पंचतंत्र

भारत से पशु फिबल्स का प्राचीन संस्कृत पाठ

पंचतंत्र संस्कृत का एक विश्वविख्यात नीति-कथा ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा है। इस ग्रन्थ में प्रतिपादित राजनीति के पाँच तंत्र (भाग) हैं। मनोविज्ञान, व्यवहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती ये कहानियाँ सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखती हैं। कहते हैं कि इन कथाओं के द्वारा विष्णु शर्मा ने मूर्ख राजकुमारों को राजनीति में परम निपुण बना दिया था। पञ्चतन्त्र मानव-जीवन में आने वाले सुख-दुःख, हर्ष-विषाद तथा उत्थान-पतन में विशिष्ट मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

सूक्तियाँ

सम्पादन
  • नहि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्धयति।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, २)
इस विश्व में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो धन के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक धन का ही उपार्जन करना चाहिए।
  • यस्याऽर्थास्तस्य मित्राणि, यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोके, यस्याऽर्थाः स च पण्डितः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ३)
जिसके पास धन है उसी के सभी भाई-बन्धु, सगे-सम्बन्धी हैं। जिसके पास धन है वही इन इस लोक में पुरुष है और जिसके पास धन है वही विद्वान् है।
  • न सा विद्या न तद्दान न तत्छिल्पं न सा कला।
न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ४)
इस विश्व में, ऐसी कोई विद्या, ऐसा कोई दान, ऐसा कोई शिल्प, ऐसी कोई कला एवं ऐसी कोई दृढ़ता, शूरता या स्थिति नहीं है जिसका वर्णन याचकगण धनिकों की प्रशंसा करते समय न करते हों।
  • इह लोके हि धनिनां परोऽपि सुजनायते।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ५)
इस संसार में पराये भी धनी व्यक्ति के लिये सुजन बन जाते हैं और दरिद्र व्यक्तियों के स्वजन भी उसके प्रति दुर्जनता का ही व्यवहार करते हैं।
  • अर्थेभ्योऽतिप्रवृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्यस्ततस्ततः।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ६)
विभिन्न स्रोतों से जलसञ्चय के द्वारा जिस प्रकार समस्त नदियाँ पर्वत से स्वयं निकलती हैं, उसी प्रकार विभिन्न उपायों के द्वारा एकत्रित धन से मनुष्य के सम्पूर्ण कार्य स्वतः सम्पन्न हो जाते हैं।
  • पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ७)
यह धन का ही प्रभाव है कि अपूज्य मनुष्य भी पूजा जाता है, जहाँ जाना कठिन है वहाँ भी व्ह चला जाता है, और अवन्द्य व्यक्ति भी वन्द्य हो जाता है।
  • अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्पण्यखिलान्यपि।
एतस्मातकारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ८)
भोजन से सशक्त इन्द्रियाँ जिस प्रकार शरीर के समस्त कार्यों को स्वतः करती रहती हैं, उसी प्रकार मनुष्य की समस्त आवश्यकतायें भी धन से स्वतः पूर्ण होती हैं। अतएव धन को सब कुछ साधने वाला कहा गया है।
  • अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ९)
धन के प्रति आसक्त व्यक्ति श्मशान की भी उपासना करता है और निर्धन माता-पिता को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है।
  • गतवयसामपि पुरुषां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः।
अर्थेन तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, १०)
धनसम्पन्न व्यक्ति वृद्ध होने पर भी तरुण बना रहता है और तरुण व्यक्ति भी निर्धनता के कारण वृद्ध हो जाता है।
  • मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी। -- (पञ्चतन्त्र, अपरीक्षितकारक (ब्राह्मण-कर्कटक कथा))
मन्त्र में, तीर्थ में, द्विज में, देवता में, ज्योतिषी में, औषधि में और गुरु में जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि मिलती है।

पञ्चतन्त्र के बारे में कथन

सम्पादन
  • पञ्चतन्त्र एक नीति शास्त्र या नीति ग्रन्थ है- नीति का अर्थ जीवन में बुद्धि पूर्वक व्यवहार करना है। चतुरता और धूर्तता नहीं, नैतिक जीवन वह जीवन है जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं का विकास हो अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति हो जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, सत्कर्म, मित्रता एवं विद्या की प्राप्ति हो सके और इनका इस प्रकार समन्वय किया गया हो कि जिससे आनंद की प्राप्ति हो सके, इसी प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए, पंचतन्त्र में चतुर एवं बुद्धिमान पशु-पक्षियों के कार्य व्यापारों से सम्बद्ध कहानियां ग्रथित की गई हैं। पंचतन्त्र की परम्परा के अनुसार भी इसकी रचना एक राजा के उन्मार्गगामी पुत्रों की शिक्षा के लिए की गई है और लेखक इसमें पूर्ण सफल रहा है। -- डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल, पंचतन्त्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए

इन्हें भी देखें

सम्पादन