चारण भारतीय उपमहाद्वीप की एक जाति है। ऐतिहासिक रूप से, चारण कवि और इतिहासकर होने के साथ-साथ योद्धा और जागीरदार भी रहे हैं। मध्ययुगीन राजपूत राज्यों में चारण मंत्रियों, मध्यस्थों, प्रशासकों, सलाहकारों और योद्धाओं के रूप में स्थापित थे। शाही दरबारों में कविराजा (राज कवि और इतिहासकार) का पद मुख्यतया चारणों के लिए नियोजित था।

Ishwardas Chāran, a 19th-century poet in Rajasthan

उल्लेख सम्पादन

  • "ज्यों-ज्यों चारणों का संबंध क्षत्रिय जाति से उत्तरोत्तर बढ़ता गया त्यों-त्यों शक्ति की उपासना तीव्र होती गई। चारण जाति में शक्ति के अवतार बहुत हुए है। अत: इनकी स्तुति में भी गीत-रचना का अभाव नहीं। यथार्थ में चारण धर्म में समय समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं। दूसरी शताब्दी में चारण जाति के अनेक व्यक्ति जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। क्षत्रिय धर्म के प्रभाव-स्वरूप चारण ब्राह्मण धर्म से शनै: शनै: दूर हटते गये। इसके लिए जिस ‘कौल’ शब्द का व्यवहार किया जाता है उससे यही सिद्ध होता है कि किसी समय यह जाति शाक्त सम्प्रदाय (कौल धर्म) की उपासना करती थी। नाथ सम्प्रदाय के उत्थान काल में शाक्त धर्म ने उसके आधारभूत सिद्धान्तों को आत्मसात कर अपनी समन्वयवादी भावना का परिचय दिया। चारण जाति में नाथ सम्प्रदाय के अनेक योगी हुए हैं। इस प्रकार यद्यपि ब्राह्मण, यायावर, वैष्णव, जैन एवं नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव चारण धर्म पर पड़ता गया तथापि प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक शाक्त धर्म का परित्याग यह जाति कभी नहीं कर पाई।"
    • Jijñāsu, Mohanalāla (1968). Cāraṇa sāhitya kā itihāsa: Rājasthāna ke prācīna evaṃ Madhyakālīna 275 cāraṇa kaviyoṃ, unake kāvya ke vibhinna rūpoṃ tathā pravr̥ttiyoṃ kā Jīvanacaritra sahita aitihāsika evaṃ ālocanātmaka anuśīlana (in Hindi). Ujvala Cāraṇa-Sabhā.
  • "चारण राजपूत का चित्रकार है। एक गुरु है, दूसरा शिष्य। चारण अपने ओजस्वी भाषणों से प्राणों का मोह छुड़ा कर वीरों को स्वदेश एवं परहितार्थ सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करना सिखाते हैं। ऐसे चारण गुरुओं की बलिहारी है जो क्षणमात्र के तप से स्वर्ग-प्राप्ति करा देते हैं। यही इस सम्बंध का मूल रहस्य है। इन दोनों जातियों के अन्योन्याश्रित सम्बंध को देख कर कहना ही पड़ेगा कि भारत की अन्य जातियों में ऐसा घनिष्ट सम्पर्क दुर्लभ है। इस सम्बंध का आरम्भ हर्षवर्द्धन के पश्चात क्रमबद्ध रूप से देखने को मिलता है। जब कोई राजपूत अपने बंधु-बांधवों के अपराध से अथवा राजा-महाराजाओं के अन्याय से बचने के लिए चारण के घर आश्रय ग्रहण करता तब उसे कोई नहीं छेड़ता था। युद्ध का निमन्त्रण मिलने पर राजपूत अपनी बहू-बेटियां एवं स्त्रियों को चारणों के घर छोड़ देते थे। इस प्रकार हम इन दोनों को एक आत्मा दो शरीर के रूप में देख सकते हैं। चारण काव्य है तो राजपूत उसका चरित-नायक!"
    • Jijñāsu, Mohanalāla (1968). Cāraṇa sāhitya kā itihāsa: Rājasthāna ke prācīna evaṃ Madhyakālīna 275 cāraṇa kaviyoṃ, unake kāvya ke vibhinna rūpoṃ tathā pravr̥ttiyoṃ kā Jīvanacaritra sahita aitihāsika evaṃ ālocanātmaka anuśīlana (in Hindi). Ujvala Cāraṇa-Sabhā.
  • "इन चारणों का व्यक्तिय पवित्र माना जाता था और हर राजपूत उनके साथ बड़े सम्मान से पेश आता था। शासक उन्हें जागीर के रूप में जानी जाने वाली भूमि वंशानुगत अनुदान से पुरस्कृत करते थे, दावतों में उन्हें सबसे पहले भोज के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता था, और जब भी वे किसी दरबार में आते थे तो शासक उनका अभिवादन करने के लिए उठ खड़ा होता था, क्योंकि 'चारण राजपूतों के बहुत मजबूत समर्थक थे और राजपूत इस समुदाय के बहुत प्रबल शुभचिंतक थे'।"
    • 1984, Charles Allen, Lives of the Indian Princes, Century Pub 1984, pp. 54-55: