इस संसार में जो कामसुख है, और दिव्य महान सुख है- ये दोनों तृष्णा के नष्ट होने से प्राप्त होने वाले सुख के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं हैं।
काममय एवायं पुरुष इति। स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति। यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते। यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते॥
यह पुरुष काममय ही है। वह जैसी काम्ना करता है वैसा करने का यत्न करता है, जैसा करना चाहता है, वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही काम होता है।
अर्थातुराणां न सुहृन्न बन्धुः कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न वपुर्न तेजः ॥
अर्थ के लिये आतुर मनुष्य का कोई मित्र होता है न कोई भाई, काम के लिये आतुर व्यक्ति को न कोई भय होता है न लज्जा, विद्या के लिये आतुर व्यक्ति को न सुख होत है न निद्रा, और भूख से आतुर मनुष्य के पास न तो स्वास्थ्य होता है न तेज।
संकल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग को क्रोध को, संसारी लोग जिसे अर्थ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभ को और तत्त्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिये। अध्यात्मविद्या से शोक और मोह पर, संतो की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नों पर और शरीर-प्राण आदि को निश्चेष्ट कर के हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। आधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा, आधिदैविक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दुःख को योगबल से एवं निद्रा को सात्विक भोजन, स्थान, संग आदि के सेवन से जीत लेना चाहिये।