अरविन्द घोष

भारतीय राजनीतिज्ञ, दार्शनिक और योग गुरु (1872-1950)

अरविन्द घोष (बांग्ला: শ্রী অরবিন্দ, जन्म: १८७२, मृत्यु: १९५०) भारत के एक क्रान्तिकारी, योगी एवं दार्शनिक थे। वे १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता में जन्मे थे।

अरविन्द घोष

उद्धरण

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  • भारत का युग मृत नहीं है और न ही उसने अपना अंतिम रचनात्मक शब्द बोला है यह है और अभी भी अपने और मानव लोगों के लिए कुछ करना चाहती है।
  • अपने आप को यातना मत दो, चिंता मत करो। सभी प्रकार के भयों को दूर करने का प्रयास करो। भय एक खतरनाक चीज है जो किसी ऐसी बात को महत्व दे सकता है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। केवल कुछ लक्षणों को फिर से देखने का डर ही उनकी पुनरावृत्ति के लिए काफी है। ( 24 जुलाई 1945)
  • यदि तुम डरते नहीं हो तो तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता। इसलिए, भय मत करो, शांत और धीर रहो―सब ठीक हो जाएगा। ( 15 अक्टूबर 1966)
  • सबसे पहली चीज जिससे तुम्हें सदा के लिए मुक्त हो जाना चाहिए, वह है—भय। यह सबसे खतरनाक बीमारी से भी अधिक घातक है। ( 9 अक्टूबर 1967)
  • अब हमारे सारे कार्यों के लक्ष्य मातृभूमि की सेवा ही होनी चाहिए। आपका अध्ययन, मनन, शरीर ,मन और आत्मा का संस्कार सभी कुछ मातृभूमि के लिए ही होना चाहिए। आप काम करो, जिससे मातृभूमि समृद्ध हो।
  • अस्तित्व की सभी समस्याएं अनिवार्य रूप से सद्भाव की समस्याएं हैं।
  • आत्मा जो देखती है और अनुभव करती है , वह जानती है ; वाकी उपस्थिति , पूर्वाग्रह और राय है।
  • आध्यात्मिकता वास्तव में भारतीय मन की प्रमुख कुंजी है इनफिनिटिव ( अनन्त ) की भावना इसके मूल निवासी हैं।
  • एक भगवान जो मुस्कुरा नहीं सकता है , वह इस हास्य ब्रह्मांड का निर्माण नहीं कर सकता है।
  • एकता स्थापित करने वाले सच्चे बन्धु हैं।
  • और लोग अपने देश को एक भौतिक चीज की तरह जानते हैं। जैसे- मैदान, जमीन, पहाड़, जंगल, नदी वगैरह। लेकिन मैं अपने देश को माँ की तरह जानता हूँ। मैं उसे अपनी भक्ति अर्पित करता हूँ। उसे अपनी पूजा अर्पण करता हूँ।
  • कला अतिसूक्ष्म और कोमल है। अतः अपनी गति के साथ यह मस्तिष्क को भी कोमल और सूक्ष्म बना देती है।
  • कुछ धर्मपरापण लोगों को सुनने के लिए, कोई कल्पना करेगा भगवान कभी नहीं हंसे।
  • केवल वह आत्मा है , जो नग्न और निश्छल ,।शुद्ध और निर्दोष है।
  • कोई भी देश या जाति अब विश्व से अलग नहीं रह सकती।
  • क्या यह सच है कि अस्तित्व में केवल ऊर्जा की क्रिया होती है ? या ऐसा नहींं है कि ऊर्जा अस्तित्व का उत्पादन है ?।
  • गुण कोई किसी को नहीं सिखा सकता। दूसरे के गुण लेने या सीखने की जब भूख मन में जागती है, तो गुण अपने आप सीख लिए जाते हैं।
  • गुप्त प्रकृति गुप्त भगवान है।
  • जब मन शांत होता है, तब सत्य को मौन की पवित्रता में सुनने का मौका मिलता है।
  • जिसमें त्याग की मात्रा, जितने अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में पशुत्व से ऊपर है।
  • जिसमें फूट हो गई है और पक्ष भेद हो गए हैं, ऐसा समाज किस काम का ? आत्मप्रतिष्ठा और आत्मा की एकता की मूर्ति का समाज चाहिए। अलग रह कर जितना काम होता है, उससे सौ गुना संघशक्ति से होता है।
  • जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं , वह वास्तव में सनातन धर्म है।
  • जीवन जीवन है – चाहे एक बिल्ली का हो, या कुत्ता या आदमी का। एक बिल्ली या एक आदमी के बीच कोई अंतर नहीं है। अंतर का यह विचार मनुष्य के स्वयं के लाभ के लिए एक मानवीय अवधारणा है।
  • जैसे सारा संसार बदल रहा है, उसी प्रकार, भारत को भी बदलना चाहिए।
  • तुम लोग जड़ पदार्थ, मैदान, खेत, वन-पर्वत आदि को ही स्वदेश कहते हो, परन्तु मैं इसे ‘माँ’ कहता हूँ।
  • दर्द नश्वर हृदय में मृत प्रतिरोध को तोड़ने के लिए देवताओं का हथौड़ा है।
  • धन को विलास के लिए खर्च करना एक प्रकार से चोरी होगी। वह धन असहायों और जरूरतमन्दों के लिए है।
  • पढो, लिखो, कर्म करो, आगे बढो, कष्ट सहन करो, एकमात्र मातृभूमि के लिए, माँ की सेवा के लिए।
  • बहुत आम तौर पर , परोपकारिता केवल स्वार्थ का सबसे बड़ा रुप है।
  • भारत की एकता, स्वाधीनता और उन्नति सहज साध्य हो जाएगी, भाषा की रक्षा करते हुए साधारण भाषा के रूप में हिन्दी भाषा को ग्रहण कर उस बाधा को दूर करेंगें।
  • भारत भौतिक समृद्धि से हीन है, यद्दपि, उसके जर्जर शरीर में आध्यात्मिकता का तेज वास करता है।
  • मेरा ईश्वर प्रेम है और इसके मीठे रूप से सभी पीडि़त हैं।
  • मेरा प्यार दिल की भूख नहीं है , मेरा प्यार मांस की लालसा नहीं है ; यह मेरे पास ईश्वर की ओर से आया और ईश्वर की ओर लौटता है।
  • मेरा हर काम अपने लिए न होकर देश के लिए ही है, मेरा हित एवं मेरे परिवार का हित देशहित में ही निहित है।
  • मैंने शपथ ली कि मैं दुनिया के दु:ख और दुनिया की मूर्खता और क्रूरता और अन्याय से पीडि़त नहीं होऊंगा और मैंने अपने दिल को स्टील की एक पॉलिश सतह के रूप में nether मिलस्टोन और अपने दिमाग के रूप में कठिन बना दिया। मुझे - कोई तकलीफ नहीं हुई थी , बस आनंद मुझसे दूर हो गया।
  • यदि तुम किसी का चरित्र जानना चाहते हो तो उसके महान कार्य न देखो, उसके जीवन के साधारण कार्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करो।
  • यह देश यदि पश्चिम की शक्तियों को ग्रहण करे और अपनी शक्तिओं का भी विनाश नहीं होने दे तो उसके भीतर से जिस संस्कृति का उदय होगा वह अखिल विश्व के लिए कल्याणकारिणी होगी। वास्तव में वही संस्कृति विश्व की अगली संस्कृति बनेगी।
  • युगों का भारत मृत नहीं हुआ है और न उसने अपना अंतिम सृजनात्मक शब्द उच्चारित ही किया है, वह जीवित है और उसे अभी भी स्वयं अपने लिए और मानव लोगों के लिए बहुत कुछ करना है और जिसे अब जागृत होना आवश्यक है।
  • लेकिन हार अंत नहीं है , यह केवल एक द्वार या एक शुरुआत है।
  • व्यक्तियों में सर्वथा नवीन चेतना का संचार करो, उनके अस्तित्व के समग्र रूप को बदलो, जिससे पृथ्वी पर नए जीवन का समारंभ हो सके।
  • सच्चा ज्ञान सोचने से नहीं मिलता। यह वही है जो तुम हो , यह वही है जो तुम बनना चाहते हो।
  • सारा जगत स्वतंत्रता के लिए लालायित रहता है फिर भी प्रत्येक जीव अपने बंधनो को प्यार करता है।
  • आज भारत स्वाधीन हो गया है, पर उसने अखंडता प्राप्त नहीं की है। केवल आधी-अधूरी खंडित स्वतंत्रता पाई है। कांग्रेस द्वारा तय किए गए विभाजन को सदा के लिए स्थायी निर्णय नहीं माना जाना चाहिए। हमें आशा है कि धीरे-धीरे विभाजन की इस मनोवृत्ति और तनाव से मुक्ति मिलेगी। मेल-मिलाप बढ़ेगा, शांति आएगी और अस्थायी विभाजन की रेखा पानी की लहर के समान मिट जाएगी। जो भी हो, इस विभाजन को मिटाना ही होगा भारतमाता की अखंड प्रतिमा ही पूजा के योग्य रहेगी जब तक यह प्रतिमा अखंड नहीं होती, हमें इसकी अखंडता के लिए निरंतर प्रयास करना ही होगा। -- 15 अगस्त, 1947 को आकाशवाणि से प्रसारित अपने सन्देश में
  • भागवत शक्ति ने- जो कि मेरा पथ-प्रदर्शन करती है- उस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी है और उस पर मुहर लगा दी है जिसके साथ-साथ मैंने अपना जीवन आरम्भ किया था। देश का विभाजन दूर होना ही चाहिए, वह दूर होगा या तो तनाव के ढीले पड़ जाने से या शांति और समझौते की आवश्यकता को धीरे-धीरे हृदयंगम करने से, या किसी कार्य को मिलजुलकर करने की सतत् आवश्यकता से या उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधनों की जरूरतों को महसूस करने से। जिस किसी तरह क्यों न हो, विभाजन दूर होना ही चाहिए और दूर होकर ही रहेगा। -- 15 अगस्त 1947 को देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के अवसर पर अपने उद्बोधन में

उत्तरपाड़ा का भाषण

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(अलीपुर जेल से छूटने के बाद श्री अरविन्द का पहला महत्वपूर्ण भाषण 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में हुआ । इसमें उन्होंने अपने जेल-जीवन का आध्यात्मिक अनुभव सुनाया और साथ ही देश को सच्ची राष्ट्रीयता का संदेश दिया। इसमें उन्होंने बताया है कि सच्चा हिन्दू धर्म, सच्चा सनातन धर्म क्या है और आज के संसार को उसकी क्यों जरूरत है। उनका यह भाषण उनके जीवन में एक नया मोड़ का परिचय देता है।)


जब मुझे आपकी 'सभा' के इस वार्षिक अधिवेशन में बोलने के लिए कहा गया तो मैंने यही सोचा था कि आज के लिए जो विषय चुना गया है उसी पर, अर्थात् हिंदू धर्म पर कुछ कहूँगा । मैं नहीं जानता था कि उस इच्छा को, मैं पूरा कर सकूंगा या नहीं; क्योंकि जैसे ही मैं यहाँ आकर बैठा, मेरे मन में एक संदेश आया और यह संदेश मुझे आपको और सारे भारत राष्ट्र को सुनाना है। यह वाणी मुझे पहले-पहल जेल में सुनायी दी थी और उसे अपने देशवासियों को सुनाने के लिए, मैं जेल से बाहर आया हूँ।

पिछली बार जब मै यहां आया था उसे एक वर्ष से ऊपर हो चुका है। उस बार मैं अकेला न था; तब मेरे साथ ही बैठे थे राष्ट्रीयता के एक परम शक्तिमान् दूत। उन दिनाें वे उस एकांतवास से लौटकर आये थे जहॉं उन्हे भगवान् ने इसलिए भेजा था कि वे अपनी काल कोठरी की शांति और निर्जनता में उस वाणी को सुन सकें जो उन्हें सुनानी थी । उस समय आप सैकड़ों की संख्या में उन्हीं का स्वागत करने आये थे। आज वे हमसे बहुत दूर हैं, हजाराें मील के फासले पर हैं। दूसरे लोग भी, जिन्हें मैं अपने साथ काम करते हुए पाता था, आज अनुपस्थित हैं। देश पर जो तुफान आया था, उसने उन्हें दूर-दूर बिखेर दिया है। इस बार मैं एक वर्ष निर्जनवास में बिताकर आया हूं और अब बाहर आकर देखता हूं कि सब कुछ बदल गया है। जो सदा मेरे साथ बैठते थे, जो सदा मेरे काम मे सहयोग दिया करते थे, आज बर्मा मे कैद हैं; दूसरे उत्तर मे नजरबंद होकर सड़ रहे हैं। जब मैं बाहर आया तो मैंने अपने चाराें ओर देखा, जिनसे सलाह और प्रेरणा पाने का अभ्यास था उन्हें खोजा । वे मुझे नहीं मिले । इतना ही नहीं, जब मैं जेल गया था तो सारा देश वंदे मातरम् की ध्वनि से गूंज रहा था, वह एक राष्ट्र बनने की आशा से जीवित था। यह उन करोड़ों मनुष्याें की आशा थी जो गिरी हुई दशा से अभी-अभी ऊपर उठे थे । जब मैं जेल से बाहर आया तो मैंने इस ध्वनि को सुनने की कोशिश की, किंतु इसके स्थान पर छायी हुई थी निस्तब्धता । देश में सन्नाटा था और लोग हक्के-बक्के से दिखाई दिये; क्योंकि जहां पहले हमारे सामने भविष्य की कल्पना से भरा ईश्वर का उज्ज्वल स्वर्ग था वहां हमारे सिर पर धुसर आकाश दिखाई दिया, जिससे मानवीय वज्र और बिजली की वर्षा हो रही थी। किसी को यह न दिखाई देता था कि किस ओर चलना चाहिए, और चारों ओर से यही प्रश्न उठ रहा था, "अब क्या करें? हम क्या कर सकते हैं?" मुझे भी पता न था, किस ओर चलना चाहिए और अब क्या किया जा सकता है। लेकिन एक बात मैं जानता था, ईश्वर की जिस महान् शक्ति उस ध्वनि को जगाया था, उस आषा का संचार किया था उसी षक्ति ने यह सन्नाटा भेजा है। जो ईश्वर उस कोलाहल और आंदोलन में थे, वे ही इस विश्राम और निस्तब्धता में भी हैं। ईष्वर ने इसे भेजा है ताकि राश्ट्र क्षणभर के लिए रुककर अपने अंदर खोजें और जानें कि उनकी इच्छा क्या है? इस निस्तब्ध्ता से मैं निरुत्साहित नहीं हुआ हूं, क्योंकि कारागार में इस निस्तब्धता के साथ मेरा परिचय हो चुका है और मैं जानता हूं कि मैंने एक वर्ष की लंबी कैद के विश्राम और निस्तब्धता में ही यह पाठ पढ़ा है। जब विपिनचन्द्र पाल जेल से बाहर आये तो वे एक संदेश लेकर आये थे और वह प्रेरणा से मिला हुआ संदेश था । उन्होंने यहां जो वक्तृता दी थी वह मुझे याद है। उस वक्तृ ता का मर्म और अभिप्राय उतना राजनीतिक नहीं था जितना धार्मिक था। उन्हाेंने उस समय जेल के अंदर मिली हुई अनुभूति की, हम सबके अंदर जो भगवान् हैं उनकी, राष्ट्र के अंदर जो परमेश्वर हैं उनकी बात की थी। अपने बाद के व्याख्यानों में भी उन्हाेंने कहा था कि इस आंदोलन में जो शक्ति काम कर रही है वह सामान्य शक्ति की अपेक्षा महान् है।और इसका हेतु भी साधारण हेतु से कहीं बढकर है। आज मैं भी आपसे फिर मिल रहा हूं। मै भी जेल से बाहर आया हूं और इस बार भी आप ही, इस उत्तरपाड़ा के निवासी ही , मेरा सबसे पहले स्वागत कर रहे हैं। किसी राजनीतिक सभा मे नहीं, बल्कि उस समिति की सभा में जिसका उद्देश्य है धर्म की रक्षा। जो संदेश विपिन चन्द्र पाल ने बक्सर जेल में पाया था वही भगवान् ने मुझे अलीपुर जेल में दिया। वह ज्ञान भगवान् ने मुझे बारह महीने के कारावास में दिन-प्रतिदिन दिया और आदेश दिया हैै कि अब जब मैं जेल से बाहर आ गया हूं तो आपसे उसकी बात करूं।

मैं जानता था कि मैं जेल से बाहर निकल आऊंगा। यह वर्ष भर की नजरबंदी केवल एक वर्ष के एकांतवास और प्रशिक्षण के लिये थी । भला किसी के लिये यह कैसे संभव होता कि मुझे जेल में उतने दिनों से अधिक रोक रखता जितने दिन भगवान का हेतु सिद्ध करने के लिए आवश्यक थे? भगवान ने कहने के लिए एक संदेश दिया है। और करने के लिये एक काम, मैं यह जानता था कि जबतक यह संदेश सुना नहीं दिया जाता तबतक कोई मानवशक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती, जबतक वह काम नही हो जाता तबतक कोई मानव शक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती जब तक वह काम नही हो जाता तबतक कोई मानवशक्ति भगवान् के यंत्र को रोक नही सकती, फिर वह यंत्र चाहे कितना ही दुर्बल, कितना ही सामान्य क्याें नही हो । अब जब कि मैं बाहर आ गया हूं इन चंद मिनटों में ही मुझे एक ऐसी वाणी सुझायी गयी है जिसे व्यक्त करने की मेरी कोई इच्छा न थी । मेरे मन में जो कुछ था उसे भगवान् ने निकालकर फैंक दिया है और मैं जो कुछ बोल रहा हूँ। वह एक प्रेरणा के वश होकर, बाध्य होकर बोल रहूँ।

जब मुझे गिरफ्तार करके जल्दी-जल्दी लालबाजार की हाजत में पहुँचाया गया तो मेरी श्रद्धा क्षणभर के लिए डिग गयी थी, क्योंकि उस समय मैं भगवान् की इच्छा के मर्म को नहीं जान पाया था । इसलिए मैं क्षणभर के लिए विचलित हो गया और अपने हृदय में भगवान् को पुकारकर कहने लगा "यह क्या हुआ? मेरा यह विश्वास था कि मुझे अपने देशवासियों के लिए विशेष काम करना है। और जबतक वह काम पुरा नहीं हो जाता तबतक तुम मेरी रक्षा करोगे । तब फिर मैं यहां क्याें हूं और वह भी इस प्रकार के अभियोग में ?" एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गये, तब मेरे अंदर से एक आवाज आयी, "ठहरो और देखो कि क्या होता है। " तब मैं शांत हो गया और प्रतीक्षा करने लगा । मैं लालबाजार थाने से अलीपुर जेल मैं ले जाया गया और वहाँ मुझे एक महीनें के लिए मनुष्यों से दूर एक निर्जन कालकोठरी में रखा गया । वहाँ मैं अपने अंदर विद्यमान भगवान् की वाणी सुनने के लिए, यह जानने के लिए की वे मुझसे क्या कहना चाहते हैं। और यह सीखने के लिए कि मुझे क्या करना होगा, रात-दिन प्रतीक्षा करने लगा । इस एकांतवास में मुझे सबसे पहली अनुभूति हुई, पहली शिक्षा मिली । उस समय मुझे याद आया कि गिरफ्तारी से एक महीना या उससे भी कुछ अधिक पहले मुझे यह आदेश मिला था कि मैं अपने सारे कर्म छोड़कर एकांत चला जाऊँ और अपने अंदर खोज करूँ ताकि भगवान् के साथ अधिक संपर्क में आ सकूं । मैं दुर्बल था और उस आदेश को स्वीकार न कर सका । मुझे अपना कार्य बहुत प्रिय था और हृदय में इस बात का अभिमान था कि यदि मैं न रहूँ तो इस काम को धक्का पहुँचेगा, इतना ही नही शायद असफल और बंद भी हो जायेगा; इसलिए मुझे काम नहीं छोड़ना चाहिए । ऐसा बोध हुआ कि वे मुझसे फिर बोले और उन्हाेंने कहा कि, "जिन बंधनाें को तोड़ने की शक्ति तुममें नहीं थी उन्हें तुम्हारे लिए मैंने तोड़ दिया है क्योंकि मेरी यह इच्छा नहीं है और न थी ही कि वे कार्य जारी रहें । तुम्हारे करने के लिए मैंने दूसरा काम चुना है और उसी के लिए मैं तुम्हें यहां लाया हूँ ताकि मैं तुम्हें वह बात सिखा दूँ जिसे तुम स्वयं नहीं सीख सके और तुम्हें अपने काम के लिए तैयार कर लूंँ।" इसके बाद भगवान् ने मेरे हाथाें में गीता रख दी । मेरे अंदर उनकी शक्ति प्रवेश कर गयी और मैं गीता की साधना करने में समर्थ हुआ। मुझे केवल बुद्धि द्वारा ही नहीं, बल्कि अनुभूति द्वारा भी जानना था कि श्री कृष्ण की अर्जुन से क्या मांग थी और वे उन लोगाें से क्या मांगते हैं। जो उनका कार्य करने की इच्छा रखते हैं, अर्थात् घृणा और कामना-वासना से मुक्त होना होगा, फल की इच्छा न रखकर भगवान् के लिए कर्म करना होगा, अपनी इच्छा का त्याग करना होगा, और निश्चेष्ट तथा सच्चा यंत्र बनकर भगवान् के हाथों में रहना होगा, ऊँच और नीच, मित्र और शत्रु, सफलता और विफलता के प्रति समदृष्टि रखनी होगी और यह सब होते हुए भी उनके कार्य में कोई अवहेलना न आने पाए । मैंने यह जाना कि हिंदू धर्म का मतलब क्या है। बहुधा हम हिंदू धर्म, सनातन धर्म की बातें करते हैं, किंतु वास्तव में हममें से कम ही लोग यह जानते हैं कि यह धर्म क्या है। दूसरे धर्म मुख्य रूप से विश्वास, व्रत, दीक्षा और मान्यता को महत्व देते हैं, किंतु सनातन धर्म तो स्वयं जीवन है, यह इतनी विश्वास करने की चीज नहीं है जितनी जीवन में उतारने की चीज हैं। यही वह धर्म है जिसे मानव जाति के कल्याण के लिए प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास मेें संजोया जाता रहा है। यही धर्म देने के लिए भारत उठ रहा हैं। भारतवर्ष, दूसरे देशो की तरह, अपने लिए ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नही उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति बिखरने के लिये जो उसे साैंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानवजाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानवजाति के लिये महान् होना है।

अतः भगवान् ने मुझे दुसरी वस्तु दिखायी- उन्हाेंने मुझे हिन्दू धर्म के मूल सत्य का साक्षात्कार करा दिया । उन्होंने मेरे के दिल को मेरी ओर मोड़ दिया, उन्होंने जेल के प्रधान अग्रेंज अधिकारी से कहा कि "ये कालकोठरी में बहुत कष्ट पा रहे है; इन्हें कम-से- कम सुबह-शाम आध-आध घंटा कोठरी के बाहर टहलने की अनुमति दे दी जाये।" यह अनुमति मिल गयी और जब मैं टहल रहा था तो भगवान् की शक्ति ने फिर मेरे अंदर प्रवेश किया । मैंने उस जेल की ओर दृष्टि डाली जो मुझे और लोगाें से अलग किये हुए थी । मैंने देखा कि अब मैं उसकी ऊंची दीवारों के अंदर बंदी नहीं हूँ; मुझे घेरे हुए थे वासुदेव । मैं अपनी कालकोठरी के सामने के पेड़ की शाखाओं के नीचे टहल रहा था, परन्तु वहाँ पेड़ न था, मुझे प्रतीत हुआ कि वे वासुदेव हैं; मैंने देखा कि स्वयं श्रीकृष्ण खड़े हैं; और मेरे ऊपर छाया किये हुए हैं । मैंने अपनी कालकोठरी के सींखचों की ओर देखा, उस जाली की ओर देखा जो दरवाजे का काम कर रही थी, वहाँ भी वासुदेव दिखायी दिये । स्वयं नारायण संतरी बनकर पहरा दे रहे थे । जब मैं उन मोटे कंबलाें पर लेटा जो मुझे पलंग की जगह मिले थे तो मैंने यह अनुभव किया कि मेरे सखा और प्रेमी श्री कृष्ण मुझे अपनी बाहुओं में लिये हुए हैं। मुझे उन्हाेंने जो गहरी दृष्टि दी थी उसका यह पहला प्रयोग था । मैंने जेल के कैदियो-चोरों , हत्याराें और बदमाशो-को देखा और मुझे वासुदेव दिखायी पड़े, उन अंधेरे में पड़ी आत्माओं और बुरी तरह काम में लाये गये शरीरों में मुझे नारायण मिले । उन चोरों और डाकुओं में बहुत से ऐसे थे जिन्हाेंने अपनी सहानुभति और दया के द्वारा मुझे लज्जित कर दिया, इन विपरीत परिस्थितियों में मानवता विजयी हुई थी। इनमें से एक आदमी को मैंने विशेष रूप से देखा जो मुझे एक संत मालूम हुआ । वह हमारे देश का एक किसान था जो लिखना-पढ़ना नहीं जानता था , जिसे तथाकथित डकैती के अभियोग में दस वर्ष का कठोर दंड मिला था। यह उनमें से एक व्यक्ति था जिन्हे हम वर्ग के मिथ्याभिमान में आकर "छोटो लोक " (नीच) कहा करते हैं। फिर एक बार भगवान् मुझसे बोले, उन्हाेंने कहा "अपना कुछ थोड़ा-सा काम करने के लिये मैंने तुम्हें जिनके बीच भेजा है। उन लोगों को देखो। जिस जाति को मैं ऊपर उठा रहा हूँ उसका स्वरूप यही है और इसी कारण मैं उसे ऊपर उठा रहा हूँ।"

जब छोटी अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और हम लोग मजिस्ट्रेट के सामने खड़े किये गये तो वहाँ भी मेरी अंतर्दृष्टि मेरे साथ थी । भगवान् ने मुझसे कहा , "जब तुम जेल में डाले गये थे तो क्या तुम्हारा हृदय हताश नहीं हुआ था, क्या तुमने मुझे पुकार कर यह नही कहा था- कहाँ, तुम्हारी रक्षा कहाँ है? लो, अब मजिस्टेªट की देखो , सरकारी वकील की ओर देखो। "मैंने देखा कि अदालत की ओर कुर्सी पर मजिस्ट्रेट नहीं, स्वयं वासुदेव , नारायण बैठे थे । अब मैंने सरकारी वकील की ओर देखा पर वहाँ कोई सरकारी वकील नहीं दिखायी दिया , वहाँ तो श्रीकृष्ण बैठे मुस्करा रहे थे , मेरे सखा , मेरे प्रेमी । उन्होने कहा, "अब डरते हो ? मैं सभी मनुष्यों में विद्यमान हूँ और उनके सभी कर्माेंं और शब्दों पर राज करता हूँ। मेरा सरंक्षण अब भी तुम्हारे साथ हैं, और तुम्हे डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे विरूद्व जो यह मुकदमा चलाया गया है उसे मेरे हाथों मे सौपं दो। यह तुम्हारे लिये नही हैं। मैं तुम्हें यहां मुकदमें के लिए नही बल्कि किसी और काम के लिये लाया हूँ। यह तो मेरे काम का एक साधन मात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं। "इसके बाद जब सेंशन जज की अदालत मे विचार आरंभ हुआ तो मैं अपने वकील के लिये ऐसी बहुत सी हिदायतें लिखने लगा कि गवाही मे मेरे विरूद्व कही गयी बातों मे से कौन सी बातें गलत हैं। और किन-किन पर गवाहों से जिरह की जा सकती हैं। तब एक ऐसी घटना घटी जिसकी मैं आशा नही करता था । मेरे मुकदमें की पैरवी के लिये जो प्रबंध किया गया था वह एकाएक बदल गया और मेरी सफाई के लिये एक दुसरे ही वकील खड़े हुए। वे अप्रत्याशित रूप से आ गये वे मेरे एक मित्र थे किंतु मैं नही जानता था वे आयेगे । आप सभी ने उनका नाम सुना हैं।जिन्होने मन से सभी विचार निकाल बाहर किये और इस मुकदमे के सिवा सारी वकालत बंद कर दी , जिन्होने महीनों लगातार आधी आधी रात तक जगकर मुझे बचाने के लिये अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लिया वे है, श्री चितरंजन दास । जब मैने उन्हे देखा तो मुझे संतोष हुआ। फिर भी मैं समझता था कि हिदायतें लिखनी जरूरी हैं। इसके बाद यह विचार भी हटा दिया गया और मेरे अंदर से आवाज आयी , "यही वह आदमी है जो तुम्हारे पेरौं के चारों ओर फैले जाल से तुम्हे बाहर निकालेगा । तुम इन कागजों को अलग धर दो । इन्हे तुम हिदायतें नही दोगे , मैं दूँगा।" उस समय से इस मुकदमे के संबध मे मैंने अपनी ओर से अपने वकील से एक शब्द भी नहीं कहा, कोई हिदायत नही दी और यदि कभी मुझसे कोई सवाल पूछा गया तो मैंने सदा यही देखा कि मेरे उत्तर से मुकदमे को कोई मदद नहीं मिली । मैंने मुकदमा उन्हें सौंप दिया और उन्होने पूरी तरह उसे अपने हाथो में ले लिया और उसका परिणाम आप जानते ही हैं। क्योंकि मुझे बार-बार यह वाणी सुनायी पड़ती थी, मेरे अंदर से सदा यह आवाज आया करती थी , "मैं रास्ता दिखा रहा हूँ, इसलिए डरो मत । मैं तुम्हे जिस काम के लिये जेल से बाहर निकाला, तो यह याद रखना- कभी डरना मत, कभी हिचकिचाना मत। याद रखो , यह सब मैं कर रहा हूँ और कोई नही । अतः चाहे जितने बादल घिरें , चाहे जितने खतरे और दुःख कष्ट आयें, कठिनाइयाँ हों , चाहे जितनी असभंवताएं आयें, कुछ भी असभंव नही हैं, कुछ भी कठिन नही है। मैं इस देश और उसके उत्थान में हूं, मै वासुदेव हूँ, मैं नारायण हूँ । जो कुछ मेरी इच्छा होगी वही होगा , दूसरों की इच्छा से नहीं । मैं जिस चीज को लाना चाहता हूँ उसे कोई मानव शक्ति रोक नहीं सकती ।"

इस बीच वे मुझे उस एकांत कालकोठरी से बाहर ले आये और मुझे उन लोगो के साथ रख दिया जिनपर मेरे साथ ही अभियोग चल रहा था । आज आपने मेरे आत्म-त्याग और देश-प्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा है। मैं जब से जेल से निकला हूँ तब से इसी प्रकार की बाते सुनता आ रहा हूँ। किंतु ऐसी बाते सुनने से मुझे लज्जा आती है, मेरे अंदर एक तरह की वेदना होती है। क्योंकि मैं अपनी दुर्बलता जानता हूँ , मैं अपने दोषो और त्रुटियों का शिकार हूँ। मैं इन बातों के बारे मे पहले भी अंधा न था और जब मेरे एकांतवास में ये सब की सब मेरे विरूद्व खड़ी हो गयीं तो मैंने इनका पुरी तरह अनुभव किया । तब मुझे मालूम हुआ कि मनुष्य के नाते मैं दुर्बलताओं का एक ढेर हूँ , दोष भरा एक अपूर्ण यंत्र हूँ , मुझसे ताकत तभी आती है जब कोई उच्चतर शक्ति मेरे अंदर आ जाये। अब मैं उन युवकों के बीच में आया और मैंने देखा कि उनमें से बहुतो में एक प्रचण्ड साहस और शक्ति हैं। इनमे से एक-दो ऐसे थे जो केवल बल और चरित्र में मुझसे नही थे- ऐसे तो बहुत थे बल्कि मैं जिस बुद्वि की योग्यता का अभिमान रखता था , उसमें भी बढ़े हुए थे । भगवान् ने मुझसे फिर कहा , "यही वह युवक-दल , वह तुमसे अधिक बड़े हैं। तुम्हे भय किस बात का है? यदि तुम इस काम से हट जाओ या सो जाओ तो भी काम पूरा होगा । कल तुम इस काम से हटा दिये जाओ तो ये युवक तुम्हारे काम को उठा लेगें और उसे इतने प्रभावशाली ढंग से करेंगे जैसे तुमने भी नहीं किया । तुम्हे इस देश को एक वाणी सुनाने के लिये मुझसे कुछ बल मिला है। यह वाणी इस जाति को ऊपर उठाने मे सहायता देगी ।" यह वह दुसरी बात थी जो भगवान् ने मुझसे कही ।

इसके बाद अचानक कुछ हुआ । और क्षणभर में मुझे कालकोठरी के एकांत वास में पहुंचा दिया गया । इस एकांतवास में अंदर क्या हुआ यह कहने की प्रेरणा नही हो रही , बस इतना काफी हैं कि वहां दिन-प्रतिदिन भगवान् ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिंदु धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया । पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे । मेरा लालन-पालन इंग्लैण्ड में विदेशी भावो और सर्वथा विदेशी वातारण में हुआ था। एक समय मैं हिंदु धर्म की बहुत-सी बातों को मात्र कल्पना समझता था , यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न , भ्रम या माया है। परंतु अब दिन -प्रतिदिन मैंने हिंदु धर्म के सत्य को , अपने मन मे , अपने प्राण में और अपने शरीर और मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगी जिनके बारे मे भौतिक विज्ञान कोई व्याख्ता नही दे सकता । जब मैं पहले-पहल भगवान् के पास गया तो पूरी तरह ज्ञानी के भाव से भी नही गया था। बहुत दिन हुए , स्वदेशी-आंदोलन शुरू होने से पहले बड़ोदा मे मैं उनकी ओर बढ़ा था।

उन दिनों जब मैं भगवान् की ओर बढ़ा तो मुझे उन पर जीवन्त श्रद्वा न थी । उस समय मेरे अंदर अज्ञेयवादी था , नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान् हैं भी । मै उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था । फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर , गीता के सत्य की ओर , हिंदु धर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया । मुझे लगा कि इस योग में कही पर कोई महाशक्तिशाली सत्य अवश्य है, वेदांत पर आधारित इस धर्म मे कोई परम सत्य अवश्य है। इसलिये जब मैं योग की मुड़ा और योगाभ्यास करके यह जानने का सकंल्प किया कि मेरा सोचना सही है या नही तो मैने उसे इस भाव और इस प्रार्थना से शुरू किया , "हे भगवान् , यदि तुम हो तो तुम मेरे हदय की बात जानते हो । तुम जानते हो कि मै मुक्ति नही मांगता , मै ऐसी कोई चीज नही मांगता जो दूसरे मांगा करते हैं। मैं केवल इस जाति को ऊपर उठाने की शक्ति मांगता हूँ, मैं केवल यह मांगता हूँ कि मुझे इस देश के लोगो के लिये , जिनसे मै प्यार करता हूं, जीने और कर्म करने की अनुमति मिले और यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं अपना जीवन उनके लिये लगा सकूँ।" मैंने योगसिद्वि पाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयास किया और अंत में किसी हदतक मुझे मिली भी , पर जिस बात के लिये मेरी बहुत अधिक इच्छा थी उसके संबध मे मुझे संतोष नही हुआ । तब उस जेल के, उस कालकोठरी के एकांत वास में मैंने उसके लिये फिर से प्रार्थना की । मैंने कहा , "मुझे अपना आदेश दो , मैं नही जानता कि कौन-सा काम करूं । मुझे एक संदेश दो ।" इस योगयुक्त अवस्था में मुझे दो संदेश मिले । पहला यह था , "मैंने तुम्हें एक काम सौंपा है और वह है इस जाति के उत्थान मे सहायता देना। शीघ्र ही वह समय आयेगा जब तुम्हे जेल के बाहर जाना होगा ; क्योंकि मैं नही चाहता कि इस बार तुम्हे सजा हो या तुम अपना समय , औरों की तरह अपने देश के लिये कष्ट सहते हुए बिताओ । मैने तुम्हे काम के लिये बुलाया है और यही वह आदेश है जो तुमने मांगा था । मैं तुम्हे आदेश देता हूँ कि जाओ और मेरा काम करो ।" दूसरा संदेश आया , वह इस प्रकार था , "इस एक वर्ष के एकांत वास में तुम्हे कुछ दिखाया गया है, वह चीज दिखायी गयी है, जिसके बारे में तुम्हे संदेह था , वह है हिंदु धर्म का सत्य । इसी धर्म को मैं संसार के सामने उठा रहा हूँ , यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों के द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है और अब यह धर्म अन्य राष्टों में मेरा काम करने के लिये बढ रहा है। मैं अपनी वाणी का प्रसार करने के लिये इस राष्ट्र को उठा रहा हूँ। यही वह सनातन धर्म है जिसे तुम पहले सचमुच नही जानते थे , किंतु जिसे अब मैने तुम्हारे सामने प्रकट कर दिया है । तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी , जो संदेह था, उनका उतर दे दिया है, क्योंकि मैने अंदर और बाहर , स्थूल और सूक्ष्म , सभी प्रमाण दे दिया गया है और उनसे तुम्हे संतोष हो गया है। जब तुम बाहर निकलो तो सदा राष्ट्र को यह वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के उठ रहे हैं , वे अपने लिये नही बल्कि संसार के लिये उठ रहे हैं। मैं उन्हे संसार की सेवा के लिये स्वंतत्रता दे रहा हूँ। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारत वर्ष ऊपर उठेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म महान् होगा ।

जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष बढेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन् धर्म बढेगा और संसार पर छा जायेगा । धर्म के लिये और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है। धर्म की महिमा बढाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना । मैने तुम्हे दिखा दिया है कि मैं सब जगह हूं, सभी मनुष्यों और सभी वस्तुओं में हूं, मैं इस आंदोलन मे हूं और केवल उन्ही के अंदर कार्य नही कर रहा जो देश के लिये मेहनत कर रहे हैं बल्कि उनके अंदर भी जो उनका विरोध करते और मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। मैं प्रत्येक व्यक्ति के अंदर काम कर रहा हूं और मनुष्य चाहे जो कुछ सोचे या करें , पर वे मेरे हेतु की सहायता करने के अतिरिक्त और कुछ नही कर सकते । वे भी मेरा ही काम कर रहे हैं। वे मेरे शत्रु नही बल्कि मेरे यंत्र है। तुम यह जाने बिना भी कि तुम किस ओर जा रहे हो , अपनी सारी क्रियाओं के द्वारा आगे बढ़ रहे हो । तुम करना चाहते हो कुछ और पर कर बैठते हो कुछ और । तुम एक परिणाम को लक्ष्य बनाते हो और तुम्हारे प्रयास ऐसे हो जाते हैं जो उनसे भिन्न या उल्टा परिणाम लाते हैं। शक्ति का अर्विभााव हुआ है और उसने लोगो मे प्रवेश किया है। मैं एक जमाने से इस उत्थान की तैयारी करता आ रहा हूं और अब यह समय आ गया है। अब मैं ही इसे पूर्णता की ओर ले जाऊंगा। " यही वह वाणी है जो आपको सुनानी है । आपकी सभा का नाम है "धर्मरक्षिणी सभा"। अस्तु , धर्म का सरंक्षण , दुनिया के सामने हिंदुधर्म का सरंक्षण और उत्थान -यही कार्य हमारे सामने है। परंतु हिंदुधर्म क्या है?वह धर्म क्या है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं? वह हिंदुधर्म इसी नाते है कि हिंदु जाति ने इसको रखा है , क्योंकि समुद्र और हिमालय से घिरे हुए इस प्रायद्वीप के एकांतवास में यह फला-फूला है , क्योंकि इस पवित्र और प्राचीन भूमि पर इसकी युगों तक रक्षा करने का भार आर्यजाति को सौंपा गया था। परंतु यह धर्म किसी एक देश की सीमा से घिरा नहीं है , यह संसार के किसी सीमित भाग के साथ विशेष रूप से और सदा के लिये बंधा नहीं है। जिसे हम हिंदुधर्म कहते है वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है । यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नही हो सकता । कोई संकुचित धर्म , सांप्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिये ही रह सकता है। यही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर विज्ञान के अविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनो का पूर्वाभास देकर और उन्हे अपने अंदर मिलाकर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है। यही एक धर्म है जो मानवजाति के दिल में यह बात बिठा देता है कि भगवान् हमारे निकट है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान् के पास पहुंच सकते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो प्रत्येक क्षण , सभी धर्मों के माने हुए इस सत्य पर जोर देता है कि भगवान् हर आदमी और हर चीज में हैं तथा हम उन्ही में चलते-फिरते हैं और उन्ही में निवास करते है। यही एक ऐसा धर्म है जो इस सत्य को केवल समझने और उसपर विश्वास करने में हमारा सहायक ही नहीं होता बल्कि अपनी सता के अंग-अंग में इसका अनुभव करने भी हमारी मदद करता है। यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार है वासुदेव की लीला । यही एक ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी से अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं, जो हमे यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियम क्या हैं , जो जीवन की छोटी से छोटी बात को भी धर्म से अलग नही करता , जो यह जानता है कि अमरता क्या है और जिसने मृत्यु की वास्तविकता को हमारे अंदर से एकदम निकाल दिया है।

यही वह वाणी है जो आपको सुनाने के लिये आज मेरी जबान पर रख दी गयी थी । मैं जो कुछ कहना चाहता था वह तो मुझसे अलग कर दिया गया है। जो मुझे कहने के दिया गया है उससे अधिक मेरे पास कहने के लिये कुछ नही है । अब वह समाप्त हो चुकी है। पहले भी एक बार जब मेरे अंदर यही शक्ति काम कर रही थी तो मैने आपसे कहा था कि यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन नहीं , बल्कि एक धर्म है , एक विश्वास है , एक निष्ठा है। उसी बात को आज फिर मैं दोहराता हूँ, किंतु आज मै उसे दूसरे रूप में उपस्थित कर रहा हूँ। आज मैं उसे दूसरे ही रूप में उपस्थित कर रहा हूँ। आज मै यह नहीं कहता कि सनातन धर्म ही हमारे लिये राष्ट्रीयता है। यह हिंदूजाति सनातन धर्म को लेकर पनपती है। जब सनातन धर्म की अवनति होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश सभंव होता तो सनातन धर्म के साथ-ही-साथ इस जाति का भी विनाश हो जाता । सनातन धर्म ही है राष्ट्रीयता। यही वह संदेश है जो मुझे आपको सुनाना है।

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