निनातप्यमानं पतन्तं निरासारसंसारसिन्धौ ।
अनाथं जडं मोहपाशेन बद्धं प्रभो पाहि मां सेवकक्लेशहर्त्तः ॥- हे सर्वसमर्थ प्रभु, सेवक के क्लेशों को हरनेवाले! मैं इस महाघोर शोक की अग्नि द्वारा तपाया जा रहा हूँ, निरासार संसार-सागर में गिर रहा हूँ, अनाथ और जड़ हूँ, और मोह के पाश से बँधा हूँ, मेरी रक्षा करें।
- मानवता ही मेरा मन्दिर मैं हूँ इसका एक पुजारी ॥
हैं विकलांग महेश्वर मेरे मैं हूँ इनका कृपाभिखारी ॥
श्रीसीतारामकेलिकौमुदी
सम्पादन- तहँ बस बसुमति बसु बसुमुखमुख
निगदित निगम सुकरम धरमधुर ।
दुरित दमन दुख शमन सुख गमन
परम कमन पद नमन सकल सुर ॥
बिमल बिरति रति भगति भरन भल
भरम हरन हरि हरष हरम पुर ।
गिरिधर रघुबर घरनि जनम महि
तरनि तनय भय जनक जनकपुर ॥
अष्टावक्र
सम्पादन- द्यौः क्रान्तिः नभः क्रान्तिः भाग्यभूमाभूमि क्रान्तिः ।
परमपावन आपः क्रान्तिः ओषधिः सङ्क्रान्तिमय हो ॥
नववनस्पतिवृन्द क्रान्तिः विश्वदेवस्पन्द क्रान्तिः ।
महाकाव्यच्छन्द क्रान्तिः ब्रह्मभव सङ्क्रान्तिमय हो ॥
- कन्या नहीं भार है शिरका यही सृष्टि का है श्रृंगार
मानवता का यही मन्त्र है यही प्रकृति का है उपहार ।
कोख पवित्र सुता से होती पुत्री से गृह होता शुद्ध
नहीं भ्रूणहत्या विधेय है श्रुतिविरुद्ध यह कृत्य अशुद्ध ॥
- प्रातिभ क्षेत्र में आरक्षण
न कदापि राष्ट्रहित में समुचित ।
यह घोर निरादर प्रतिभा का
अवनति का पथ अतिशय अनुचित ॥
- भार है विकलांग क्या परिवार का
क्या उपेक्ष्या पात्र वह सकलांग का ।
जगत को जर्जरित कर देगी झटिति
यह विषम अवधारणा कुसमाज की ॥
- अङ्ग अङ्ग पर विलस रहे थे ललितललाम विभूषण
भवभूषण दूषणरिपुदूषणदूषण निमिकुलभूषण ।
- रौरवसहित रहित रौरव से रौरवकृत जितरौरव थे
गौरवमय अभिमान विवर्जित श्रितगौरव हितगौरव थे ॥
- सुभगो जातो यस्याः सैव सुजाता नाम निरुक्ति यही
अष्टावक्र सुभग जातक की बनी सुजाता मातु सही ॥
- अष्टावक्र महर्षि वाक्य कह रहे ज्यों हो रहे मौन थे
त्यों ही बिप्र कहोल के नयन भी नीरन्ध्रवर्षी बने ।
सीमन्तोन्नयनीय वेदविधि भी सम्पन्न प्रायः हुई
गाएँ देव सभी कहोलसुत का शार्दूलविक्रीडितम् ॥