निरक्षर लोगों से ग्रन्थ पढ़ने वाले श्रेष्ठ हैं तथा उनसे भी अधिक ग्रन्थ को समझने वाले श्रेष्ठ हैं। ग्रन्थ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ हैं तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ हैं।
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी
दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्नेकृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्रदोषः॥ (भर्तृहरि)
लक्ष्मी कर्म करने वाले पुरुषरूपी सिंह के पास आती है, "देवता (भाग्य) देने वाला हैं" ऐसा तो कायर पुरुष कहते हैं। इसलिए देव (भाग्य) को छोड़ कर अपनी शक्ति से पौरुष (कर्म) करो, प्रयत्न करने पर भी यदि कार्य सिद्ध नहीं होता है तो देखो क्या समस्या है (कोई और समस्या तो नहीं?)।
नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम्।
व्यवसायद्वितीयानां नात्यपारो महोदधिः॥
परिश्रमी व्यक्ति के लिए मेरु पर्वत अधिक ऊँचा नहीं है, पाताल बहुत नीचा नहीं है और महासागर बहुत विशाल नहीं है॥
"जो नहीं घटित होने वाला है वह होगा नहीं, यदि कुछ होने वाला हो तो वह टलेगा नहीं” इस विषरूपी चिंता (विचारणा) के शमन हेतु अमुक (आगे वर्णित) औषधि का सेवन क्यों नहीं किया जाता है ?
(और औषधि यह है:) दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए । भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है ?
यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥
जिस प्रकार केवल एक पहिये से रथ चल नहीं सकता, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता।
विद्या-धन उद्यम बिना, कहा जु पावै कौन।
बिना डुलाए ना मिले, ज्यों पंखा कौ पौन॥ (वृन्द)
विद्या रूपी धन और उद्यम के बिना किसको क्या मिलता है? जिस प्रकार बिना पंखे को डुलाये पवन (हवा) नहीं मिलता।