अष्टावक्र
अष्टावक्र
- स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है। यह कथन सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है।
- जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है।