गौरीशंकर हीराचन्द ओझा
गौरीशंकर हीराचंद ओझा (15 सितम्बर 1863 ई० - 20 अप्रैल 1947) भारत के सर्वप्रमुख इतिहासकारों में से एक हैं। सिरोही राज्य का इतिहास (1911), भारतीय प्राचीन लिपिमाला (1894 ई०), सोलंकियों का प्राचीन इतिहास (1907), बीकानेर राज्य का इतिहास (प्रथम भाग 1937 तथा दूसरा भाग 1940), उदयपुर राज्य का इतिहास (प्रथम भाग 1928 तथा दूसरा भाग 1932), डूंगरपुर राज्य का इतिहास (1936), बांसवाड़ा राज्य का इतिहास(1936), प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास (1940), जोधपुर राज्य का इतिहास (प्रथम भाग 1938 तथा दूसरा भाग 1941) आदि अनेकों ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना की । ओझा जी की रचना 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डालती है । फारसी ग्रंथों का अनुवाद, विदेशी यात्रियों के विवरण, संस्कृत,राजस्थानी, गुजराती व मराठी भाषाओं के काव्य ग्रंथ , शिलालेख, दानपात्र, सिक्के इत्यादि उनके इतिहास लेखन के आधार रहे हैं । उन्होंने प्रत्येक घटना की सत्यता को प्रमाणित करने का यथासंभव प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने हर उस स्त्रोत का उपयोग किया है जो उस घटना का वर्णन करता है।
भारतीय प्राचीन लिपिमाला ने पुरातत्व जगत में उन्हें विशेष ख्याति प्रदान की। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस रचना को विश्व निधि घोषित किया है ।
विचार
सम्पादन- 'गुर्जर-प्रतिहार' सांघिक शब्द हैं। इस वंश के शासकों को प्रतिहार इस कारण कहा जाता था कि इन्होंने द्वार रक्षक का काम किया था और द्वार-रक्षक का पर्यायवाची शब्द है प्रतिहार। इन राजाओं ने मुसलमान आक्रमणकारियों को सेका, रोकने में सहायता की और बाद में अरबों को सिन्ध से आगे बढने से रोका कि जिन्होंने ईसा की ८वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उस प्रदेश पर कब्जा कर लिया था। अब रही गुर्जर शब्द की बात । इन्हें गुर्जर या गुर्जर-प्रतिहार इसलिये कहा गया कि सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजनीतिक शक्ति का उदय राजस्थान के दक्षिण-पूर्व गुर्जरत्रा या गर्जर (गुजरात) प्रदेश में हुआ। इसीलिए स्थान के नाम पर इनको गुर्जर प्रतिहार (या केवल गुर्जर ) कहा जाने लगा। वस्तुतः न गुर्जर और न प्रतिहार कोई जाति थी। -- (श्री वैद्य तथा श्री गौरीशंकर ओझा) ।
- प्रतिहार राजा अग्नि-कुल के क्षत्री थे। वे अपने को इक्ष्वाकु वंशी तथा लक्ष्मण की संतति बताते थे। मिहिर भोज की 'ग्वालियर प्रशस्ति' में बताया गया है कि मनु, इक्ष्वाकु तथा उनके ही वंशज और रावणान्तक राम के प्रतिहार थे। इससे ही यह प्रतिहार वंश प्रचलित हुआ। उसी प्रशस्ति में आगे यह भी कहा गया है कि राम के भाई लक्ष्मण को प्रतिहार इसलिए कहा गया है कि उन्होंने मेघनाथ जैसे शत्रु को युद्ध में पछाड़ा था। इसी प्रकार बाउक के जोधपुर शिलालेख (सन् ८३७) में कहा गया है कि चूँकि राम के भाई (लक्ष्मण) ने प्रतिहार (द्वार-रक्षक) का कार्य किया था इसी लिए वंश को प्रतिहार की संज्ञा दी गई ।